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झटके का दंश निर्माण नहीं, होता विध्वंस

सार

ऐसा पहली बार हो रहा है, कि कांग्रेस के नेता एक झटके में गरीबी हटाने का झटका दे रहे हैं. लोकसभा चुनाव सात चरणों में हो रहे हैं. जब चुनाव एक झटके में नहीं हो सकते, तब गरीबी एक झटके में जरूर दूर हो सकती है. एक झटके में गरीबी हटाने का झटका इस तरह का है, जैसे 53 साल का कोई व्यक्ति युवा कहलाने का झटका देता है..!!

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विस्तार

    लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान में राहुल गांधी के डायलॉग काफी चर्चा में हैं. एक झटके में देश की गरीबी दूर कर दूंगा. महिलाओं के खातों में खटाखट-खटाखट एक लाख रुपए आएंगे. युवाओं को पहली पक्की नौकरी दी जाएगी. राहुल गांधी की ऐसी-ऐसी चुनावी बातें चुनावी विज्ञान को झटके पर झटका दे रहे हैं. झटका का मतलब ही नकारात्मक होता है. झटके में कोई निर्माण नहीं होता. झटके में विध्वंश होता है. 

    चुनावी डायलॉग देश को झटके पर झटका दे रहे हैं. राहुल गांधी की चुनावी भाषा, उनके चुनावी वायदे, उनकी चुनावी रणनीतियां कांग्रेस के लिए झटके से कम नहीं हैं. इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ कार्यक्रम कांग्रेस की 60 सालों की सरकारें गरीबी नहीं हटा पाईं. लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान तो ऐसे-ऐसे डायलोगों के लिए याद किया जाएगा कि इस पर अगर कोई फिल्म बनाई जाए, तो वह कमर्शियल फिल्मों से भी ज्यादा कलेक्शन करेगी.

    भारत के लोग भी गजब हैं, कि राजनेता उनको देना चाहते हैं, लेकिन फिर भी वह लेना नहीं चाहते. पिछले लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस हर परिवार को 72 हज़ार रुपए देने का ऐसे ही चुनावी वादा किया था. लेकिन जनता ने कांग्रेस में कोई रुचि नहीं दिखाई. अब तो चुनावी बातें राजनीतिक शिष्टाचार भी समाप्त कर रही हैं. 

    गरीबी हमेशा से सियासी सेहत की सबसे अच्छी दवाई रही है. हर नेता, हर सरकार गरीबी हटाने का नारा देती है. कभी गरीबी हटाओ की बात होती है, तो कभी गरीब कल्याण की बात होती है. लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है, कि कांग्रेस के नेता एक झटके में गरीबी हटाने का झटका दे रहे हैं. लोकसभा चुनाव सात चरणों में हो रहे हैं. जब चुनाव एक झटके में नहीं हो सकते, तब गरीबी एक झटके में जरूर दूर हो सकती है. एक झटके में गरीबी हटाने का झटका इस तरह का है, जैसे 53 साल का कोई व्यक्ति युवा कहलाने का झटका देता है. 

     चुनाव जीतने के लिए हथकंडे तो समझे जा सकते हैं, लेकिन ऐसे-ऐसे हथकंडे जिनका कोई आधार ही ना हो. कोई वजूद ही ना हो. राहुल गांधी और उनकी सलाहकार मंडली इस बात से खुश हो सकती है, कि वह जिस तरह के डायलॉग चुनाव में दे रहे हैं, उनकी बहुत चर्चा हो रही है. 

    पीएम नरेंद्र मोदी प्रतिक्रिया देते हैं. बीजेपी भी उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है. बिना खर्चा, चर्चा के फार्मूले पर तो राहुल गांधी बिल्कुल सफल हैं. राहुल गांधी तो एक चुनावी सभा में यहां तक कह रहे हैं, कि आप लोग बताओ पीएम मोदी से क्या बुलवाना है. आप लोग जो कहोगे मैं उसको उछाल दूंगा तो प्रतिक्रिया में पीएम मोदी जरूर बोल देंगे. 

    वार-प्रतिवार दोनों तरफ से चल रहा है. कांग्रेस शायद इस रणनीति पर काम कर रही है, कि जितना झटका अपनी बातों से दे सकते हो, उतना इस चुनाव में दिया जाए. परिणाम के दिन भले ही इन सबको इससे ज्यादा झटका लगे, लेकिन अभी तो झटके पर झटके दिये जाओ.

    नेता चुनाव में जो भी डायलॉग दे रहे हैं, उनका प्रभाव क्या पड़ रहा है, इस पर शोध होने की जरूरत है. राजनेताओं की विश्वसनीयता कितनी रसातल की तरफ जा रही है. इस पर चिंतन करने की जरूरत है. राजनीति के अपराधीकरण से ज्यादा लफ्फाजीकरण लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है.

      पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जातिगत जनगणना के खिलाफ थे. उस दौर में कांग्रेस का नारा होता था, ना जात पर ना पात पर मोहर लगेगी इंदिरा जी की बात पर और कांग्रेस के हाथ पर. राहुल गांधी जातिगत जनगणना को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बता रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल है, कि गांधी परिवार के जातिगत जनगणना पर अब तक के विचार सही थे या आज उनकी विरासत जो विचार दे रही है, वह सही हैं.

    करप्शन खत्म हो जाएगा तो गरीबी अपने आप खत्म हो जाएगी. कांग्रेस की तरफ से करप्शन खत्म करने की कोई भी रणनीति सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आई है. बीजेपी कांग्रेस को करप्शन की जननी कहती है, तो उल्टे कांग्रेस भी बीजेपी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती जरूर है, लेकिन अभी तक एक भी आरोप प्रमाणिकता के साथ स्थापित नहीं कर पाई है.

    जांच एजेंसियों के छापों में जो नोटों के पहाड़ जब्त हो रहे हैं, उनको उन गरीबों के बीच बांटने का नया विचार पीएम मोदी दे रहे हैं. चुनावी सभाओं में उन्होंने कहा है, कि वह कानूनी सलाह ले रहे हैं, कि बेईमानों ने जिन गरीबों से चूसकर कर यह नोट जमा किए हैं, उन गरीबों की पहचान कर उनका पैसा वापस लौटाया जाए.

    वैसे तो देश में गरीबी का स्तर कम हुआ है. लोगों के स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग सुधरे हैं. सरकारी सिस्टम में गरीबों को चूसने की प्रवृत्ति कम होती दिखाई पड़ती है, लेकिन इसको पूरी तरह से बंद करने की जरूरत है. अगर देश में ऐसा संभव हो पाया तो गरीबी अपने आप मिट जाएगी.  यह काम ना खटाखट हो सकता है, ना फटाफट हो सकता है और ना झटके में हो सकता है. इसके लिए सुनियोजित प्रयास नेक नीयत और ईमानदार गवर्नेंस की जरूरत है. 

    सियासत में तो कोई किसी को ईमानदार मानता नहीं है. हर राजनेता अपने को छोड़कर बाकी सबको बेईमान स्थापित करता है, जबकि वास्तविकता यह है, कि अगर वह अपनी असलियत खुद महसूस कर ले तो, फिर ईमानदारी को स्थापित होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. खुद सुधरेंगे तो जग सुधरेगा यही भ्रष्टाचार मिटाने का जरिया हो सकता है.

    यह बहुत बचकाना सोच है, कि कोई भी निर्माण झटके में हो सकता है. झटके में तो फूंक मारकर बर्थडे केक की मोमबत्ती ही बुझाई जा सकती है. झटके से कोई सृजन नहीं होता. निर्माण के लिए प्लानिंग और प्रोसीजर पर काम करना पड़ता है. ऐसा नहीं है, कि कांग्रेस की तरफ से ही स्तरहीन चुनावी डायलॉग दिए जा रहे हैं. बीजेपी की ओर से भी ऐसे डायलॉग आ रहे हैं, जिनको स्तरीय नहीं कहा जा सकता. 

    कांग्रेस कहती है, कि हर युवक को पक्की नौकरी दी जाएगी. अप्रेंटिस एक्ट को बनाकर उसके तहत अप्रेंटिस के लिए मानदेय देने की व्यवस्था के प्रॉमिस को पक्की नौकरी के रूप में प्रचारित करना युवाओं के लिए झटके से कम नहीं है. सियासत को विकास से ज्यादा बंदरबांट की पद्धति बनाया जा रहा है. विधानसभा के चुनाव में ऐसे-ऐसे वायदे किए जाते हैं, जिन पर जनता यकीन ही नहीं करती. जनता ऐसे दलों को नकार भी देती है. फिर भी ऐसे हवाई चुनावी वायदे करने वाले राजनेता अपने को लोकतंत्र का बड़ा सेवक बताते हैं. 

    ऐसी बातें संविधान की भावनाओं का खुला अपमान लगता है. संविधान की कौन सी धारा में लिखा है, कि एक लाख नकद देकर एक झटके में गरीबी मिटाई जा सकती है. गरीबी मिटाने का यह महाज्ञान भारत के अब तक के राजनेताओं को नहीं था. ऐसी अविश्वसनीय राजनीति समाज में भी अविश्वास की भावना बढ़ा रही है. कुछ भी बोल दो बस चुनाव जीतना है. चुनाव हारने के बाद इन वायदों के बारे में कभी दोबारा बात नहीं की जाती. फिर अगला चुनाव आएगा तो फिर ऐसे चुनावी डायलॉग गढ़े जाएंगे.

    राजनीति ने देश को धर्म और जाति में तो बांट ही दिया है. अब झूठे वायदों और झूठी बातों में भी बांटने की कोशिश की जा रही है. राजनीति के दिग्गज प्रतिक्रियावादी राजनीति ज्यादा करते दिखाई पड़ रहे हैं. यह अलग बात है, कि कुछ दल और नेता ऐसी बातें कर रहे हैं, जो देश के लोकतंत्र और संविधान को खतरे में डाल सकता है. ऐसी बातों की प्रतिक्रिया में अगर स्पष्टता के साथ कुछ कहा जाता है, तो यह तो लोकतंत्र के लिए जरूरी है.

    पूरे चुनाव को अगर ध्यान से देखा जाए तो विकास से ज्यादा हिंदू-मुस्लिम की बात उभरी हैं. इन मुद्दों पर पब्लिक मौन है, लेकिन राजनीति मुखर है. कांग्रेस जहां पर्सनल लॉ को प्रोत्साहन की बात करती है, तो बीजेपी इसे तुष्टिकरण कहते हुए समान नागरिक संहिता की बात उठाती है. इन बातों के जरिए भी हिंदू-मुस्लिम होता है. अगर संविधान सम्मत बात ही की जाती है, तो फिर प्रतिक्रिया में भी संविधान सम्मत बात ही होती. जब विभाजन की सोच पर बातें रखी जाएंगी, तो उनके स्पष्टीकरण में भी विभाजन सामने आएगा. 

    सियासी लोगों का टारगेट अपनी सत्ता की गरीबी दूर करना है. गरीबी हटे या नहीं हटे इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता. पहले भी गरीबी हटाओ का नारा दिया जाता था. चुनाव जीते जाते थे और गरीब जहां के तहां खड़े रहते थे. एक झटके में गरीबी दूर करने का चुनावी झटका भी सत्ता की गरीबी दूर करने का ही टोटका कहा जा सकता है. पब्लिक अवेयरनेस इतना ज्यादा है, कि अब सियासी लोगों को अपनी असालियत छुपाने का मौका नहीं है.

    लोगों की नजर में सब कुछ खुला हुआ है. किस दल ने किस नेता ने राष्ट्र के लिए क्या किया है? समाज के लिए क्या किया है? ईमानदारी के लिए क्या किया है? यह सब जनता बखूबी समझती है. अब चुनावी डायलॉग केवल हंसी ठिठौली के लिए ही सुने और उपयोग किए जाते हैं. चुनावी डायलॉग का चुनावी नतीजों  से दूर-दूर तक संबंध दिखाई नहीं पड़ता. जनता का  EVM का झटका सभी झटकेबाजों को ऐसा लगेगा कि झटके का सही मतलब समझ जाएंगे.