लोकचित्र और भित्तिचित्र का रोचक इतिहास
मनुष्य ने संकेत, भाषा के अतिरिक्त रंग और रेखा के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त करने की कोशिश की, जो चित्रकला बन गई। मानव जीवन में यदि रंग रेखाएँ नहीं होती तो जीवन इतना रंगीन और आनन्दपूर्ण नहीं होता। अपने भीतर के रंग और विचार की रेखाएँ मनुष्य शायद ही खींच पाता। आदि मानव को पृथ्वी पर रंग और रेखाएँ खोजने का श्रेय रहा है। पहले मिट्टी के रंग 'गेरु' और 'खडिया' आदिमानव ने धरती की कोख से ढूँढ निकाले और उनसे रेखाएँ खींचकर चित्र बनाये, जिन्हें गुहाचित्रों की संज्ञा दी जाती है। यही गुहाचित्र जब लोक समूहों की घर की दीवारों पर उतर आये तब ये लोकचित्र कहलाये। आदिम चित्रों और लोक चित्रों में संस्कृति का बहुत लम्बा और गहरा समय का अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है।
लोक में पारम्परिक रूप से बनाये जाने वाले रेखांकन चित्रों को 'लोकचित्र' कहा जाता है। लोकचित्रों में वे सभी रेखांकन और अलंकरण समाहित हैं, जो पर्व-त्यौहार, अनुष्ठान और संस्कार से जुड़े होते हैं। लोकचित्र प्राय: दो तरह से बनाये जाते हैं। एक रंगों से, दूसरे मिट्टी, गोबर, कागज तथा अन्य माध्यमों से। लोकचित्रों के चार मूल आधार होते हैं।
एक-भित्ति पर बनाये जाने के कारण इन्हें 'भित्तिचित्र' कहा जता है। रंगों से बनाये जाने वाले चित्रों में जैसे कोहबर, जिरोती, सुरेती, नाग, अहोई अष्टमी आदि। भित्ति पर ही गोबर, मिट्टी, फूल-पत्ते और उद्गेखण से बनाये चित्रों में सांझी, नौरता, नरवत, अलंकरण आदि। दो-भूमि पर बनाये जाने के कारण इन्हें भूमि-अलंकरण या मांडणा कहा जाता है। एप्पन, अल्पना, कोलम आदि धरती मांडणा ही हैं। तीन-कागज, कपड़े और पत्तों पर बनाये जाने वाले चित्र जैसे मधुबनी, पट्ट चित्र, पगल्या, कुलदेवी आदि। चार-देह पर विभिन्न प्रकार की स्थायी-अस्थायी सज्जा की जाती है जैसे गोदना, मेहंदी, महावर, कुमकुम-चंदन टीका आदि।
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लोकचित्रों के रंग
लोकचित्रों के रंग देहाती होते हैं। गाँव से प्राप्त मिट्टी रंगों को कलाकार पारम्परिक विधि से तैयार करते हैं। लोकचित्रों के प्राथमिक रंग लाल, पीला, नीला, हरा, काला और सफेद प्राचीन समय से प्रचलित हैं। तृवर काठी अथवा बाँस की काड़ी पर बाल या रूरईड में धागा लपेटकर कलम बनाने की प्रथा भी बहुत पुरानी है। आजकल तैयार ब्रशों का चलन प्रायः सभी लोकचित्रकार करने लगे हैं लेकिन ग्रामीणमहिलाएं अपने पारम्परिक चित्र आज भी नारियल को नट्टियों में रंग पोलकर काड़ी की कलम से रेखांकन करती दिखाई देती है। लोकचित्रों में मिश्रित रंगों का चलन नहीं के बराबर होता है और न शेड लाइट्स रंगों का प्रयोग होता है।
लोकचित्रों के विषय
प्राय: पारम्परिक रूप से पौराणिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और लोक आख्यानिक होते हैं। इन विषयों में लोक का धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आस्था-विश्वास, पूजा, अनुष्ठान, दैनन्दिनी गतिविधियों के साथ विभिन्न संस्कार लोकचित्रों की निर्मित में आम भूमिका होती है। देवी-देवता लोकचित्रों के खास विषय होते हैं, विशेषकर हर अंचल के स्थानीय देवी-देवताओं की चित्र कथाओं का अन प्रायः होता है। जिनके साथ उनकी अनेक किंवदन्तियाँ, व्रत-उपवास और लोकाचार जुड़े होते हैं । विषय कोई भी हो सकता है, लेकिन उसमें लोक का आत्म सौन्दर्य अवश्य निहित होता है। लोक मनीषा की ऊर्जा का रंगोंन विस्तार हो हमारे लोकचित्रों में मौजूद होता है।
प्रमुख विशेषताएँ
1. आंचलिकता (स्थानिकता) सबसे ऊपर होती है, यही उनकी पहचान, प्रतिष्ठा और मौलिकता भी होती है।
2. लोकचित्र किसी न किसी तिथि, त्यौहार, पर्व, व्रत, उत्सव और अनुष्ठान से जुड़े होते हैं।
3.लोकचित्रों का स्वरूप मिथकीय होता है, जिनकी प्राय: पूजा होती है।
4. लोकचित्रों के रंग देशज होते हैं। रेखाएँ विरासत में मिली होती हैं।
लोकचित्रों के बनाने के पीछे आस्था और विश्वास तो है ही साथ ही, उनमें कला की दृष्टि से सौन्दर्य बोध का भी समावेश होता है| लोकचित्र नारी चेतना का मूर्त रूप हैं, इसलिये लोकचित्रों के सृजन में महिलाओं के हाथ अधिक सक्रिय होते हैं। इस कारण पूरी लोकचित्र परम्परा भाव-जगत की वस्तु बन जाती है। लोकचित्र व्यक्तिगत नहीं होते, समष्टिगत होते हैं।
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