पांच राज्यों के चुनाव में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2 चरण और उत्तराखंड, गोवा में मतदान प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है| इन सभी इलेक्शन में पिछली बार की तुलना में मतदान कम होना क्या संकेत कर रहा है? चुनाव आयोग द्वारा अधिकाधिक मतदान के प्रचार अभियान, जाति और धार्मिक ध्रुवीकरण और डिजिटल टारगेटेड प्रचार के बाद भी, मतदाताओं का मतदान में रुझान कम क्यों हुआ है? क्या यह राजनीति में डिफिसिट आफ ट्रस्ट माना जाएगा| राजनीतिक दलों के दावों को माना जाए तो दलों के सदस्यों की संख्या के बराबर भी मतदान नहीं होना क्या इंगित कर रहा है?
लोकतंत्र का भविष्य क्या संकट में लग रहा है? लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ने क्या लोगों को निराश किया है? लोकतांत्रिक शासकों के तुष्टीकरण, जातीय राजनीती और लाभ हानि की नीतियां लोगों ने पसंद नहीं की| बढती शिक्षा के साथ जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति से लोग निराश हो रहे हैं| चुनावी दौर और शासन के कार्यकाल में राजनेताओं के काम और दाम का दोमुंहा चेहरा राजनीति के प्रति वैराग्य का कारण बन रहा है| लोकलुभावन चुनावी वायदों के फायदे कम, मतदाताओं को नुकसान ज्यादा उठाने पड़ते हैं| जनता द्वारा जनता की और जनता के लिए निर्मित व्यवस्था, क्या अपनी बुनियाद से भटक रही है|
चुनाव में राजनीति सामाजिक विद्रूपताओं को बढ़ाने का काम करती दिखाई पड़ती हैं| जो समाज पांच साल शांति और सहयोग के साथ रहता है, वह चुनाव के समय बट क्यों जाता है? जो जातियां एक दूसरे पर अभिन्न रूप से निर्भर होती हैं, वह भी कटी कटी कैसे हो जाती हैं? विकास की सकारात्मक राजनीति, क्या चुनाव में नहीं हो रही है? “गरीब और गरीब” और “अमीर और अमीर” होता जा रहा है| जो जितना अमीर होता जाता है वह लोकतांत्रिक मतदान से कटता जाता है| मतदान दिवस अमीरों के लिए इतने महत्वपूर्ण नहीं होते| क्योंकि जो भी चुना जाएगा, उस जनप्रतिनिधि को अमीरों के पास तो जाना ही पड़ेगा, ऐसा लगता है कि भारत का लोकतंत्र, आज केवल अशिक्षित और गरीबों के कारण ही जीवित है| लोकतांत्रिक व्यवस्था से जनता ही निराश नहीं हो रही है| बल्कि गरीब गुरबे जो जीतकर जनप्रतिनिधि बन जाते हैं वह भी सिस्टम से निराश हो जाते हैं|
आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था, सामूहिकता पर नहीं, बल्कि लीडरशिप समूह पर आधारित हो गई है| समाज रहेगा तो उसको चलाने की व्यवस्था रहेगी| समाज विभाजित रहेगा तो कोई भी व्यवस्था कैसे सफल होगी| आजकल तो एक व्यक्ति भी विनाश को अंजाम देने में सक्षम दिखाई पड़ता है|
आज की व्यवस्था में जो सरकारें बन रही हैं, क्या उनके पास बहुमत का विश्वास होता है? कोई भी चुनाव हो, 40 से 48 प्रतिशत के बीच मत पाने वाला दल सत्ता प्राप्त कर लेता है| इसका मतलब है कि आधे से ज्यादा लोग क्रियाशील सरकार के निर्माण में भागीदार नहीं होते|
राजनीति और राजनेता, आज विश्वास के संकट के दौर से गुजर रहे हैं| पूरी राजनीति और सारे राजनेता गलत हैं ऐसा नहीं है| लेकिन 75 सालों में मतदाताओं ने जो देखा और भोगा है उससे तो आम धारणा राजनीति और राजनेता के खिलाफ बनती है| क्या देश में गरीबी दूर हुई? लोगों के जीवन यापन में सहूलियत हुई? ऐसा तो बिल्कुल नहीं लगता| गरीबी की कमी के आंकड़े जरूर कम ज्यादा हो सकते हैं| हकीकत में गरीबी अभी भी तुलनात्मक रूप से वहीं की वहीं खड़ी है|
राजनीतिक दल आज भी मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद को आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों के चश्मे से देखते और बताते हैं| मुख्यमंत्री का पद भी क्या दलित आदिवासी पिछड़े वर्ग का माना जाएगा?
राजनीति किस दिशा में जा रही है? हमारा लोकतंत्र क्या डिक्टेटरशिप की तरफ बढ़ रहा है? जब लोग लंबे समय तक कष्ट में रहते हैं,तब उनकी एक ही आवाज होती है| एक मजबूत और ताकतवर लीडरशिप चाहिए| ऐसा लीडर चाहिए जो सही को सही और गलत को गलत कहने का माद्द्दा रखता हो| आजकल तो ज्यादातर लोग तेरी भी जय मेरी भी जय की मिली जुली व्यवस्था पर काम करते हैं|
हम तुम्हारी पीठ खुजलायें, तुम हमारी पीठ खुजलाओ|
चुनाव के समय आमने सामने आ जाएंगे, चाहे तुम कल कुर्सी पर रहो या हम| फिर एक दूसरे की पीठ खुजलाने में लग जाएंगे|
लोकतांत्रिक व्यवस्था की विकृतियों, विकारों और राजनीति के विचारों, व्यवहारों से, जन सरोकारों का तालमेल बमुश्किल दिखता है| आज तो राजनीति, हेट में फेट का सबसे बड़ा दाव बन गई है| राजनीति आधारित फिल्म और वेब सीरीज पोलिटिक्स और पोलिटीशियंस का जो व्यक्तित्व और कृतित्व दिखाते हैं, वह तो डरावने लगते हैं|
लोकतंत्र को बचाना है तो चुनाव सुधार बहुत जरूरी है| मतदान करने को भी लीगल फोर्मेट में लाना होगा| राजनीति और राजनेताओं को जन विश्वास बढ़ाने के लिए सतत काम करना होगा|
गवर्नमेंट परफॉर्मेंस पर लगातार और पैनी नजर रखने का सिस्टम बनाना होगा|
विकास के मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति बनाना होगा| सरकारों में जनता को केंद्रीय भूमिका में लाना होगा| ब्यूरोक्रेसी को पब्लिक सेंट्रिक करना होगा| जनता के पैसों की लूट, चोरी को सख्ती से रोकना होगा| सरकारों को यह साबित करना होगा कि वह जनता द्वारा जनता की और जनता के लिए हैं|
केवल वोटिंग के दिन ही नहीं, हर दिन सरकार का हिसाब रखना होगा| बेरुखी से नहीं अंदर घुसकर सिस्टम पर दबाव बनाकर सुधार लाना होगा|
अगर हम ऐसा नहीं कर सके तो मतदान घटता ही जाएगा| लचर लोकतंत्र किसी काम का बचेगा इस पर सवालिया निशान उठेंगे| फिर तो डेमोक्रेटिक डिक्टेटर की व्यवस्था एकमात्र रास्ता बचेगी|
चुनाव में कम हो रहे मतदान को चुनाव आयोग को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है| आयोग को पूरे देश में पंचायत स्तर तक गहन सर्वे कराना चाहिए, आखिर लोग मतदान में हिस्सा क्यों नहीं ले रहे हैं? मतदान से दूर होने के क्या कारण हैं? इन कारणों पर नीतिगत निर्णय लेकर चुनाव सुधार को अंजाम देने से ही लोकतंत्र को बचाया जा सकेगा|