चुनावी हुंकार में बुढ़ापा भी जवानी में बदल जाता है. जिन अफसरों के भरोसे सरकारें चला करती हैं उन्हीं अफसरों को चुनाव में भयादोहन के लिए बयानों के शोले दागे जाते हैं. एमपी में चुनावी बारात सज रही है. सरकार बनाने और चलाने में सरकारी अधिकारी कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए हर राजनीतिक दल अफसरों के साथ प्यार और डर का सधा हुआ खेल खेलते हैं. सत्ता पक्ष सरकारी सिस्टम को खुश करने के लिए वर्षों से लंबित उनकी मांगों को पूरा करने में जुट जाता है तो विपक्ष वायदों के सहारे सरकारी तंत्र को लुभाने की कोशिश में लग जाते हैं.
राजनीति में तंत्र से प्यार और डर का दोहरा खेल चुनावी हुंकार में सुनाई पड़ता है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ इशारों-इशारों में हर बार यह कहते हैं कि उनकी चक्की देर से सही लेकिन बहुत बारीक पीसती है. इससे उनका आशय है कि अधिकारियों और कर्मचारियों पर विपक्ष की नजर है. सरकार में आने पर अफसरों के साथ दंडित और प्रताड़ित करने की कार्यवाही किए जाने का पुराना इतिहास है. सरकार की ओर से गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा तंज करते हुए कहते हैं कि आज जमाना चक्की का नहीं मिक्सर का है. राजनेताओं की चक्की हो या मिक्सर हो पिसना तो जनता- अफसर को ही पड़ता है.
राजनेताओं की बदजुबानी, निजी पसंद और नापसंद का साफ असर सरकारी सिस्टम पर देखा जा सकता है. जब भी सरकारों में बदलाव होता है तब पुरानी सरकार के समय महत्वपूर्ण पदों पर काबिज अफसरों के खिलाफ बदले की कार्रवाई की जाती है. कमलनाथ के नेतृत्व में लंबे समय के बाद बनी कांग्रेस की सरकार के समय तो अफसरों के साथ बदले की कार्यवाही के सारे रिकॉर्ड टूट गए थे.
सक्षम और कुशल अधिकारियों को कैसे प्रताड़ित किया गया था वर्तमान मुख्य सचिव उसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं. कांग्रेस की सरकार में उन्हें कम महत्वपूर्ण पदों पर न केवल पदस्थ किया बल्कि बार-बार उनके तबादले किए गए. वर्तमान मुख्य सचिव की क्षमता और काबिलियत का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि शासन में परिवर्तन के बाद न केवल उन्हें मुख्य सचिव के पद पर बिठाया गया बल्कि कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी भारत सरकार द्वारा उन्हें दो बार सेवावृद्धि दी गई है.
ऐसे अनेक उदहारण देखे जा सकते हैं, जहां अधिकारियों को राजनीतिक अवधारणा के आधार पर प्रताड़ित किया गया हो. लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनेताओं के इस तरह का व्यवहार व्यवस्था को केवल कमजोर कर रहा है. सरकारें बदलने पर अचानक से जो तबादला उद्योग विकसित हो जाता है उसके पीछे भी कुछ ऐसी ही सोच होती है.
सियासत में राजनीतिक दलों को सत्ता हासिल करने के लिए चुनावी युद्ध में कम से कम सरकारी तंत्र को घसीटने से बचना चाहिए. इतनी सामान्य सी बात इन राजनेताओं को क्यों समझ में नहीं आती कि सरकारी अफसर नियम कानून के अंतर्गत समय अनुकूल शासन के निर्देशों पर अपने कर्तव्यों को पूरा करता है. कोई भी उत्कृष्ट अधिकारी होगा तो वह किसी के साथ भी काम करेगा उसका परफारमेंस बेस्ट ही होगा.
जब बेहतर परफारमेंस होता है तब अफसर और शासन में बैठे प्रतिनिधियों के प्रति आपसी व्यवहार भी बेहतर हो जाता है. उत्कृष्ट अधिकारियों के बेहतर परफॉर्मेंस और बेहतर संबंधों को किसी राजनीतिक दल या नेता से जोड़कर उस अधिकारी को सत्ता परिवर्तन के बाद दंडित करने की मानसिकता किसी हालत में स्वीकार नहीं की जा सकती.
राजनेताओं के बीच में तो राजनीतिक सहमति और तालमेल जैसा होता है. ऐसा नहीं है कि इस सिस्टम में कमजोरियों के लिए जिम्मेदार बीमारी किसी भी दल के नेता को पता नहीं है. सामान्यतः राजनेता एक दूसरे के खिलाफ कोई भी तथ्यात्मक बात नहीं करते हैं. सत्ता परिवर्तन के बाद भी राजनेताओं के बीच सामंजस्य ही देखा जाता है. शिकार केवल अफसरों को ही बनाया जाता है.
सरकार के कार्य आवंटन नियमों के अंतर्गत अफसरों को बिना लोकतांत्रिक सरकारों के निर्णय के किसी भी कार्य को क्रियान्वित करने का अधिकार नहीं होता है. नीतियां निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा ही बनाई जाती है. सरकारी तंत्र का काम तो केवल क्रियान्वित करना है. चुनाव में हार जीत के लिए जैसे ईवीएम को दोषी ठहराया जाता है उसी तरीके से अफसरों को भी दोषी मान लिया जाता है.
चक्की और मिक्सर की बात घुमा फिरा कर यही संदेश दे रही है कि राजनेता तो पीसने वाले हैं. पिसना तो जनता को ही पड़ता है. चक्की है तो थोड़ा धीरे-धीरे पीसेगी और मिक्सर जल्दी पीसेगा. लोकतंत्र के इस दौर में किसी को भी पीसने की भाषा क्या लोकतांत्रिक भाषा है? कहावत और लोकोक्तियां भी ऐसी कही जाना चाहिए जो कम से कम लोकतंत्र का संदेश दें. लोकलुभावन वायदे से सत्ता के सपने पूरे किए जा सकते हैं लेकिन लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने का सपना इससे कभी पूरा नहीं हो सकता.
एमपी की राजनीति में बुढ़ापा और जवानी भी चुनाव का मुद्दा बनी हुई है. बीजेपी कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को बुजुर्ग और वृद्ध बताने में लगी हुई है तो कमलनाथ यह कहने से पीछे नहीं है कि वे तो अभी जवान हैं. यह अलग बात है कि सार्वजनिक समारोह में असलियत दिख ही जाती है. आजकल तो राजनीति में ऐसे राजनेता भी कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं जिनको अगर साथ चल रहा सुरक्षाकर्मी सहारा नहीं दे तो कही भी गिर सकते हैं. राजनीति में बूढ़ी जवानी का दावा और दंभ देखने के लिए डगमगाते पैर ही काफी होते हैं.
चुनाव तो हर पांच साल में आएंगे. नेता भी आएंगे और जाएंगे. लोकतंत्र जरूर कायम रहेगा. ना जवानी रही है ना बुढ़ापा रहेगा. चक्की और मिक्सर में पीसने का दम्भ तो चकनाचूर हो जाता है. प्रकृति की चक्की हर चीज के साथ बिना भेदभाव के न्याय करती है. शुद्ध अंतःकरण से शपथ लेकर शासन की बागडोर संभालने का सपना देखने वाले राजनेता कम से कम धमकाने और पीसने का कोई खौफ न दिखाएँ तो राज्य के लिए भी बेहतर होगा और राजनेता के लिए भी बेहतर होगा.