जमीयत उलेमा हिंद के महमूद मदनी राष्ट्र से ऊपर धर्म को साबित करना चाहते हैं. उनका मानना है कि देश में मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है. उन्हें अलग-थलग किया जा रहा है. जुल्म पर जिहाद को वह इस्लाम का पवित्र काम मानते हैं..!!
वंदे मातरम की हिमायत को वह मुर्दा कौम की संज्ञा देते हैं. सुप्रीम कोर्ट पर उनकी टिप्पणी भी संविधान पर धार्मिक सोच को ऊपर रखने का ही संकेत करती है.
धर्म निजी आस्था है. देश में सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता है. इसमें ना कोई हिंदू है और ना मुस्लिम. सबको उपासना की पूरी आजादी है. निजी आस्था राष्ट्र की आस्था से ऊपर नहीं हो सकती.
यह वैचारिक संघर्ष आजादी के समय भी हुआ. मोहम्मद अली जिन्ना भी धर्म को राष्ट्र के ऊपर मानते थे. इसीलिए उन्होंने धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन कराया. उस समय राष्ट्र से ऊपर धर्म को मानने वालों ने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान को स्वीकार किया. भारत सेकुलर राष्ट्र बना.
दुनिया में गिने चुने इस्लामी राष्ट्र हैं, जो लोकतांत्रिक बचे हैं. हिंदू जीवन पद्धति लोकतांत्रिक संस्कृति में रची बसी है. इसी संस्कृति का ही राजनीतिक उद्घोष है, सबका साथ-सबका विकास. भारत और पाकिस्तान की तुलना हो ही नहीं सकती. भारत आज दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था है और दूसरी तरफ पाकिस्तान दाने-दाने के लिए मोहताज हो गया है.
अगर भारत का कोई भी धार्मिक रहनुमा यह स्थापित करने की कोशिश करता है कि यहां हिंदू और मुसलमान में असमानता राजनीतिक कारणों से है तो यह केवल मानसिक जुगाली से अधिक नहीं. भारत में हर नागरिक हिंदू, मुसलमान सबको समान मताधिकार है. शासन की नीतियों और कार्यक्रमों में कोई भेदभाव नहीं है.
धर्म के आधार पर प्रोटेक्शन की अपेक्षा ही समानता की संवैधानिक भावनाओं के विपरीत है. भारत में हिंदू- मुसलमान के हालातों की तुलना करने से पहले धर्म के आधार पर बने राष्ट्रों की स्थिति पर चिंतन जरूरी है.
पाक में जहां राष्ट्र के ऊपर धर्म को रखा गया है. सेना प्रमुख इसको कलमा के आधार पर बना देश बताते हैं. वहां बहुसंख्यक मुसलमान हैं. सेना प्रमुख भी मुसलमान है और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भी. पाकिस्तान में तो कोई हिंदू शासक नहीं है. मुस्लिम शासको के नियंत्रण में मुसलमानों के साथ जो कुछ हो रहा है, क्या उसे इस्लाम के पवित्र काम के रूप में देखा जाएगा.
वहां के आतंक की नर्सरी, जो दुनिया में आतंकवाद फैला रही है, क्या यह भी जिहाद का पवित्र काम ही कहा जा सकता है. मदनी को जिहाद शब्द को नकारात्मक रूप लव जिहाद, लैंड जिहाद के रूप में संदर्भित करने पर आपत्ति है. उनका कहना है कि, जिहाद इस्लाम का एक पवित्र काम है. जुल्म के खिलाफ इसका उपयोग किया जाता है.
आतंकवादी घटनाओं को जिहाद कहने पर वह एतराज करते हैं लेकिन वह शायद कहना यह चाहते हैं कि जब भी राजनीतिक या सरकारी स्तर पर मुसलमानों पर जुल्म होगा, तब जिहाद जरूर होगा. जुल्म के खिलाफ़ खड़े होना हर इंसान का अधिकार है. यह कोई धार्मिक नहीं बल्कि संवैधानिक मौलिक अधिकार भी है. इस अधिकार को किसी धार्मिक सोच के साथ जोड़कर उपयोग करना राष्ट्रीय हित में नहीं हो सकता.
मदनी यह भी कहते हैं कि भारत में तीस फीसदी लोग मुसलमान के खिलाफ हैं. उनका साफ़ इशारा है कि भाजपा के जो अनुयाई हैं, वह मुस्लिम थॉट प्रोसेस के खिलाफ हैं. इसी सोच पर मुस्लिम बीजेपी को अपना विरोधी मानते हैं. मताधिकार क़ानूनी रूप से गोपनीय उपयोग किया जाता है. किसी समूह का सार्वजनिक रूप से किसी एक दल का खुलेआम विरोध करना राजनीतिक प्रक्रिया में अपनी ताकत प्रदर्शित करने के अलावा कुछ नहीं हो सकता.
धर्म को राष्ट्र से ऊपर रखने की प्रवृत्ति से ही विवाद शुरू होता है. धर्म निजी आस्था है और राष्ट्र सामूहिक. वंदे मातरम तब लिखा गया था जब पाकिस्तान नहीं बना था. आजादी की लड़ाई में इसका उपयोग हिंदू, मुसलमान दोनों राष्ट्रवीरों ने किया था. जब संविधान ने इसे राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया है, तब इसे नहीं गाने या नहीं मानने की धार्मिक जिद क्या संविधान का अपमान नहीं है.
जो समूह हर क्षण अपने अधिकारों के लिए संविधान की दुहाई देता है, वह संविधान के इस हिस्से को अस्वीकार करने में गर्व महसूस करता है. यह दोहरापन इंसानी हो सकता है लेकिन यह राष्ट्रीय धर्म तो कभी नहीं हो सकता.
बहुत सारे उदार मुसलमान हैं, जिन्हें वंदे मातरम में कोई भी धार्मिक असहिष्णुता नहीं दिखती. यह कोई अनिवार्यता तो है भी नहीं, फिर वंदे मातरम के मुद्दे को मुसलमान समुदाय की अस्मिता के खिलाफ़ बताते हुए इसका उपयोग करना क्या धार्मिक आजादी का दुरुपयोग नहीं है.
महमूद मदनी सुप्रीम कोर्ट पर भी टिप्पणी करते हैं. वे कहते हैं कि, सुप्रीमकोर्ट तभी सुप्रीम कहलाने का हकदार है ,जब वह संविधान और कानून की रक्षा करे. सबसे पहला सवाल की संविधान और कानून की संवैधानिकता कोई धार्मिक नेता नहीं तय कर सकता. यह अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास ही है. उनकी यह टिप्पणी बाबरी मस्जिद, तीन तलाक और वक्फ़ पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध उनके विचारों पर आधारित है.
वह ऐसा मानते हैं कि, सुप्रीम कोर्ट सरकार के दबाव में काम करता है. सब कुछ वैचारिक चिंतन की प्रक्रिया पर निर्भर करता है. जब कोई मस्तिष्क धर्म को राष्ट्र से ऊपर मानने लगता है तो फिर ऐसा सोचने लगता है.
एक दौर था, जब शाहबानों केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजीव गांधी सरकार में संसद में कानून बनाकर बदल दिया गया था. राजनीतिक तुष्टिकरण अर्थात टी-सीरीज के प्रॉब्लम की शुरुआत यहीं से होती है. अगर शुरू से ही धार्मिक तुष्टीकरण को मौका नहीं दिया गया होता तो आज उसकी सोच, उदारता की तरफ बढ़ गई होती.
मुसलमानों द्वारा बीजेपी के विरोध के पीछे भी तुष्टीकरण के ऐसे ही कारनामे काम कर रहे हैं. कोई भी समूह राजनीति को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करता है. कभी चलती है और कभी नहीं चलती. जब नहीं चलती तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है.
समानता संविधान की बुनियाद है. इस बुनियाद पर जब भी हमला होगा तो सुप्रीम कोर्ट उसे किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा. उस पर देश के हर नागरिक को भरोसा रखना ही होगा. अब तक सुप्रीम कोर्ट तो इस भरोसे को कायम करने में सफल रहा है.
पाकिस्तान धर्म के आधार पर राष्ट्र संचालन का नारकीय उदाहरण दुनिया के सामने है. कोई भी सोच या दर्शन समय के अनुसार नए-नए रूप लेता है. हमारा संविधान और अदालतें भी बदलाव पर खड़ी हुई है. किसी धर्म को राष्ट्र पर हावी करने की कोशिश करने वालों को धार्मिक राष्ट्रों से सबक लेना चाहिए.
भारत और भारतीयों की लोकतांत्रिक संस्कृति को बदनाम करने की राजनीतिक ‘टी-सीरीज’ गीतों से परहेज करना जरूरी है.