धार्मिक असहिष्णुता से जूझ रहे देश को एक समरसता की प्रगतिशील सोच की जरूरत है, जिसमें सभी धर्मों की जिम्मेदार संस्थाएं व प्रतिनिधि रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
प्रतिदिन-राकेश दुबे
यूँ तो आज के “प्रतिदिन” का विषय कल कुछ और तय था , लेकिन देश में धार्मिक असहिष्णुता की चौतरफा फ़ैल रही चुनौती ने विषय बदल दिया | आज इस समस्या पर पूरे देश को विचार करने की जरूरत है | धार्मिक असहिष्णुता से जूझ रहे देश को एक समरसता की प्रगतिशील सोच की जरूरत है, जिसमें सभी धर्मों की जिम्मेदार संस्थाएं व प्रतिनिधि रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
देश में आज महंगाई के मारक स्तर तक जा पहुंची है। बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। दूसरी तरफ आयेदिन धार्मिक स्थलों को लेकर उठने वाले विवाद व प्रतिगामी सोच के प्रपंच देश के सामने नई चुनौती पैदा कर रहे हैं। ऐसे में ज्ञानवापी मुद्दे की बात को उठा या विस्तार देकर हम इतिहास नहीं बदल सकते। इस देश को न आज के हिंदुओं ने बनाया है और न ही आज के मुसलमानों ने। जिस घटनाक्रम पर बहस जारी है. यह उस समय घटा था जब हमलावर बाहर से आये थे, जिसके मूल में स्वतंत्र भारत का सपना देखने वाले लोगों का मनोबल तोड़ना ही मकसद था । आज यदि हिंदू समाज अपने श्रद्धा स्थलों पर तो ध्यान देता है लेकिन इसका मतलब संप्रदाय विशेष का विरोध नहीं है। यह भी उतना ही सत्य है कि अधिकांश मुस्लिम भी इसी जमीं में पले-बढ़े हैं। रोज-रोज नया मुद्दा नहीं उठाया जाना चाहिए। किसी भी विवाद का मिल-बैठकर सहमति से रास्ता निकाला जाना चाहिए। जब नहीं निकलता है तो इसमें न्यायलय की भूमिका शुरू होती है । फिर न्यायलय से जो निर्णय आये उसका सम्मान होना चाहिए। हमें अपनी न्याय व्यवस्था को संविधान सम्मत मानकर स्वीकार करना चाहिए।
वर्तमान में यह बात तार्किक है कि हर पूजा पद्धति का सम्मान किया जाना चाहिए। भारत की धरती में फले-फूले किसी धर्म के अनुयायी को बाहर का नहीं माना जाना चाहिए। धर्म किसी का व्यक्तिगत मामला है, वो किसी भी धर्म में रहे यह उसकी इच्छा है। अपने धर्म के प्रति हरेक की अपनी मान्यता हो सकती है, उसके प्रति पवित्र भावना हो सकती है। किसी भी पूजा पद्धति का विरोध नहीं होना चाहिए। हम समान पूर्वजों के वंशज हैं। एक और महत्वपूर्ण तथ्य सामने है, जिसके कई पक्ष हैं | जैसे संघ प्रमुख ने कहा कि उनका संगठन आगे मंदिरों को लेकर कोई आंदोलन नहीं करेगा।इससे वे लोग रुष्ट है, जो संघ के इशारे पर अब तक एकतरफा सोचते जा रहे थे | समाज को अनावश्यक विवादों में अपनी ऊर्जा का क्षय नहीं करना चाहिए। देश यदि २१ वीं सदी में यदि धार्मिक विवादों में उलझा रहेगा तो प्रगति की राह निश्चित ही अवरुद्ध होगी। किसी भी तरह की अशांति आखिरकार समाज में असुरक्षा का वातावरण ही पैदा करती है जिसका लाभ सिर्फ राजनीतिक दल ही उठाते हैं। उन्हें वोटों के ध्रुवीकरण का लाभ उठाने का मौका मिल जाता है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है सामाजिक संगठनों को ऐसी कोशिश करना चाहिए जिसमें सत्तारूढ़ दलों की ईमानदार कोशिश की भी बड़ी भूमिका है । ऐसा नहीं हो सकता कि शीर्ष नेतृत्व व जमीनी कार्यकर्ताओं के व्यवहार में साम्य न हो। यदि खीचीं गई लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होता है तो शब्दों की गरिमा को ही ठेस पहुँचती है । देश नब्बे के दशक की अशांति व असुरक्षा के माहौल से काफी आगे निकल चुका है। किसी भी तरह के टकराव व उसके बाद उपजी हिंसा से पूरा देश प्रभावित होता है। असुरक्षा के माहौल में कभी सकारात्मक सोच नहीं उभरती। आज तो रोजगार-रोटी आम आदमी की प्राथमिकताएं हैं। अशांति व टकराव इस खाई को और बढ़ाता है जो अमीर-गरीब के बीच निरंतर चौड़ी होती जा रही है। समाज में किसी तरह की अशांति से आम आदमी की जीविका बाधित होती है और सार्वजनिक शांति भंग होती है। अब समय आ गया है कि दूसरे धर्मों के जिम्मेदार लोगों को भी समाज में समरसता के लिये ईमानदार प्रयास करने चाहिए।