भारत ने राजनीतिक लड़ाइयां तो बहुत देखी हैं लेकिन पहली बार देश उद्योग और राजनीतिक घराने की निजी स्तर पर पहुंच गई लड़ाई देख रहा है. कांग्रेस के पीएम फेस राहुल गांधी का कोई भी राजनीतिक भाषण अडानी समूह पर आरोप लगाए बिना समाप्त नहीं होता. पिछले महीनों में चाहे संसद हो या मीडिया के साथ राहुल गांधी की बातचीत हो सभी अवसरों पर राहुल गांधी ने अडानी समूह को भ्रष्ट और बेईमान साबित करने में कोई कमी नहीं रखी है..!
भारत और दुनिया में अडानी समूह की बढ़ती धाक और साख के कारण आर्थिक जगत में तो प्रतियोगिता समझी जा सकती है लेकिन इसके कारण कोई राजनीतिक घराना उद्योग जगत को मोहरे के रूप में उपयोग कर आरोप लगाने को अपनी राजनीतिक शैली बना ले यह भारतीय राजनीति को आश्चर्य में डाल रहा है.
पहले हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर कितना तूफान नहीं मचाया गया और अब वैश्विक नेटवर्क ऑर्गेनाइज्ड क्राईम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) की विदेशी अखबारों में छपी रिपोर्ट पर राहुल गांधी अडानी समूह को शेयरों के भाव बढ़ाने के लिए किए गए भ्रष्ट संसाधनों के उपयोग के आरोप लगा रहे हैं.
अडानी वर्सेस राहुल के इस गेम में किसका गेम सही है और किसका गेम फाउल है इसका निर्धारण कैसे होगा?
भारतीय न्याय व्यवस्था और वित्तीय संस्थाओं के मापदंड के ऊपर ही किसी भी उद्योग पर लगे आरोपों की असलियत को जांचा जा सकता है. जब हिंडनबर्ग रिपोर्ट आई थी तब भी राहुल गांधी ने ऐसे ही आरोप लगाए थे. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. शेयर बाजार का नियंत्रण करने वाली संस्था सेबी के पास भी शिकायतें पहुंची थी. देश की सर्वोच्च अदालत ने विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर इन आरोपों पर जांच और उसकी रिपोर्ट अदालत में जमा करने के आदेश दिए और जाँच रिपोर्ट अदालत की निगरानी में है.
सेबी में अलग से भी इस पर जांच की प्रक्रिया चल ही रही है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत की मीडिया और एक्टिविस्ट क्या इतने अनजान और कमजोर हैं कि विदेशी अखबारों और विदेशी मीडिया में ही अडानी के खिलाफ आरोपों की रिपोर्ट सामने आती है और छपती भी है.
विदेशों में भारत विरोधी ताकतें हमेशा सक्रिय रहती हैं और अभी भी ऐसी शक्तियां खुलेआम भारत का विरोध करती हुई देखी जाती हैं. विदेशी उद्योगपति जोर्ज सोरोस का नाम भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने में सबसे ऊपर आता है. अडानी के खिलाफ जो भी रिपोर्ट आई हैं उसके पीछे भी ऐसी ही ताकतें मानी जा रही हैं.
राजनीति में विपक्षी दल का सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाना राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग किया जाता है. भले ही कोई एविडेंस ना हो फिर भी राजनीतिक आरोप लगाने से कोई भी नहीं चूकता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के जो भी आरोप लगते हैं उसमें उद्योग व्यापार जगत की भूमिका होना स्वभाविक है क्योंकि केंद्र या राज्य सरकार का कोई भी विभाग ऐसा नहीं है जहां कोई न कोई उद्योग व्यापार-व्यवसाय जगत का व्यक्ति काम नहीं कर रहा हो.
सरकारों द्वारा दी जा रही सेवा और निर्माण कार्य ठेके पर कराए जाते हैं. अभी तक ऐसा देखा जा रहा था कि राजनीतिक दल और राजनेता सरकार में बैठे राजनेताओं पर ही भ्रष्टाचार के राजनीतिक आरोप लगाते थे. इसमें किसी उद्योग जगत या ठेकेदार को मोहरे के रूप में उपयोग नहीं किया जाता था. बोफोर्स मामले में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पर राजनीतिक आरोप लगाए गए थे लेकिन इस मामले में उद्योग जगत के लोगों की भूमिका सामने आई थी. उसके बाद भी किसी भी राजनीतिक व्यक्ति ने इस मामले में उद्योग घराने को राजनीतिक आरोप में नहीं घसीटा था.
बीजेपी द्वारा मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ कोल आवंटन, 2G स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ घोटाले जैसी जितने भी घोटाले के आरोप लगाए थे उनमें किसी उद्योग जगत के व्यक्ति का नाम शामिल नहीं किया गया था. यूपीए सरकार के खिलाफ बीजेपी द्वारा लगाए गए घोटाले के आरोपों में निश्चित रूप से उद्योग व्यवसाय और व्यापार जगत के लोग शामिल थे. कोई भी घोटाला बिना दोनों पक्षों के कैसे पूरा हो सकेगा? कांग्रेस कर्नाटक और दूसरे राज्यों में बीजेपी सरकारों को कमीशन राज्य के रूप में प्रचारित कर रही है तो क्या उसे पता नहीं है कि यह कमीशन किसके द्वारा दिया जाता है?
राफेल विमानों की खरीदी के समय भी राहुल गांधी ने सरकार पर आरोप लगाते हुए उद्योगपति अनिल अंबानी के नाम को शामिल किया. अनिल अंबानी ने तो राहुल गांधी को पत्र लिखकर जवाब दिया था. तब उनका नाम लेकर आरोप लगाना बंद किया गया था. अडानी समूह द्वारा शायद राहुल गांधी को अभी तक ठीक से जवाब नहीं दिया गया है. देश में ऐसी सर्वमान्य धारणा है कि जब कोई राजनेता किसी उद्योग व्यवसाय और व्यापार जगत के खिलाफ आरोपों की झड़ी लगाता है तो फिर लोगों को यह समझने में देर नहीं लगती कि इसके पीछे किस तरह का मोटिव काम कर रहा है.
कोई भी उद्योगपति राष्ट्र की सेवा किसी राजनीतिज्ञ से कम नहीं कर रहा है. किसी भी देश की आर्थिक शक्ति उसकी असली ताकत मानी जाती है. भारत दुनिया की पांचवी अर्थव्यवस्था बन गई है और तीसरी बनने की ओर अग्रसर है तो इसमें देश के कारपोरेट घरानों और उद्योग जगत की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. उद्योग घरानों को बिना एविडेंस के राजनीतिक आरोपों के रूप में उपयोग करने से देश के आर्थिक विकास में लगी इन शक्तियों का मनोबल टूटता है.
कांग्रेस की ओर से कहा जाता है कि विपक्षी गठबंधन देश की 60% आबादी को गवर्न करता है. इस 60 परसेंट क्षेत्र में अडानी-अंबानी और दूसरे उद्योग समूह क्या काम नहीं कर रहे हैं? कांग्रेस शासित राज्यों में अडानी क्या अपने उद्योग धंधे नहीं चला रहे हैं? विदेशी धरती पर प्रकाशित रिपोर्ट को देश में मुद्दा बनाकर जिस तरह से राजनीतिक लक्ष्य साधने की कोशिश हो रही है उसे मटन पॉलिटिक्स ही कहा जाएगा.
विरोधी पक्ष ही नहीं बल्कि सभी नेताओं की यह बुनियादी जिम्मेदारी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठायें लेकिन इसके लिए एविडेंस सामने लाना बहुत जरूरी है. किसी का परिचित और मित्र अगर आर्थिक जगत में उपलब्धियां हासिल कर रहा है तो उसके लिए शंका के हवाई किले राजनीतिक सफलता तक नहीं पहुंचा सकते. सरकारों की निजीकरण और पीपीपी की जो भी नीतियाँ वर्तमान में चल रही हैं उनकी जड़ें कांग्रेस सरकारों से ही निकली हैं.
ममता बनर्जी तो इसी बात से नाराज बताई जाती हैं कि विपक्षी गठबंधन की बैठक में मीडिया के सामने बिना चर्चा के अडानी समूह का नाम लिया गया. राहुल गांधी कभी राजनीति को जहर बताया करते थे और अब राजनीतिक कुटिलताएं जहर को जहर से काटने के प्रयोग में लाई जा रही हैं. पद-प्रतिष्ठा और परिवार की चमकदार विरासत की दौलत से मालामाल राहुल गांधी राजनीतिक लक्ष्य के लिए जीवन की सहजता और सरलता की दौलत खोने के लिए कैसे तैयार हो सकते हैं?
इतने बड़े स्थान पर बैठे राजनेताओं की बातों पर अगर जनता ध्यान देती है तो ऐसे लोगों को अपने हर एक शब्द को तोल-मोल कर ही जनता के सामने लाना चाहिए. कोई उद्योगपति तो धन कमा कर अपनी प्रगति करना चाहता है लेकिन राजनेता और राजनीति की दौलत तो विश्वास ही है. बिना एविडेंस के विश्वास नहीं बनता है. कई बार चुप रह कर बोलने से ज्यादा सफल राजनीति की जाती है. जब राजनीति की प्रतिष्ठा बढ़ेगी तभी राजनेता भी प्रतिष्ठा के हकदार होंगे.