“क्लाइमेट फाइनैंस” या “जलवायु वित्त” केवल वह भुगतान या हर्जाना नहीं है जो जलवायु परिवर्तन के इन विपरीत और असंगत प्रभावों को कम करने के काम आए..!
बहुत तेज़ी हो रहे जलवायु परिवर्तन ने कुछ नए शब्दों की रचना कर दी है। ये शब्द नयी व्याख्या और संस्कृति का निर्माण कर रहे हैं। दुनिया मौसम की अतियों की मार झेल रही है। यह बात भी स्पष्ट है कि इस तबाही का असर भी असमान है। यह दुनिया के सबसे गरीब देशों में गरीब लोगों को सबसे बुरी तरह प्रभावित कर रही है।
जैसे “क्लाइमेट फाइनैंस” या “जलवायु वित्त” केवल वह भुगतान या हर्जाना नहीं है जो जलवायु परिवर्तन के इन विपरीत और असंगत प्रभावों को कम करने के काम आए। बल्कि इसका संबंध उस बदलाव के लिए धन मुहैया कराना भी है जिसकी इन देशों को विकास की प्रक्रिया में जरूरत है। उन्हें अलग तरह के विकास की आवश्यकता है ताकि वे बिना अधिक उत्सर्जन के आगे बढ़ सकें। यही वजह है कि जलवायु न्याय इतना अधिक मायने रखता है।
“जलवायु न्याय” शब्द का सबसे पहली बार इस्तेमाल सन 1992 में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज में हुआ था। वहां इस बात पर सहमति बनी थी कि ऐतिहासिक रूप से वातावरण को प्रदूषित करने वाले देशों को उत्सर्जन कम करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी सहमति बनी थी कि शेष विश्व जिसे विकास का अधिकार था उन्हें वित्तीय मदद और तकनीकी मदद मुहैया कराई जाएगी ताकि वे टिकाऊ वृद्धि हासिल कर सकें। बहरहाल, बीते 30 वर्षों से अधिक समय में दुनिया में अनगिनत जलवायु सम्मेलन हुए हैं और इनका इरादा प्राय: इस सिद्धांत को शिथिल करने या समाप्त करने प्रतीत हो रहा है।
बदलती जलवायु की तरह ही समता का मुद्दा भी खत्म होने वाला नहीं है। आज, दुनिया की आबादी का 70 प्रतिशत हिस्सा अपनी बेहतरी के लिए ऊर्जा या अन्य अनिवार्य आवश्यकताओं के मामले में सुरक्षित विकास नहीं हासिल कर सका है। इस बीच दुनिया का वह कार्बन बजट लगभग समाप्त हो गया है जो दुनिया की तापवृद्धि को औद्योगिक युग के पूर्व के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखने के लिए आवश्यक था।अब यह भी स्पष्ट है कि 2009 में सालाना जिस 100 अरब डॉलर राशि का वादा किया गया था और जो अब तक भ्रामक बनी हुई है, वह राशि भी शायद अपर्याप्त साबित होगी। वैसे भी उसे हासिल करने में काफी देर हो चुकी है। हकीकत में एक अलग तरह का सुरक्षित भविष्य हासिल करने के लिए बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता है। ऐसे में हमें तेजी से पैसे जुटाने की आवश्यकता है।
इस हेतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमें ढांचागत मुद्दों पर भी विमर्श करना होगा जिनमें वैश्विक असमानता शामिल है। इस असमानता के कारण यह लगभग तय है कि दुनिया के गरीब देश उत्सर्जन में कमी की कीमत नहीं चुका पाएंगे। एक रिपोर्ट प्रकाश में आई है जिसका शीर्षक है ‘बियॉन्ड क्लाइमेट फाइनैंस।’ यह रिपोर्ट इस मसले को सुलझाने में मदद कर सकती है।
“जलवायु वित्त” के नाम पर एकत्रित की गई धनराशि अपर्याप्त है। जलवायु वित्त से दुनिया का क्या तात्पर्य है इसकी कोई ऐसी परिभाषा नहीं है जिस पर सभी सहमत हों परंतु सब इस बात पर चर्चा नहीं करते हैं कि जलवायु वित्त के नाम पर जो भी राशि दी जा रही है वह किसी किस्म की रियायत नहीं है।इस राशि में बमुश्किल 5 प्रतिशत अनुदान है जबकि शेष ऋण या इक्विटी के रूप में है। ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं है कि जिसे “जलवायु वित्त” का नाम दिया जा रहा है वह उन देशों को नहीं मिलने वाला है जिन्हें उसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। आश्चर्य की बात नहीं है कि ये फंड वहां जाते हैं जहां पैसे बनाने की संभावना अधिक हो, जहां वित्तीय बाजार स्थिरता को खतरा कम हो और जहां वित्त की लागत कम हो।
यूरोप में एक सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने पर उसकी ब्याज लागत 2-5 प्रतिशत होती है, ब्राजील में यह 12-14 प्रतिशत और कुछ अफ्रीकी देशों में यह 20 प्रतिशत तक होती है। ऐसे में जाहिर है ब्राजील और अफ्रीका में संयंत्र लगाना व्यावहारिक नहीं होगा। ज्यादा बुरी बात यह है कि अगर यह पैसा ऊंची ब्याज दर वाले ऋण के रूप में अफ्रीका जाता है, जो कि अनिवार्य तौर पर होता है तो बस उन देशों की ऋण चुकाने की समस्या में ही इजाफा होगा।विभिन्न देश कर्ज चुकाने में डिफॉल्ट नहीं कर सकते हैं क्योंकि वैसा करने से उनकी क्रेडिट रेटिंग खराब हो सकती है। जलवायु परिवर्तन वहाँ की स्थिति को और खराब कर देगा क्योंकि सर्वाधिक संवेदनशील देश वे हैं, जिन पर कर्ज का बोझ अधिक है।जलवायु परिवर्तन की हर आपदा इन देशों को और अधिक कर्ज के बोझ में डुबा देती है क्योंकि वे अपने आप को बचाने के लिए हर बार नया कर्ज लेते हैं। इस बीच इन देशों की क्रेडिट रेटिंग खराब कर दी जाती है और उनकी ऋण की लागत और बढ़ जाती है।
आज मुश्किल से गुजर रहे अधिकांश देश जिन्हें उत्सर्जन कम करने के लिए भी धन चाहिए। उनका कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। वे वार्षिक ब्याज के रूप में जो राशि चुकाते हैं वह 2023 में उनके सरकारी राजस्व के 16 प्रतिशत तक थी। जाहिर है अब छोटे बदलावों की बात नहीं कर सकते हैं।ऐसे भी प्रस्ताव हैं जिनके मुताबिक रियायती वित्त व्यवस्था के लिए नई धनराशि तलाश की जा सकती है।
इसी मुद्दे पर उल्लेखनीय है ब्रिजटाउन एजेंडा। बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोट्टली ने इस बारे में स्पष्ट आह्वान किया है। हमें जल्दी जवाब चाहिए।समग्र अर्थ यह है कि जलवायु वित्त की यह प्रवृत्ति बदलनी होगी जहां अब तक वह केवल विभिन्न देशों का कर्ज बढ़ाने का काम कर रहा था और उन्हें अगली त्रासदी के लिए और मुश्किल में डाल रहा था। ऐसे में अब जरूरत इस बात की है कि जलवायु परिवर्तन जैसे इस बड़े संकट के लिए वाकई धन जुटाया जाए।