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दलितों का रुझान तय करेगा यूपी का नया कप्तान..! सरयूसुत मिश्र

सार

यूपी के चुनाव में सभी दल दलितों को साधने में जुटे हुए हैं| दलितों की रहनुमा मायावती की बेरुखी के कारण राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि दलित इस बार कौन सी राह चुनेंगे? उत्तर प्रदेश में लगभग 21% दलित मतदाता हैं| दलितों का रुझान ही उत्तर प्रदेश का नया कप्तान तय करेगा| इन चुनावों में दलित अचानक इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए ?

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विस्तार

काशीराम ने 90 के दशक में यूपी में दलित राजनीति की शुरुआत की थी| दलितों के साथ ब्राह्मणों को  जोड़ने का मायावती का प्रयोग उन्हें यूपी की सत्ता दिला चुका है| 2022 के विधानसभा चुनाव में जमीन पर मायावती की सक्रियता कम दिखाई पड़ रही है| इसके कारण दलितों के वोटों पर सभी दल दावेदारी कर रहे हैं| सपा ने भाजपा में दलबदल करा कर दलित एवं अति पिछड़े चेहरे अपने साथ इसी आशा के साथ जोड़े हैं कि उसके दल को दलितों का समर्थन मिलेगा| पहले दलित परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ जुड़े रहे हैं| इसलिए कांग्रेस भी  मायावती की कमजोरी का फायदा उठाकर अपने परंपरागत वोटर को फिर से जोड़ने की कोशिश कर रही है|

भाजपा भी दलित वोटों को साधने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है| चुनाव घोषणा के 2 महीने पहले भाजपा ने सभी जिलों में दलितों के सम्मेलन करके अपने दलित जनाधार को मजबूत करने का प्रयास किया है| मायावती चुनावी समर में जब से कमजोर हुई हैं  तब से दलित वोट बीजेपी के साथ जुड़ गए हैं|2014 और  2019 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों की बड़ी संख्या भाजपा के साथ गई थी| इसी कारण भाजपा विधानसभा और लोकसभा में भारी बहुमत पाने में सफल रही है| पिछले 7 वर्षों से जाटों को छोड़कर बाकी दलित जातियां भाजपा के साथ जुड़ गई हैं, ऐसा चुनाव परिणामों के विश्लेषण से लगता है|

उत्तर प्रदेश में कुल दलित आबादी का 56% जाटव हैं| अन्य जातियों में बाल्मीकि 1.3%, धानुक 1.5% कोल 4.5%,  कनौजिया धोबी 16%, पासी 16% और अन्य जातियां 4.5% हैं| पिछले चुनाव में दलितों का वोटिंग पैटर्न देखा जाए तो प्रतीत होता है कि जाटव समाज ने मुख्यतः बीएसपी को वोट किया है| मायावती भी जाटव हैं, पासी धोबी और बाल्मीकि समाज का झुकाव बीजेपी के प्रति रहा है| दलित समुदाय में सपा के प्रति समर्थन बहुत कम दिखाई पड़ता है| इसका कारण शायद यह है कि सपा मुख्यतः यादवों की पार्टी है और यादव समाज का प्रभावी वर्ग है| गांव स्तर पर दलितों और अति पिछड़े लोगों की जिंदगी में  ताकतवर जाति यादव के साथ ही टकराहट सामान्य रूप से महसूस की जाती है| यादवों और दलितों का सामाजिक समीकरण, सामंजस्य का नहीं बन पाता, क्योंकि यादव वर्ग अपना प्रभुत्व दलितों पर ही स्थापित करने की कोशिश करते हैं| जिसके विरोध में यह  समुदाय समय-समय पर रीटेलिएट करता रहा है|

इस चुनाव में मायावती ने प्रत्याशियों की जो अपनी पहली सूची जारी की है, उसमें दलित मुस्लिम कांबिनेशन को बहुत बेहतर ढंग से संयोजित किया है| बसपा की सूची जारी होने के बाद सपा के हलकों में भी चिंता देखी गई थी| मायावती ने जो जातिगत समीकरण सीटों पर बिठाया है वह समीकरण सपा प्रत्याशियों के खिलाफ जाते दिखाई पड़ रहे हैं| भाजपा हिंदुत्व के बहाने दलित सहित सभी जातियों को जोड़ने में लगी हुई है| इसके अलावा भाजपा ने मोदी और योगी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से भी इन वर्गों तक अपनी पहुंच बनाई है| भाजपा ने मायावती के दलित बेस पर अपनी सेंध लगाई है| मायावती के इन चुनाव में चुप्पी को भी भाजपा की रणनीति के रूप में ही देखा जा रहा है|

भाजपा शुरू से ही यह प्रयास करती रही है कि कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से दलितों और अति गरीबों के घर तक सीधी अपनी पकड़ बनाए| उसकी इसी रणनीति से प्रधानमंत्री आवास योजना और किसान सम्मान निधि के साथ ही निशुल्क राशन घर-घर तक पहुंचाने की योजनाएं लागू हुई हैं| इन योजनाओं का लाभ दलित और गरीब तबकों को मिला है| पिछले चुनाव में भाजपा के पक्ष में दलितों और गरीब लोगों के समर्थन के पीछे भी इन योजनाओं का काफी हाथ माना जाता रहा है| भाजपा के पक्ष में एक और बात जो दिखाई पड़ रही है, वो है उसका मजबूत संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समाज की सेवाओं में सहयोग|

भाजपा ने दलितों की विभिन्न जातियों में युवा नेताओं  को उभारने का जो प्रयास किया है, उसका भी लाभ, बीजेपी को मिलता दिखाई पड़ रहा है| इन चुनावों में भाजपा की जो पहली लिस्ट आई है उसमें जाटव समाज के साथ ही दलित समुदाय की जातियों के ज्यादा से ज्यादा नेताओं को टिकट देने की भाजपा की रणनीति भी मायावती के वोटर बेस  में सेंध लगाने का ही प्रयास है| दलित ब्राह्मण कॉम्बिनेशन के परिणाम स्वरूप  उत्तर प्रदेश में पहली दलित मुख्यमंत्री मायावती बन चुकी थी| साल 2014 के बाद ब्राह्मण दलित समीकरण का झुकाव भाजपा के प्रति होने के कारण ही भाजपा को चुनाव में इतनी बड़ी सफलता मिल सकी है|  2022 के विधानसभा चुनाव में भी ब्राह्मण दलित समीकरण भाजपा के पक्ष में जाता है तो फिर से भाजपा सरकार बनने से कोई रोक नहीं सकेगा|

भाजपा को टक्कर दे रही समाजवादी पार्टी दलितों को साधने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से पीछे नहीं है| सपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के विधानसभा क्षेत्रों और उनके 5 साल के संघर्ष को दरकिनार करते हुए भाजपा से आए नेताओं को सपा टिकट देने का जोखिम इसीलिए उठा रही है कि शायद इससे दलित वोट उनकी तरफ झुक सके| दलित नेता चंद्रशेखर की पार्टी, भीम आर्मी के साथ सपा का समझौता टूट जाने के बाद, चंद्रशेखर ने जिस तरह का बयान दिया है, वह दलितों में सपा के खिलाफ नीचे तक चला गया है| उनका कहना है कि सपा यादवों की पार्टी है| दलितों के प्रति उनका कोई सम्मान नहीं है| उन्होंने अपने साथ सपा के व्यवहार को दलितों का अपमान तक निरूपित किया है| दलित वोट किस पार्टी के साथ जाएगा यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा| लेकिन मायावती की चुप्पी चुपके से भाजपा के सहयोग के रूप में बदल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा| क्योंकि ब्राह्मण और दलित समीकरण जो मायावती ने विकसित किया था वही समीकरण आज भी है| केवल दल बदल गया है, बसपा के बदले यह समीकरण भाजपा के पक्ष में चला गया है|