जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए चुनी सरकारें अब विज्ञापन की विज्ञापन द्वारा और विज्ञापन के लिए विकास करती हुई सरकारों का पर्याय बन गई लगती हैं. सरकार की ओर से रेवड़ी की योजनाएं भी विज्ञापन की सोच पर आधारित होने लगी हैं. हनीट्रैप का शाब्दिक अर्थ होता है मीठे शब्दों से अपने जाल में फंसाना. हनीट्रैप के जरिए जासूसी और अन्य किस्से गाहे-बगाहे सुनाई पड़ते हैं. हनीट्रैप जैसा ही फ्रीबीज़ का मनीट्रैप जनता को वोट के जाल में फंसाने के लिए सरकारों द्वारा सफाई के साथ खेला जा रहा है.
कल्याणकारी सरकार की अवधारणाएं नगदी-रेवड़ी और माफी योजनाओं तक सिमट गई हैं. सामूहिक विकास की योजनाओं पर धन खर्च से ज्यादा निजी लाभ का मनीट्रैप सरकारों को ज्यादा लाभकारी लग रहा है. राज्य के खजाने दिवालिया होने की तरफ बढ़ रहे हैं फिर भी क़र्ज़ में डूबते राज्यों की आवाज किसी भी सरकार को सुनाई नहीं पड़ रही है.
देश के इतिहास में यह पहला अवसर है जब प्रधानमंत्री ने लोकसभा के अंदर राजनीतिक नजरिए से जन-धन के दुरुपयोग पर गहन चिंता व्यक्त की. प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा कि इस तरह के राजनीतिक फैसले दिवालिया होने की गारंटी हैं. भारत के पड़ोसी देशों के दिवालियापन के हालातों का सदन में जिक्र किया गया. लोकसभा में देश के प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्त की गई चिंता सामान्य रूप से तो नहीं ली जा सकती है.
राजनीतिक दलों की चुनावी राजनीति में जनधन को लुटाकर बहुमत हासिल करने की रणनीति देश के अर्थतंत्र को अगर दिवालिया कर देगी तो फिर इसका दुष्परिणाम अंततः भारत के हर नागरिक को भुगतना पड़ेगा. स्थितियां नियंत्रण से बाहर ना चली जाएं इसलिए रेवड़ी योजनाओं पर सामूहिक रूप से पुनर्विचार कर देश की नीति तय करने की जरूरत है. प्रधानमंत्री मोदी की बात की सभी राज्य सरकारों को भविष्य की आर्थिक हालातों को देखते हुए गंभीरता से लेना चाहिए.
भोपाल में बैठकर देश के किसी अन्य राज्य के मुख्यमंत्री के मुस्कराते फोटो के साथ उस राज्य की उपलब्धियां पढ़ने और देखने को मिल जाती हैं. राष्ट्रीय चैनल की तो मजबूरी है. एक ही दृश्य पूरे देश में देखना पड़ेगा. समाचार पत्रों में राज्य के अखबार होते हैं. राज्य के मुख्यमंत्री की योजनाएं और उपलब्धियां राज्य की सीमाओं के अंदर ही प्रभावी और उपयोगी होती हैं. उस राज्य की जनता को तो उपलब्धियां-सूचनाएं बताया जाना स्वीकार किया जा सकता है लेकिन राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, दिल्ली और दूसरे राज्यों की सरकारों की उपलब्धियों के विज्ञापन मध्यप्रदेश के अखबारों में प्रकाशित होना जन-धन की बर्बादी के अलावा और क्या कहा जाएगा?
राज्य की सरकारें आर्थिक संकट में हैं, फिर भी चुनावी चौसर के लिए जन-धन से उपलब्धियों और नेताओं की तस्वीरों को बार-बार दिखाया जाता है. कभी भी सरकारों ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि विज्ञापनों पर जो जन-धन खर्च किया जा रहा है उसकी उपयोगिता कितनी है? यह प्रचार सरकारों के लिए है या जनता के लिए है? सरकारों को अपने प्रचार और खर्च की इंपैक्ट स्टडी अनिवार्य रूप से कराना चाहिए.
सरकारी विज्ञापनों में आजकल राज्य के मुख्यमंत्रियों का ही फोटो देखने को मिलता है. मंत्रियों के फोटो सरकारी विज्ञापनों से गायब हो गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों के फोटो का उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया है. सरकारी धन से फोटो नहीं छपने के बाद भी क्या मंत्री चुनाव नहीं जीत रहे हैं? क्या मंत्री अपनी राजनीति नहीं कर रहे हैं? जैसे मंत्रियों को सरकारी धन का उपयोग कर अपने छायाचित्र विज्ञापनों में लगवाने का अवसर समाप्त हो गया है, वैसे ही दूसरे जनप्रतिनिधियों को भी सरकारी धन के उपयोग से जनहित की सूचनाएं देने तक ही सीमित रहने का प्रयास करना चाहिए.
विज्ञापनों में बोलते और दिखते विकास पर किस को विश्वास है? हर पार्टी की सरकार विज्ञापनों में एक दूसरे राज्य की सरकारों को पीछे छोड़ने के लिए जैसे प्रतियोगिता में लगी हुई है. अगर सरकार के विज्ञापनों पर भरोसा किया जाए तो हर पार्टी की सरकार की अभूतपूर्व नीतियों से उनके राज्यों में स्वर्णिम हालात निर्मित किए गए हैं. जहां जिस की सरकार है वहां उसकी नीतियों का स्वर्णिम काल है. अगर इस पर जनता को भरोसा होता तो फिर कभी राज्यों में सरकारें बदलती ही नहीं. खुद पर विश्वास, विज्ञापन पर विश्वास से बहुत बड़ा होता है.
ऐसा लगता है कि राज्य की सरकार और उनके मुखिया को सरकारी विज्ञापन मुख्यमंत्री होने के सुख का अहसास कराते हैं. राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रिश्तेदार और जानने वाले दूसरे राज्यों में भी रहते होंगे. इसलिए भले ही वहां वे राज्य के वोटर न हों लेकिन फिर भी अपने खूबसूरत चेहरे के साथ मुख्यमंत्री विज्ञापन छपाने में लगे रहते हैं. विज्ञापनों के कंटेंट का भी एक मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा हर राज्य में इसके लिए एक विशेषज्ञों की समिति बनाई है. यह समितियां ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं. सरकारी धन से कौन सा कंटेंट प्रकाशित कराने की जरूरत है यह समिति से अनुमोदित होना चाहिए लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं होता.
भारतीय संस्कार तो यही कहते हैं कि अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहिए लेकिन सरकारें तो जनता का धन खर्च कर अपनी तारीफों के पुल बांधा करती हैं. खुद की तारीफ खुद ही कर लेना और भरोसा भी खुद ही करना, यही आजकल सरकारी विज्ञापनों द्वारा हो रहा है. जनता का धन खपाया जा रहा है लेकिन जनता ऐसे विज्ञापनों को कितना महत्व देती है इसको जानने की सरकारें कोशिश नहीं करती.
राजनीति से अपराधीकरण समाप्त करने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई है कि चुनाव के पहले प्रत्याशियों को अपना अपराध रिकार्ड सार्वजनिक करना होगा. जन-धन का दुरुपयोग करने का जो लोकअपराध विज्ञापनों और फ्रीबीज़ में किया जा रहा है उसको भी रोकना बहुत जरूरी है. इसके लिए भी ऐसे कानूनी प्रावधान की जरूरत है कि प्रत्येक राज्य सरकार को चुनावी वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में राज्य के आय-व्यय, कमिटेड एक्सपेंडिचर, क़र्ज़ एवं संचालित योजनाओं पर लगने वाले खर्च जैसे तमाम मुद्दों को शामिल करते हुए एक ऑफिशियल डॉक्यूमेंट सार्वजनिक किया जाना चाहिए.
इससे यह पता चलेगा कि राज्य की आर्थिक स्थिति क्या है? जो चालू योजनाएं हैं उनके लिए कितने धन की जरूरत है? रेवड़ी और माफी की योजनाएं सरकारों में तभी मान्य हो सकें जब नई योजनाओं के लिए वित्तीय प्रबंधन अतिरिक्त रूप से करना संभव दिखाई दे.
विज्ञापनों की गुणवत्ता में विकास और उस पर अटूट विश्वास सरकारों का लक्ष्य हो सकता है लेकिन जनता को जमीन पर विकास की जरूरत है. विज्ञापनों में तो सड़कें ऐसे चमचमाती हैं कि सपने में ही यात्रा पूरी हो जाती है. वास्तविकता इससे उलट ही होती है. हर भविष्य में भूत की वास्तविकता छिपी हुई है. विज्ञापनों के आभास से वास्तविकता को भरमाया नहीं जा सकता. जनधन की बर्बादी का अपराध कभी तो आत्मा पर बोझ बनेगा.