एक ट्रस्ट ने ५६९ गांवों में ९८००० लोगों के बीच चार साल तक किए गए अध्ययन के बाद पाया कि दलित, भले ही वे हिन्दू हों, ९०.२ प्रतिशत गांवों के ग्राम मंदिरों में प्रवेश नहीं पा सकते..!
प्रतिदिन-राकेश दुबे
01/09/2022
भारत के राजनीतिक दल, गठबंधन, और राजनीतिक दलों के प्रेरणा स्रोत तथाकथित सामाजिक सांस्कृतिक सन्गठन आज़ादी के ७५ साल बाद भी देश में सामजिक समरसता पैदा नहीं कर सके हैं |एक ट्रस्ट ने ५६९ गांवों में ९८००० लोगों के बीच चार साल तक किए गए अध्ययन के बाद पाया कि दलित, भले ही वे हिन्दू हों, ९०.२ प्रतिशत गांवों के ग्राम मंदिरों में प्रवेश नहीं पा सकते; ५४ प्रतिशत पब्लिक स्कूलों में दलित बच्चों को अन्य बच्चों से अलग कर मिड डे मील दिए जाते हैं और ५४ प्रतिशत पंचायतों में दलित सरपंच और पंचायत सदस्यों के लिए अलग से कप और गिलास हैं। सरकार कोई भी रही हो, प्रश्न भारत के संविधान का है | क्या सरकारों की प्राथमिकता बदल गई है?
७ अगस्त को जो घटा, वो तो और ज्यादा शर्मनाक है | दलित परिवारों ने अपने पीतल के बर्तन और जमा सिक्के इकठ्ठा कर गलाये और एक हजार किलोग्राम का सिक्का बनाया, इसे एक ट्रक पर रखा गया था। इस पर एक-एक रुपये के २० लाख सिक्के भी थे। इनके अतिरिक्त, बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर की प्रतिमा और संविधान की प्रतिकृति भी साथ में थी, इसे लेकर वे दिल्ली जाना चाहते थे । लेकिन यह यात्रा गुजरात में मेहसाना और बनासकांठा तथा राजस्थान से तो यात्रा गुजर गई, परन्तु ७ अगस्त की शाम राजस्थान-हरियाणा सीमा पर हरियाणा पुलिस ने रोक दिया।
खास तौर से डिजाइन किया गया १००० किलोग्राम वजन वाला सिक्का नए संसद भवन में रखे जाने के लिए राष्ट्रपति को सौपने के इरादे से यह यात्रा निकली थी |प्राप्त जानकारी के अनुसार इस सिक्के पर यह सवाल खुदा हुआ है कि ‘अस्पृश्यता-मुक्त भारत का १९४७ का सपना क्या २०४७ में वास्तविक होगा? केन्द्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से उन्हें इस सिक्का यात्रा को दिल्ली की तरफ न जाने देने का निर्देश है। हरियाणा के होने के बावजूद पुलिस वाले शालीन थे और उन लोगों ने भोजन और रात में ठहरने के इंतजाम के प्रस्ताव भी किए जिन्हें मना कर दिया गया। यात्रा के यात्री कोई दान मांगने दिल्ली नहीं जा रहे थे। वे तो यह पूछने जा रहे थे कि क्या अगले २५ साल में भी छुआछूत खत्म हो पाएगी या नहीं।देश में आज भी दलितों के लिए आजादी का कोई मतलब नहीं है अगर उन्हें लक्ष्य कर की जा रही हिंसा का कोई अंत नहीं है?
१९९७ तक दलित हिंसा को लेकर प्रामाणिक आंकड़े गायब थे।
पिछले ४२ साल के उपलब्ध आंकड़े के आधार पर अनुमान इस तरह ल्ग्याया गया हैं- हत्याः २५९४७ (दलित), ५३३६ (आदिवासी); बलात्कारः ५ ४९०३ (दलित महिलाएं), २२००४ (आदिवासी महिलाएं); पुलिसमें दर्ज उत्पीड़न के मामलेः १२ ,०४ ,६६५ (दलित), २,११,३३१ , (आदिवासी)। मीडिया में छपी-दिखाई गई स्टोरीज भी संकेत देती हैं कि दलितों और आदिवासियों पर निर्मम हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या जाति और छुआछूत को जड़ से मिटाया जा सकता है? इसका एकमात्र प्रभावी रास्ता संविधान के प्रति निर्भीक निष्ठा है। भारत के राजनीतिक दल, गठबंधन, और राजनीतिक दलों के प्रेरणा स्रोत तथाकथित सामाजिक सांस्कृतिक सन्गठन बरायेनाम गाल बजाते दिखते हैं |
याद कीजिये जाति भेद के खिलाफ डरबन में २००१ में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान भारत सरकार ने दावा किया कि भारत में कोई छुआछूत नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद १७ और ‘आरक्षण’ के प्रावधान इस दावे के समर्थन में उद्धृत किए गए। और फिर भी इसी साल यानि २०२२ में कर्नाटक सरकार ने छुआछूत मिटाने के लिए ‘विनय समरस्य योजना’ शुरू की और तमिलनाडु सरकार ने ५०० से अधिक गांवों की सूची जारी की जहां छुआछूत की चिंताजनक प्रथा अब भी जारी है। साफ है कि छुआछूत अब भी जारी है। भारत सरकार को प्राथमिकता के साथ छुआछूत पर एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए |