एमपी में कांग्रेस को ओबीसी पॉलिटिक्स ने ही किनारे किया है. मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद कांग्रेस ने प्रदेश में अब तक सवर्ण मुख्यमंत्री ही दिए हैं. वहीं, बिना किसी जातिगत जनगणना के बीजेपी की ओबीसी पॉलिटिक्स ने एमपी में सरकार बनाने और चलाने का दो दशकों का रिकॉर्ड कायम कर दिया है.
उमा भारती बीजेपी की पहली ओबीसी मुख्यमंत्री थीं. उसके बाद बाबूलाल गौर और बाद में शिवराज सिंह चौहान बिना जातीय राजनीति के लंबे समय से सर्व समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. मध्यप्रदेश की राजनीति जातिवादी नहीं है. मुख्यमंत्री के पद पर भले ही जातीय समीकरण से राजनीतिक दल नेतृत्व तय करें लेकिन किसी भी समय में नेतृत्व के कारण जातीय असंतोष कभी भी नहीं देखा गया है.
एक जिले की राजनीति और राज्य की राजनीति को एक ही नजरिए से आंकते हुए कमलनाथ जल्दबाजी में उनकी सरकार में जातिगत जनगणना करने का ऐलान कर रहे हैं. राहुल गांधी पहले ही मध्यप्रदेश की सभा में ऐसा ऐलान कर चुके हैं. देश में जातिवाद की राजनीति ने जोर नहीं पकड़ा होता तो शायद कांग्रेस का सफाया नहीं होता. कांग्रेस को जातियों ने ही मारा है. अब जब कांग्रेस बिना जातिगत जनगणना के राजनीतिक नारे के चार राज्यों में सत्ता में आने में सफल रही है तो फिर जातिवाद का जहर पीने का आत्मघाती कदम न मालूम किस मजबूरी में उठा रही है?
एमपी की राजनीतिक अस्मिता को जातिवादी बनाने की कांग्रेस की कोशिश राज्य की राजनीतिक दिशा तो शायद नहीं बदल पाएगी लेकिन पार्टी की दिशा को यूपी और बिहार जैसे जातिवादी राजनीति वाले राज्यों की तरफ जरूर मोड़ सकती है.
उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के वर्तमान हालात का इतिहास जातिवादी राजनीति में ही छिपा है. काशीराम और मुलायम सिंह यादव ने दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीति को जब आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया तब कांग्रेस यूपी में सिमटती गई. बिहार में भी जातियों के कारण ही कांग्रेस अपने पतन के बुरे दौर में पहुंच गई है. दक्षिण भारत की राजनीति में भी जातिवाद के कारण कांग्रेस को पिछड़ना पड़ा है. क्षेत्रीय अस्मिता के विस्तार के साथ कांग्रेस का पतन जुड़ा हुआ है. इसी प्रकार जातिवादी राजनीति के विकास के क्रम में कांग्रेस के क्रमिक पतन का इतिहास हमारे सामने है.
एमपी कांग्रेस में आज भी नेतृत्व के स्तर पर एकाधिकार सवर्ण समुदाय के लोगों के हाथ में ही केंद्रित है. ओबीसी लीडर के रूप में अरुण यादव, कमलेश्वर पटेल, राजमणि पटेल, जीतू पटवारी दिखाई तो पड़ते हैं लेकिन इन सभी नेताओं को अपने राजनीतिक वजूद के लिए सतत संघर्ष करते हुए पाया जाता है. कांग्रेस को आज तक एमपी में एक भी राजनेता ऐसा नहीं मिला जो ओबीसी समाज से हो और जिसे पार्टी और सरकार का नेतृत्व सौंपा जा सके. जातिगत जनगणना के आंकड़े कांग्रेस को किस तरह से लाभ पहुंचाएंगे जब पार्टी और सरकार में ओबीसी लीडरशिप को आगे बढ़ाने का प्रयास ही नहीं किया जाएगा.
विधानसभा के आसन्न चुनाव में ही कांग्रेस के ओबीसी से लगाव की वास्तविकता उजागर हो जाएगी. विधानसभा प्रत्याशियों की सूची में ओबीसी समाज के पुरुष और महिलाओं की हिस्सेदारी और भागीदारी कम से कम उतनी तो रखी जाएगी जितनी उनकी संख्या वर्तमान में है. कांग्रेस ऐसा कभी नहीं कर पाएगी.
डिवाइड एंड रूल का टेस्टेड फार्मूला जातिगत जनगणना के कांग्रेस के नजरिए में देखा जा सकता है. हिंदू और सनातन को राजनीतिक रूप से बीजेपी के पाले में मानते हुए कांग्रेस हिंदू समाज में विभाजन के बीज के रूप में जातिगत जनगणना के मुद्दे को शायद पकड़ा है. पीएम नरेंद्र मोदी ने भी ऐसा ही कहा है कि जातीय विभाजन कर कांग्रेस हिंदुओं को बाँटकर देश को कमजोर करना चाहती है. प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को अल्पसंख्यक मोर्चे पर भी घेरा है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कांग्रेस का यह कहना था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है. कांग्रेस ने अब अपना यह अप्रोच बदल दिया है. अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि जितनी आबादी, उतना हक, यह हमारा प्रण है.
जातीय राजनीति के गढ़ बिहार में जाति आधारित गणना के आंकड़े आते ही विवाद भी शुरू हो गया है. कई जातियां यह आरोप लगा रही हैं कि जानबूझकर उनकी जाति की संख्या कम बताई गई है. एक और बड़ा सवाल यह उत्पन्न हुआ है कि जब मुस्लिम समाज की पापुलेशन 17% के करीब बिहार में है तो फिर जितनी आबादी उतना हक का अधिकार क्या मुस्लिम समाज को नहीं मिलेगा? पिछड़ा वर्ग की राजनीति में कांग्रेस को कितना लाभ होगा यह तो वक्त के साथ सामने आएगा लेकिन सवर्ण समाज में और मुस्लिम समाज में कांग्रेस को सेटबैक लगने की संभावना हो सकती है.
जातीय जनगणना पर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल जो अतिवादी नजरिया सामने रख रहे हैं उसके पीछे ओबीसी समाज की भलाई के उद्देश्य से ज्यादा बीजेपी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने का लक्ष्य है. चुनावी नतीजे ये साबित कर रहे हैं कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में ओबीसी समाज का सर्वाधिक समर्थन बीजेपी को मिला है. इसी समर्थन को नुकसान पहुंचाने का दृष्टिकोण जातिगत जनगणना को राजनीतिक मुद्दा बनाने के पीछे काम कर रहा है.
कांग्रेस ने राम जन्मभूमि आंदोलन के समय राजनीतिक लाभ के लिए जन्मभूमि का ताला खुलवाया था. दूसरी तरफ शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए कानून बनाया था. हिंदू और मुसलमान दोनों को खुश करने की कांग्रेस की दोहरी रणनीति कांग्रेस की वर्तमान हालात के लिए जिम्मेदार है. जातीय जनगणना में भी कांग्रेस इसी तरह की गलत रणनीति पर आगे बढ़ रही है. कांग्रेस द्वारा पीएम मोदी के विरोध में खड़ा किया जा रहा इंडिया गठबंधन ऊपर से तो ऐसा दिख रहा है कि जातीय राजनीति से मजबूत होगा लेकिन जब इसके वास्तविक नतीजे सामने आएंगे तब इस गठबंधन के बिखराव के लिए कांग्रेस का जातिवादी स्टैंड ही जिम्मेदार दिखाई पड़ेगा.
एमपी में जनाधार के नज़रिए से बीजेपी और कांग्रेस लगभग समान स्तर पर खड़े हैं. मध्यप्रदेश विकास की राजनीति पर आगे बढ़ता दिखाई पड़ रहा है. अभी तक कांग्रेस और भाजपा विकास की ही बात कर रहे थे. अब कांग्रेस जातिवाद की राजनीति को अपनी चुनावी जीत का आधार बनाने की कोशिश कर रही है.
राज्यों के चुनाव में कड़ा मुकाबला दे रही कांग्रेस केंद्र में पीएम मोदी को टक्कर देने के लिए ‘आधी छोड़ पूरी को धावे आधी मिले न पूरी पावे’ मुहावरे को चरितार्थ कर रही है. जो राहुल गांधी और कमलनाथ अपनी जातियां उजागर करने से बचते हैं, वही देश और एमपी को जातिवादी राजनीति में धकेल कर क्या हासिल करना चाहते हैं?