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कांग्रेस में हार की उमंग और जीत का दंभ

सार

कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी से चुनाव लड़ रही है, या खुद से लड़ रही है. मोर्चे पर प्रत्याशी हताश और निराश हैं. कभी कांग्रेस के जनरल रहे नेता भी, परिवार की विरासत बचाने के लिए, सहानुभूति का सहारा ले रहे हैं. कहीं आखिरी चुनाव के नाम पर सहानुभूति बटोरने की कोशिश हो रही है. कहीं प्रत्याशी चुनाव लड़ने की औपचारिकता निभा रहे हैं, तो कहीं हार की उम्मीद में ही उमंग है, तो कहीं जीत का दंभ दिखाई पड़ता है..!!

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विस्तार

    जिस प्रदेश में फ्यूल का प्रबंध ना होने के कारण सबसे बड़े नेता राहुल गांधी को मजबूरी में एक रात गुजारनी पड़ रही हो, उस राज्य में चुनाव प्रबंधन के हालत समझे जा सकते हैं. विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद एमपी कांग्रेस में सब कुछ बदल दिया गया था. यह बदलाव ही कांग्रेस में कई नेताओं को लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद नए बदलाव की उम्मीद पैदा कर रहा है. मध्य प्रदेश में कई कांग्रेस नेता इसी उम्मीद के लिए चुनाव लड़ते  दिखाई पड़ रहे हैं.

    बीजेपी के देश में सबसे मजबूत संगठन मध्य प्रदेश के संगठन से मुकाबले में जिस फ्यूल की ज़रूरत एमपी कांग्रेस को है, वह फ्यूल स्टॉक में दिखाई नहीं पड़ता. अभी भी ऐसी खबरें आ रही है, कि कुछ प्रत्याशियों के टिकट बदले जा सकते हैं. क्योंकि वे प्रत्याशी चुनाव ठीक से नहीं लड़ रहे हैं. टिकट वितरण में तो कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में कमोवेश वैसे ही किया है, जैसे विधानसभा चुनाव में किया था. 

    मीडिया में ऐसी रिपोर्ट्स आई हैं, कि किस प्रत्याशी को किस नेता ने टिकट दिलाया है. टिकट दिलाने में प्रतिद्वंदी को हराने और खुद के जीतने का प्रायोजित प्रचार ही भीतर के घाव दिखा रहा हैं. 

    कांग्रेस आलाकमान की रणनीति का शायद यह हिस्सा रहा है, कि राज्यों में पीसीसी प्रेसीडेंट और विधायक दल के नेता के बीच में टकराव बना रहे. मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार का कार्यकाल छोड़ दिया जाए तो, कांग्रेस विपक्ष में ही रही है. इस बीच में हर विधानसभा चुनाव के बाद, बदलाव किए गए. हर बदलाव के पीछे मंशा सुधार की होती है. लेकिन कांग्रेस के बदलाव तो बहुत थोड़े समय में ही, पिछली व्यवस्था की अच्छाइयों की याद दिलाने लगते हैं.

    बीजेपी ने मध्य प्रदेश में 2014 में 27 सीटें हासिल की थी. बीते कई चुनाव  में भाजपा बड़ी जीत हासिल करती रही है. केवल छिंदवाड़ा की सीट पर ही लड़ाई कही जा सकती है. छिंदवाड़ा का माहौल भी इस बार कुछ बदला हुआ दिखाई पड़ रहा है. साथियों का छूट रहा साथ अगर नाथ को भी अनाथ कर जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. अगर राज्य की सभी 29 सीटें बीजेपी जीतने में सफल होती है, तो दोनों दलों कांग्रेस और बीजेपी में बनने वाली परिस्थितियां रोमांचक हो सकती हैं.

    जहां तक बीजेपी का सवाल है, विधानसभा चुनाव में जिन हाथों में कमान थी, उनमें से शिवराज सिंह चौहान अपने संसदीय चुनाव में व्यस्त हैं. प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा भी खजुराहो से चुनाव मैदान में हैं. इसलिए मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की भूमिका बढ़ गई है. उनकी सक्रियता और चुनावी प्रचार में अप्रत्याशित भागीदारी एमपी में बीजेपी के नए नेतृत्व को मजबूती देगी. शिवराज सिंह चौहान और वी.डी. शर्मा केंद्र की राजनीति में ज्यादा सक्रिय होंगे, तो मध्य प्रदेश स्वाभाविक रूप से मोहन के सम्मोहन पर आगे बढ़ेगा.

    कांग्रेस का जहां तक सवाल है, अगर छिंदवाड़ा सीट भी कांग्रेस पराजित हो जाती है, तो फिर कांग्रेस को अपने पांव जमाने में कड़ी मशक्कत करनी होगी. यूपी में भी कांग्रेस इसी तरह की प्रक्रिया में धीरे-धीरे कमजोर हुई थी और अब तो ऐसे हालात बन गए हैं, कि कांग्रेस के दिग्गज नेता भी यूपी में चुनाव मैदान में उतरने से डर रहे हैं.

    विधानसभा चुनाव के बाद हार का ठीकरा कमलनाथ पर फोड़ा गया. युवा नेतृत्व के नाम पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर जीतू पटवारी और नेता प्रतिपक्ष के पद पर उमंग सिंगार को दायित्व दिया गया. मालवा अंचल के दोनों नेता कांग्रेस में नई परंपरा की शुरुआत नहीं कर पाए. नेता प्रतिपक्ष और संगठन के प्रमुख के बीच टकराव की परंपरा ही आगे बढ़ती हुई ही दिखाई पड़ रही है. पार्टी में हुए इस बदलाव को स्वाभाविक और सहज रूप से पचाया नहीं जा पा रहा है. पार्टी के भीतर जो संघर्ष चल रहा है, उसमें कई गुट लोकसभा चुनाव में एमपी में संपूर्ण पराजय के कारण परिवर्तन की उम्मीद लगाए हुए हैं. इसका मतलब है कि एमपी में कांग्रेस की हार कई नेताओं की उम्मीद का आधार बना हुआ है.

    एमपी कांग्रेस में जिस तरह से बिखराव हुआ है. जिस प्रकार नए नेतृत्व के बाद भी पार्टी से नेता टूट रहे हैं. यहां तक कि विधायक भी पार्टी छोड़ रहे हैं. इसका मतलब है, कि कांग्रेस में बेहतर भविष्य के प्रति भरोसे की कमी लगातार बढ़ती जा रही है. राजनीति आज सेवा तो बची नहीं है. बेहतर, उज्जवल भविष्य और सम्मान की रक्षा के लिए, पार्टियों में दल -बदल अब रोजमर्रा का विषय बन गया है.

    कांग्रेस के दो दिग्गज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह चुनाव मैदान में सक्रिय दिखाई पड़ रहे हैं. कमलनाथ अपने बेटे के लिएअपना सर्वस्व दांव पर लगाए हुए हैं. तो दिग्विजय सिंहआखिरी चुनाव के नाम पर अपने गृह क्षेत्र को फिर से जीतने की जद्दोजहद कर रहे हैं. यह दोनों सीट कड़ी टक्कर में मानी जा सकती हैं, लेकिन मोदी मैजिक और मोदी लहर हर लोकसभा सीट पर स्थानीय प्रत्याशी को जो मदद कर रही है. उसके कारण परिणाम का आंकलन प्रत्याशियों के आधार पर करना सही नहीं होगा. 

    स्पष्ट नाउम्मीदी के बाद भी उम्मीद का समंदर कांग्रेस में हीं हिलोरें मार सकता है. विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था. यहां तक कि ओपिनियन पोल और सर्वेक्षण भी धोखा खा गए थे. बिना नब्ज़ को समझे हुए, दावे करने की कांग्रेस की प्रवृत्ति परिणाम के बाद उसे ही निराशा के गर्त में धकेल देती है.

    मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए संघर्ष की संभावनाएं हैं, लेकिन बिना संघर्ष जीत का दंभ और उमंग आत्मघाती साबित होता रहा है और इस बार भी यही होने की संभावना दिख रही है. सरकार बदलने के लिए कांग्रेस को पहले खुद बदलना होगा. बाहरी राजनीतिक आडंबर को कम करना होगा और भीतर जागृत होना होगा. कांग्रेस में जो चेहरे उपयोग हो चुके हैं, अब उनकी उपयोगिता मार्गदर्शक की ही बचेगी. नए चेहरे नया जोश नई ऊर्जा सबको साथ लेने की क्षमता नकारात्मकता से आगे बढ़ने की आकांक्षा के साथ ही धन-वैभव और पावर के प्रदर्शन से बचना कांग्रेस की जीवन रक्षा के लिए ज़रूरी है.