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सरकार क्या, जनता क्या, सबके सोचने का सवाल- राकेश दुबे 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 09 Sep

सार

भारत की सरकार, भारत में आर्थिक विकास की दर की चर्चा कर आत्म मुग्धता की स्थिति में आ गई है..!

janmat

विस्तार

भारत की सरकार, भारत में आर्थिक विकास की दर की चर्चा कर आत्म मुग्धता की स्थिति में आ गई है। आंकड़े रोमांचित करते हैं, इसके विपरीत देश की वंचित-प्रवंचित आबादी अपनी फटी जेब लिए राहत बंटने के इंतजार में खड़ी है, सरकार के साथ पूरे देश को समझना चाहिए कि यह आत्म मुग्धता का नहीं हमारे आत्मावलोकन का समय है।

आजादी की विकास यात्रा का समय के 75 साल बीत गए हैं ,अब मूलभूत आर्थिक ढांचे के लक्ष्य निर्धारण के साथ, हमें देश को शताब्दी मील के पत्थर तक पहुँचाना है। उम्मीद कर सकते हैं,जब सन‍् 2047 आयेगा और जन-जन का कल्याण हो जायेगा। हम उत्सवधर्मी लोग हैं।

तब तक सबकी आर्थिक सामर्थ्य बढ़कर महंगाई को बौना कर देगी, दूर की कौड़ी है। लगता है इंटरनेट और डिजिटल युग ऐसी चाकचौबन्द पीढ़ी पैदा करेगा, कि लालफीताशाही को थपथपाता राजनीतिक भ्रष्टाचार मुंह छिपाने लगेगा, यहाँ भी सवाल है, क्या ऐसा होगा ? भारत सबसे युवा और मेहनती देश है। आधी आबादी काम कर सकने की तय रेखा में है। भारत की युवा शक्ति देश का नवनिर्माण करती नजर आयेगी?

आज के इस विकट वर्तमान में अपनी सब विडंबनाओं को धीरज के साथ सहने के लिए तैयार हैं। 75 साल से देश के स्थगित होते हुए मूल आर्थिक ढांचे का निर्माण अगले पच्चीस बरसों में हो जाएगा। पच्चीस साल बाद देश अपना शतकीय स्वाधीनता उत्सव मनाते हुए पूरे उत्साह के साथ कह सकेगा, ‘हमारे अच्छे दिन वास्तव में आ ही गये।‘ तब हर काम मांगते हाथ को समुचित काम मिल जाएगा।

नौकरशाही का परिचय बनी संपर्क और हथेली गर्म करने वाली संस्कृति क्या विदा  हो जाएगी भुखमरी से सुरक्षा देने वाली सरकार अब संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रेषित ये आंकड़े पढ़कर चकराती नहीं, कि इस देश में हत्याओं से अधिक आत्महत्याओं के मामले रिपोर्ट हो रहे हैं।

आज न तो पंचवर्षीय योजनाएं रह गयीं, न योजना आयोग। उसकी जगह नीति आयोग ने सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी के तहत द्रुत आर्थिक विकास के साथ एक चमत्कारिक सफलता प्राप्त कर देने की घोषणा नीति के साथ कर दी है।नेहरू मॉडल की मिश्रित अर्थव्यवस्था भी अब कहीं बाक़ी नहीं रही।

यहाँ क्रमश: विस्तृत होते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की ‘न लाभ न हानि’ की नीति के तहत अपना अधिकतम जनकल्याण का लक्ष्य रखा था। निजी क्षेत्र का सह-अस्तित्व जिन्दा रहना था कि यह त्वरित लाभ की प्रेरणा के साथ देश के द्रुत आर्थिक विकास का परिचय बनता जा रहा है।

आज सार्वजनिक क्षेत्र लाल फीताशाही से ग्रस्त हो पिछड़ता नजर आ रहा है और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय धनकुबेरों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भागीदारी ने देश की विकास दर को त्वरित उड़ान के पंख दे दिये। कम लागत और अत्याधिक लाभ की अन्धदौड़ इसकी वजह है।

कोरोना दुष्काल मेंएक पूर्ण-अपूर्ण लॉकडाउन की ठोकर लगी और हमारी विकास दर लुढ़कने लगी। कतार में खड़ा आखिरी आदमी अच्छे दिनों के संस्पर्श से बेगाना हो गया, महंगाई कुछ इस प्रकार कुलांचे भरने लगी कि रिकॉर्ड तोड़ कहलायी। बेकारी कुछ यूं बढ़ी कि बरसों से काम की उम्मीद में बैठी श्रमशक्ति अब राहत और रियायत संस्कृति की मोहताज हो गयी।दो आर्थिक बूस्टरों और निरंतर यथास्थिति वादी उदार साख नीति के साथ भारत को आत्म निर्भर नहीं बना सकी।

देश के अर्थ चिंतकों की गणना कुछ गलत हो गयी। आर्थिक बूस्टरों और उदार साख नीति ने स्वत: निवेश को प्रोत्साहित नहीं किया, अर्थाभाव से पैदा मंदी  का भस्मासुर यहां अपना चमत्कार दिखा रहा है। महानगरों से रोजगार के अवसर कम होने से इतनी श्रम शक्ति निठल्ली होकर अपने गांव-घरों की ओर लौटी उनके लिए अब न अपने गांव में किसी नये भविष्य की सुगबुगाहट है और न शहरों में कोई नया जीवन जागने की उम्मीद। वे वहीं त्रिशंकु की तरह अधर में लटके वह जीवन खोज रहे हैं जिसे जीने का उन्हें अधिकार है। प्रवंचित जनसंख्या अपनी फटी जेब के साथ राहत बंटने के इंतजार में खड़ी है , तो क्या यह हमारे आत्मावलोकन का समय नहीं है?