राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर”ने अपने एक लम्बे निबन्ध में नेता और नागरिक के बारे में बहुत कुछ कहा है उसके कुछ अंश आज भी मौजूं हैं|
देश के ५ राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, यह चुनाव देश के अगले आम चुनाव [संसदीय ]की रिहर्सल हैं | आज देश के सामने पारदर्शी और प्रमाणिक नेतृत्व का अभाव दिखता है | कमोबेश हर राज्य में आयाराम – गयाराम की संस्कृति को बड़े छोटे दल आत्मसात कर चुके हैं | एक दूसरे को “फेंकू” “पप्पू” जैसे उपनाम देने का चलन जोरों पर है |यह नामकरण संस्कार उसी आलोचना का अंग है, जिसे “आत्ममुग्धता” से परिभाषित किया जाता है | यह “आत्ममुग्धता” एक ऐसी बीमारी है,जिसका पहला लक्षण अपने पुरखों के व्यक्तित्व और कृतित्व को नकारना है | किसी पर भी ऊँगली उठाने की हद, टोपी उछालने जैसे करतब में बदलती जा रही है | इस बीमारी का बीमार यह समझने को तैयार नहीं होता कि बीमार क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है? प्रजातंत्र का तकाजा हमें अपने पूर्वजों, समकालीनों,और साथियों के कार्यकाल पर विचार का अवसर देता है, उनकी तुलना में श्रेष्ठ कार्य करने का अवसर भी देता है परन्तु उनकी छबि को धूमिल करने का कतई नहीं | आज के नेता यही कर रहे हैं, और उनके बगलगीर उन्हें इसके लिए उकसा ही नहीं रहे बल्कि उनकी इस हिमाकत का समर्थन भी कर रहे हैं | आज नेता जिस विद्रूप छवि में दिख रहे हैं, उसे बनाया किसने हैं ? आपने- हमने अर्थात नागरिकों ने, नेता कैसा भी देश ने नागरिकों को समझदार होना चाहिए| वोट देते समय भी और उसके बाद कुर्सी से वापिस खींचते समय भी |
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर”ने अपने एक लम्बे निबन्ध में नेता और नागरिक के बारे में बहुत कुछ कहा है उसके कुछ अंश आज भी मौजूं हैं|दिनकर जी ने लिखा है “इस देश में व्याख्यानों की ऐसी झड़ी रही है, जैसी झड़ी अब मेघों की भी नहीं लगती। पिछले तीस वर्षों से अपने देश में व्याख्यान लगातार बरसते रहे हैं और उनकी वृद्धि करनेवाले नेताओं की तादाद भी बेशुमार रही है। आजादी की लड़ाई के दिनों में देश के सामने ले-देकर एक सवाल था कि विदेशी शासन कैसे हटाया जाए। मगर यह सवाल जरा टेढ़ा पड़ता था क्योंकि हुकूमत से लड़ने का अर्थ अपनी जान और माल पर संकट को आमन्त्रित करना था। इसलिए जो लोग भी अपनी थोड़ी या बहुत कुरबानी देने के लिए आगे आए, उन्हें जनता ने नेता कहकर पुकार दिया। जनता के पास और था ही क्या जिसे लेकर वह कुरबानी की इज्जत करती?”
“आजादी के बाद जब देश के सारे काम नेताओं के हाथ में आ गए, तब उन्हें पता चला कि अभी तक इस देश ने नेता ही पैदा किए हैं, नागरिक नहीं। व्याख्यान सुनते-सुनते इस देश ने व्याख्यान देने की आदत डाल ली है। जहाँ तक व्याख्यान के मजमून पर अमल करने का सवाल है, वह परिपाटी स्वतन्त्रता के आगमन के साथ ही समाप्त हो गई। अब यहाँ के लोग कर्म को कम, वाणी को अधिक महत्त्व देते हैं। हर किसी की यही अभिलाषा है कि वह दूसरों को कुछ उपदेश दे, मगर खुद किसी भी उपदेश पर अमल करने को वह तैयार नहीं है। यों देश के नवनिर्माण के ज्यादा काम ठप पड़े हुए हैं; क्योंकि जो सचमुच देश के नेता हैं, वे काम करना नहीं जानते और जो काम करना जानते हैं, उन्हें हाथ-पाँव हिलाने की अपेक्षा जीभ की कैंची चलाने में ही अधिक आनन्द आता है। नेता बनने की धुन का यह पहला असर है जिसे हिन्दुस्तान आज बुरी तरह भोग रहा है|”
“फिर भी यह सच है कि देश के नेता, देश के शिक्षा विशेषज्ञ और बच्चों के माता-पिता सभी चाहते हैं कि स्कूलों, कॉलेजों में पढ़नेवाले हमारे सभी बच्चे और नौजवान किसी-न-किसी क्षेत्र में नेता बनने की तैयारी करें। लेकिन क्या किसी ने यह भी कभी सोचा है कि अगर सारा समाज नेता बनने की तैयारी में लग जाए तो नेताओं के पीछे चलनेवाले लोग कौन रह जाएँगे? और क्या नेताओं से भरा हुआ देश कोई अच्छा देश होता है?”
देश के नेताओं और नागरिकों को आईना बताता यह निबन्ध लम्बा है, पर देश के नागरिकों और नेताओं के लिए मार्गदर्शी है | कोई पढना चाहे तो उनकी पुस्तक “रेती के फूल” में देख सकता है |वैसे आज नागरिकों की भूमिका इन चुनावों में और इनके बाद के चुनावों में महत्वपूर्ण है | निष्ठाविहीन राजनीति के बदनुमा दाग सब जगह दिखाई दे रहे हैं, इसे अगर कोई बदल सकता है, तो केवल नागरिक | नेता कैसा भी हो, नागरिक समझदार चाहिए -देश को |