राहुल गांधी का संगठन सृजन कार्यक्रम रेस, बारात और लंगड़े घोड़े में सिमट गया. बिना नाम लिए राहुल गांधी ने कभी पार्टी के पिलर रहे उम्र दराज नेताओं को लंगड़े घोड़े का प्रतीक बताते हुए रिटायरमेंट तक की बात कही. कांग्रेस के कुछ नेताओं पर उन्होंने बयानों से भाजपा को मदद करने का भी ठीकरा फोड़ा..!!
राहुल गांधी का भोपाल दौरा रेस के नए घोड़े तलाशने का उनका प्लान कितना सफल होगा यह तो अगला विधानसभा चुनाव ही बताएगा. लेकिन लंगड़े घोड़े के रूप में जिन नेताओं पर उन्होंने निशाना साधा उनके भीतरघात और बगावत सृजन के सारे प्रयासों को मटियामेट कर देगी.
कांग्रेस में सुधार के लिए तो राहुल गांधी अपना प्लान बहुत बताते हैं लेकिन उन्हें यह कभी महसूस नहीं होता कि उनमें भी सुधार की जरूरत है. कांग्रेस में उनको सुधारने वाला तो कोई नहीं है. वह तो सब पर उंगली उठाते हैं और जो उन पर उंगली उठाता है, उसे पार्टी छोड़नी पड़ती है. राहुल गांधी का यह एकतरफा संवाद अब तक तो कोई क्रांतिकारी बदलाव कांग्रेस में नहीं ला पाया है. कांग्रेस के विधायक अगर यह सवाल करते हैं कि प्रदेश में उन्हें ऐसा नेता नहीं दिखता जिसके दम पर चुनाव जीता जा सके तो इस पर राहुल गांधी को गंभीरता से विचार करना चाहिए.
केवल यह कह देने से चुनाव नहीं जीते जाएंगे कि उन्हें ऐसे दस नेता दिख रहे हैं जो अपने नेतृत्व में सरकार बनाने का दम रखते हैं. जो कांग्रेस अपनी बनी बनाई सरकार को कायम रखने का भी दम नहीं रखती. मध्य प्रदेश के लोग कांग्रेस में भरोसे योग्य एक भी चेहरा नहीं देख पा रहे हैं. राहुल गांधी ऐसे दस चेहरे देख रहे हैं. इसी से साफ है कि, मध्य प्रदेश की जमीनी हकीकत से वह कोसों दूर हैं.
मध्य प्रदेश सहित दूसरे राज्यों में आज जितने भी कांग्रेस के घोड़े रेस में दौड़ रहे हैं, उनका चुनाव तो राहुल गांधी ने ही किया है. अगर कोई बारात का घोड़ा रेस में डाला गया है तो उसके लिए वही जिम्मेदार होंगे.
चुनाव के लिए जितने भी टिकट पार्टी द्वारा दिए जाते हैं, उनमें से क्या एक भी टिकट बिना राहुल गांधी की मर्जी से किसी को भी मिल सकता है? पिछले विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने प्रत्याशी घोषित करने के बाद आधा दर्जन के टिकट बदल दिए थे. जो कांग्रेस रेस के घोड़े के चुनाव में सात दिन में हीं बदलाव कर अपने लिए हार चुन सकती है, राहुल के घोड़े चुनने का का तरीका और नजरिया आज तक किसी को समझ नहीं आया.
पिछला विधानसभा चुनाव मध्य प्रदेश में कांग्रेस भीतरघात और बगावत के कारण हारी थी. वह बगावत अभी भी कायम है. अब लंगड़े घोड़े को मैदान से हटाने की राहुल गांधी की बात भीतरघात को धधकाएगी. रेस के घोड़े भले तेज दौड़ते हो लेकिन उम्र दराज लंगड़े घोड़े कभी खुद और पार्टी को रेस जिताते रहे हैं.
उम्र, वक्त की बात है. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के विनर रहे हैं. आज उन्हें बिना नाम लिए लंगड़े घोड़े के रूप में रेखांकित करने की कोशिश कांग्रेस को लाभ पहुंचाएगी, ऐसा सोचने वाले निराश होंगे. लंगड़ा भी कुछ तो चलता है. कछुआ और खरगोश की रेस में कछुआ ही जीतता है.
जिला अध्यक्षों को सारे पावर देने के प्लान को कांग्रेस नव सृजन के रूप में देख रही है. इसके लिए बाकायदा पर्यवेक्षक बनाए गए हैं. बिना किसी गुटबंदी और दबाव के जिला अध्यक्षों के चयन का दावा किया जा रहा है. यह भी कहा जा रहा है कि, जिला अध्यक्ष ही विधायक और सांसद के टिकट तय करने में भूमिका निभाएंगे.
जिला अध्यक्षों के परफॉर्मेंस को मापने के लिए भी फार्मूला बनाया गया है. इस फॉर्मूले में यह भी देखा जाएगा कि, उनके क्षेत्र में कांग्रेस के मत बढ़े हैं या घटे. अगर मत ही आधार है तो फिर सबसे पहले तो राहुल गांधी को यह बताना पड़ेगा कि, चुनाव हारने के बाद भी जिन नेताओं को वह पीसीसी प्रेसिडेंट बना देते हैं, इसके पीछे कौन सा आधार होता है.
राहुल गांधी कहते हैं कि हमारे कुछ नेता भाजपा को लाभ पहुंचा देते हैं. दो-तीन लोग अपने उल्टे सीधे बयान की मदद से भाजपा का काम कर देते हैं. बयानों को लेकर हमेशा दिग्विजय सिंह पर विवाद खड़े किए जाते हैं. राहुल गांधी ने उनका नाम नहीं लिया लेकिन मध्य प्रदेश की कांग्रेस के बीच जब भी बयानों पर विवाद की बात होती है तब उन पर ही ध्यान जाता है. बीजेपी भी उनके बयानों को हमेशा टारगेट करती है. दिग्विजय सिंह के बयान कभी अतार्किक नहीं होते, यह अलग बात है कि, उन्हें विवादास्पद बना दिया जाता है.
अगर बयानों को भाजपा के काम करने से जोड़ा जाएगा तो इसमें सबसे पहला नाम राहुल गांधी का ही आएगा. बीजेपी तो राहुल गांधी को अपना ब्रांड एंबेसडर मानती है. उनके बयानों के कारण जितना लाभ भाजपा ने उठाया है, उतना तो कांग्रेस भी नहीं उठा पाई है. राहुल गांधी देश के ऐसे नेता है, जिनके खिलाफ सबसे ज्यादा मानहानि के मुकदमे चल रहे हैं.
मोदी सरनेम से जुड़े समाज पर अपमानजनक टिप्पणी के लिए उन्हें अदालत से सजा भी मिली थी. संसद सदस्यता भी गई थी. फिर उच्च अदालत के फैसले के कारण यह प्रकरण निपटा था. सावरकर पर राहुल गांधी की टिप्पणी पर तो सुप्रीम कोर्ट ने भी नाराजगी जाहिर की. उनके ऐसे कितने बयान है, जिसके कारण कांग्रेस के सहयोगी भी पशोपेश में पड़ जाते हैं.
भोपाल में ही राहुल गांधी ने ऑपरेशन सिंदूर पर सरेंडर का जो वक्तव्य दिया है, इसके दूरगामी दुष्परिणाम कांग्रेस के सामने आएंगे.
राहुल गांधी यूथ कांग्रेस में भी निर्वाचन प्रक्रिया लेकर आए थे. यह पूरी प्रक्रिया कालांतर में फेल साबित हुई. फिर वही परिवारवादी राजनीति से जुड़े युवा नेता इन पदों पर बैठते रहे. पॉलीटिकल पार्टी है तो कुछ करना है. शायद इसीलिए इस तरह के कार्यक्रम तय किए जाते हैं. सबसे पहली जरूरत कमिटमेंट की है, जो ऊपर से लेकर नीचे तक कांग्रेस में दिखाई नहीं पड़ती.
जिस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष ही मुखौटा है, असली पावर कहीं और होता है. एमपी कांग्रेस ओल्ड और न्यू के संघर्ष में फंस गई है. उसका निकलना मुश्किल है. राहुल गांधी को शायद यह नहीं पता कि उनके जो घोड़े रेस में दौड़ रहे हैं, उनके लिए घास का इंतजाम कहां से हो रहा है.
राहुल गांधी जब से पार्टी की कमान संभाली है, तब से अपमानित होकर नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसिला बढ़ा है. असम में बीजेपी के वर्तमान मुख्यमंत्री कांग्रेस से आए चेहरा ही हैं. राहुल हमेशा दंभ भरते हैं कि, वह माफी नहीं मांगते. वह झुकते नहीं हैं. सरेंडर नहीं करते हैं. झुकने की कला से दूर जो होता है, वह पेड़ खजूर जैसा है.
राहुल गांधी पार्टी को तो सुधारने की बात कर सकते हैं लेकिन उनको कौन सुधारेगा? अपनी दादी और देश की महान नेता इंदिरा गांधी को जूते पहनकर पुष्पांजलि देना गलत है, यह उनको कौन सिखाएगा? जीत को हार साबित करना, राहुल का कैरेक्टर बन गया है.
जिन रेस के घोड़ों को राहुल ने चुना है, वह चेहरे खुद जीत लें, यही पर्याप्त है. पार्टी को तो जीत दिलाना उनके बूते की बात नहीं है.