भारतीय लोकतंत्र सत्ता के लिए सियासीवृत्ति की संस्कृति का शिकार हो गया है। चुनाव में मतदाता के जनादेश को सत्ता के लिए गठबंधन के नाम पर बेच दिया जाता है। जनादेश के विपरीत पलटू नीति की राजनीति आज आम हो गई है। महाराष्ट्र में पलटू नीति का वार-पलटवार चल ही रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत में शिवसेना विधायकों के पार्टी छोड़ने और असली एवं नकली शिवसेना की लड़ाई चल रही है। संविधान पीठ को यह तय करना है कि जो विधायक जिस पार्टी के सिंबल पर चुनकर आता है उसकी पार्टी छोड़ने या दूसरे गठबंधन में शामिल होने पर संवैधानिक हालात क्या बनेंगे? अभी महाराष्ट्र पर कोई फैसला आया नहीं और बिहार में नया गठबंधन बन गया।
महाराष्ट्र-बिहार के हालात एक समान हैं। महाराष्ट्र में भी बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इसी प्रकार बिहार में बीजेपी और जेडीयू ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था। दोनों राज्यों में बीजेपी ही सबसे बड़े दल के रूप में चुनकर आई थी। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद के विवाद को लेकर शिवसेना के साथ उनका गठबंधन टूट गया था। शिवसेना ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ बेमेल गठबंधन कर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार बनाई।
इस गठबंधन में विचारधारा, नीति और हिंदुत्व को लेकर शिवसेना में आक्रोश इस सीमा तक पहुंचा कि पार्टी विधायकों का एक बड़ा तबका शिवसेना से बाहर जाकर बीजेपी के साथ मिलकर नई सरकार बनाने में सफल हो गया। बिहार में भी बीजेपी ने बड़े दल के रूप में होने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया और यह सरकार दो सालों से चल रही थी। अब नीतीश कुमार का राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट के साथ मिलकर बिहार में नई सरकार बनाने जा रहे हैं।
बिहार की जनता ने जनादेश बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन को दिया था। अब यह गठबंधन टूट गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आरजेडी के साथ गठबंधन कर रहे हैं। यह दोनों दल चुनावों में एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में उतरे थे। जनादेश एक-दूसरे के विरुद्ध हासिल किया था। आज सरकार के लिए विपरीत जनादेश वाले दो दल हाथ मिला रहे हैं।
यह केवल बिहार में नहीं हो रहा है कई राज्यों में पहले भी होता रहा है। हरियाणा में तो पूरे दल को ही नए दल में समाहित करने की दशकों पुरानी परंपरा रही है। राजनीतिक नैतिकता तो इसी बात में होती है कि जिस गठबंधन और जिस दल के साथ चुनाव में जनादेश प्राप्त किया गया था, उस जनादेश का सम्मान किया जाना चाहिए। यदि ऐसी परिस्थितियां बनें कि जनादेश के मुताबिक राजनीतिक प्रक्रिया चलाना संभव न हो, तब लोकतंत्र का तकाजा यह है कि चुनाव में दोबारा जनादेश प्राप्त किया जाए।
कोई भी राजनीतिक दल लोकतंत्र की मर्यादा का पालन नहीं करता। कांग्रेस ने तो गठबंधन के नाम पर कई सरकारों को बनाया और गिराया है। चंद्रशेखर और चरण सिंह की सरकार कांग्रेस की सियासीवृत्ति के कारण ही गिरी थी। भारत में गठबंधन की राजनीति ने लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान किया है। दल-बदल कानून भी लोकतंत्र को सुरक्षित रखने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक दल किसी न किसी ढंग से दल-बदल कानून से बच जाते हैं।
आजकल तो बहुमत प्राप्त करने के लिए विधानसभा के सदस्य संख्या कम करने की भी रणनीति अपनाई जाती है। मध्यप्रदेश में इसी तरह का घटनाक्रम हुआ था। विधायकों के इस्तीफ़े के बाद बीजेपी बहुमत में आ गई थी, यह अलग बात है कि बाद में त्यागपत्र देने वाले विधायकों ने नया जनादेश प्राप्त कर लोकतंत्र की खानापूर्ति कर ली थी।
राजनीति का अंतिम लक्ष्य सत्ता हासिल करना ही होता है लेकिन सत्ता के लिए लोकतंत्र की मर्यादाओं को भी तिलांजलि देना जन दृष्टि से स्वीकार नहीं किया जा सकता। जनता जब चुनाव के समय मतदान करती है और निर्वाचित जनप्रतिनिधि चुनाव के बाद जनादेश को सत्ता के लिए गिरवी रख देते हैं तब जनता के सामने कोई विकल्प नहीं बचता है। ऐसे राजनीतिक माहौल में चुनाव का भी क्या कोई मतलब रह जाता है?
जनता चुन किसी और दल को रही है और सरकार कोई और दल चला रहा है। ऐसी परिस्थितियों को रोकना लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी हो गया है। इसके लिए चुनाव सुधार की जरूरत है। जनता को अभी मतदान में नोटा का अधिकार दिया गया है। इसके साथ ही राइट टू रिकॉल का अधिकार जनता को मिलना चाहिए। जब भी कोई जनप्रतिनिधि इस तरह का राजनीतिक बदलाव करता है, तब जनता को भी अधिकार होना चाहिए कि वह चुनाव आयोग जाकर राइट टू रिकॉल की मांग करे। एक निश्चित संख्या में मतदाताओं की मांग पर उस जनप्रतिनिधि को पद से हटाने के लिए मतदान की व्यवस्था की जानी चाहिए।
भारतीय संसदीय लोकतंत्र इस बात का गवाह है कि गठबंधन और मिली-जुली सरकारों ने शासन व्यवस्था के संचालन में किस तरह के समझौते किए हैं। गठबंधन की सरकारों में जनहित प्रभावित होता है। गठबंधन में हिस्सेदारों के राजनीतिक हितों को प्रधानता मिलती है। महाराष्ट्र की महाअघाड़ी सरकार का अनुभव ऐसा ही रहा है। विकास और जनहित के काम प्रभावित होते हैं। सत्ता की मलाई की हिस्सेदारी और बँटवारा ही गठबंधन सरकारों का लक्ष्य बन जाता है।
ऐसे गठबंधन के टूटने पर खरीद-फरोख्त के आरोप भी अब आम हो चले हैं। बिहार में भी इस तरह के आरोप सुनाई देने लगे हैं। इन आरोपों के पीछे का सच क्या है, यह कभी सामने नहीं आ पाता। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी ऐसे आरोप लगे थे और अब ये आरोप नेपथ्य में हैं। सामाजिक गठबंधन में भी बिखराव दिखाई देता है लेकिन शुरूआती दौर में बिखराव तो समझ आता है लेकिन अधेड़ अवस्था के बिखराव हमेशा ही संदेह की दृष्टि से देखे जाते हैं। यही हाल सियासत का है, सियासत में ऐसे बेमेल गठबंधन न सिर्फ नेताओं बल्कि राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता को भी कठघरे में ला देते हैं।
बिहार में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी को जंगलराज के रूप में जाना जाता है। नीतीश कुमार इसी कारण पूर्व में आरजेडी के साथ अपना महागठबंधन तोड़ चुके हैं। अब नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने के कदम के पीछे उनकी 2024 में लोकसभा चुनाव में एनडीए के विरोधी राजनीतिक दलों का चेहरा बनने की भी महत्वाकांक्षा को भी कारण बताया जा रहा है। राजनीतिक उड़ान की कल्पना करना कोई बुरी बात नहीं है, हर व्यक्ति को लोकतंत्र में अवसर है। पहले भी कई नेता प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए राजनीतिक रसातल में पहुंच चुके हैं। देश में ऐसी अवधारणा पर आम सहमति है कि प्रधानमंत्री के पद पर 2024 में भी नरेंद्र मोदी ही रहेंगे।