मप्र में भावी मुख्यमंत्री की अपरंपरागत बहस से भंवर में फंसी कांग्रेस..!
अनुकूलताओं के बीच प्रतिकूलताओं की तलाश..! कांग्रेस में यह गुंजाइश सदैव बनी ही रहती है तथा कांग्रेसजन इसका उपयोग भी खुलकर करते हैं। इस वक्त 'भावी व अवश्यंभावी मुख्यमंत्री' को लेकर जारी घमासान इसी कांग्रेस - कल्चर की बानगी है। लगता है कि कमलनाथ कैंप के एक दांव ने कांग्रेस को कांग्रेस के ही मुकाबिल खड़ा कर दिया है। पार्टी अंदरखानों में इससे उभरी बहस को सुना जा सकता है। वजह, आज तक कांग्रेस में ऐसा नहीं हुआ कि किसी नेता को उसके कैंप ने मुख्यमंत्री घोषित कर दिया हो।
अब तक चुनाव के पहले 'भावी' के बारे में सिर्फ संकेत चलते थे और कांग्रेस देश में इक्का- दुक्का अपवादों को छोड़कर कभी सीएम फेस सामने रखकर चुनाव नहीं लड़ी। हर बार यही कहा गया कि 'पार्टी आलाकमान जैसा चाहे या आलाकमान जो फैसला करेगा वह मंजूर' आदि आदि।
तो क्या यह राजस्थान में कुछ महीने पहले उभरे एक घटनाक्रम का विस्तार है? या आलाकमान से खास अनुरोध है? गौरतलब यह कि, तब गहलोत ने खुद को निर्लिप्त बताया था और अब नाथ भी ऐसा ही बता रहे हैं! यही वजह है कि मप्र में कमलनाथ को भावी सीएम बनाने के पोस्टर-बैनर पर अचरज हैं, यह अचरज तब गहरा जाता है जब नाथ मीडिया को कहते हैं- '.. बात मुख्यमंत्री की नहीं, भावी सरकार की है, या कोई ऐसे नारे लगाने लगे तो मैं क्या कर सकता हूं... ।'
लेकिन ताड़ने वाले नेता कहते हैं- उन्होंने यह 'निर्देश' भी तो नहीं दिये गए कि कोई ऐसा न करे? लिहाजा पार्टी के भीतर कई नेता इस पूरे एपिसोडको हैरत से देख रहे हैं कि खुद नाथ यदि इस मुहिम पर सहमत नहीं है तो यह चली कैसे ? इसमें उनके कुछ 'मैनेजर्स' के नाम दबी जुबान लिये भी जा रहे हैं। मगर यह भी संभावना है कि नाथ खेमे ने कंकर फेंककर लहरें गिनने की युक्ति चलाई हो और यह भी संभव है कि वे जिन पर भरोसा करते हैं वही कोर ग्रुप सदस्य या मैनेजर्स अपना स्कोर सैटल कर रहे हों ?
हालांकि मौजूदा वक्त में मप्र में कमलनाथ के कद का नेता नहीं है, वे पार्टी के भीतर सभी गुटों के बीच स्वीकार्य हैं। जिन वरिष्ठ नेताओं ने इस मुहिम को लेकर आश्चर्य व 'आलकमान की मर्जी' गिनाई है, वे भी नाथ के नेतृत्व को खारिज नहीं करते।
एक नेता कहते हैं - वे जब भी मिलते हैं लगता ही नहीं कोई खलिश हो । फिर भावी सीएम वाली मुहिम के निहितार्थ क्या? वह भी तब, जबकि कांग्रेस- नाथ के सामने 'मैदान उसी तरह खुला हुआ है जो 2018 में था । तब, नाथ के नाम पर किसी नेता की जुबान पर 'इफ एंड बट' नहीं था। वह इस बार न उभरे यह नाथ खेमे की पहली चिंता होना चाहिये, क्योंकि प्रतिद्वंदी भाजपा कोई मौका नहीं छोड़ने वाली । यह दोनों तरफ के प्रमुख चेहरों का जीवन-मरण जैसा द्वंद है। बहरहाल, चार दशक आलाकमान के साथ काम कर चुके नाथ की शैली दिल्ली जैसी है, यही हाशिये पर खड़े सीनियर नेताओं को चुभ रही है, हालात तो यही बता रहे हैं कि नाथ को मप्र की पिच पर अपना 'स्टांस' थोड़ा बदलना होगा।