अनेक महत्वपूर्ण मंत्रों के दृष्टा महर्षि अत्रि -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

अनेक महत्वपूर्ण मंत्रों के दृष्टा महर्षि अत्रि -दिनेश मालवीय महर्षि अत्रि भारतीय ऋषि परम्परा में एक ऐसा नाम है, जिसे सुनते ही श्रद्धा से सिर झुक जाता है. अत्रि का शाब्दिक अर्थ है तीनों गुणों से अतीत. वह ऋग्वेद के पंचम मंडल के दृष्टा हैं. इसीलिए इस मंडल को “आत्रेय मंडल” कहा जाता है. इसमें 87 सूक्त हैं, जिनमें मुख्य रूप से अग्नि, इंद्र, मरुत, विश्वदेव और सविता आदि देवों की स्तुतियाँ हैं. इंद्र औए अग्निदेव के महान कर्मों का वर्णन है. अत्रिजी का आश्रम आज भी चित्रकूट में मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है, जहाँ जाकर अपूर्व शान्ति मिलती है. यहीं वह अपनी पत्नी परम सती अनसूया के साथ तपोवन में तपस्या करते थे. महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया भी ब्रह्मवेत्ता थीं, जिन्होंने अपने तपोबल से त्रिदेव को बालक बना दिया था. वह कर्दम ऋषि की पुत्री और महान ब्रह्मतेज से सम्पन्न थीं. भगवान श्रीराम जब अपने वनवास के दौरान अत्रिजी के आश्रम गये थे, तब अनसूयाजी ने माता सीता को पतिव्रत धर्म के गूढ़ रहस्य बतलाते हुए उन्हें दिव्य आभूषण प्रदान किये थे. उन्हीं के तपोबल से भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई, जिसे “मंदाकिनी” कहते हैं. अत्रि दम्पती की तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने इन्हें दर्शन दिया उर उनकी प्रार्थना पर उनके पुत्र बनना स्वीकार किया. विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा और शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा अत्रि-अनसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए. श्रीरामचरितमानस में महाकवि तुलसीदास ने भगवान के लिए अत्रिजी के मुख से जो स्तुति करवाई है, वह अद्भुत है. यह स्तुति है-“नमामि भक्त वत्स्लम कृपालु शील कोमलम. भाजामि ते पदाम्भुजम, अकामिना स्वधाम्दम.” इस स्तुति को हर राम भक्त को स्मरण कर इसका इसके अर्थ को समझते हुए रोज पाठ अवश्य करना चाहिए. इनके चरित्र का पुराणों में बहुत सुंदर वर्णन मिलता है. इसके अनुसार, अत्रिजी ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं. इनकी गणना सप्तर्षियों में होती है. एक बार जब महर्षि समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार-यंत्र में डाल दिया और आग लगाकर इन्हें जलाने का प्रयास किया. लेकिन अत्रिजी को इसका कुछ भान ही नहीं हुआ. उस समय अश्विनीकुमारों ने वहाँ पहुंचकर उनके प्राणों की रक्षा की. ऋग्वेद में वर्णन आता है कि जब लम्बी तपस्या करते हुए, जब वह वृद्ध हो गये, तब अश्विनीकुमारों ने इन्हें नवयौवन प्रदान किया.  आत्रेय मंडल का “कल्याण-सूक्त” ऋग्वेदीय” स्वस्ति-सूक्त है. यह उन्हीं की ऋतंभरा प्रज्ञा से प्रकाशित हुआ. इसे “मंगल-सूक्त” और “श्रेय-सूक्त” भी कहा जाता है. आज भी मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों और पूजा-अनुष्ठानों में स्वस्ति-प्राप्ति, कल्याण-प्राप्ति, अभ्युदय-प्राप्ति, भगवत्कृपा-प्राप्ति और अमंगल के नाश के लिए इसका सस्वर पाठन किया जाता है. इसमें अश्विनी, भग, अदिति, पूषा, ध्यावापृथ्वी, बृहस्पति, आदित्य, वैश्वानर, सविता तथा मित्रावरुण तथा सूर्य-चन्द्र आदि देवताओं से प्राणिमात्र के मंगल की प्रार्थना कि गयी है. इसी तरह, महर्षि अत्रि ने मंडल की पूर्णता में भी सवितादेव से यही प्रार्थना की है कि ‘हे देव! आप हमारे सम्पूर्ण दुखों को- अनिष्टों को, शोक-कष्टों को दूर कर हमारे लिए जो हितकर हो उसे उपलब्ध कराएँ. एक तरफ उन्होंने वैदिक ऋचाओं का दर्शन किया, वहीँ दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को सदाचार और धर्मपूर्ण आचरण तथा उत्तम जीवनचर्या में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित किया. महर्षि अत्रि का कहना है कि वैदिक मंत्रों के अधिकारपूर्वक जप करने से सभी प्रकार के पाप-क्लेशों अंत हो जाता है. पाठ करने वाला पवित्र हो जाता है. उसे जन्मांतरीय ज्ञान हो जाता है. उसे जाति-स्मरण हो जाता है. वह जो चाहता है, वह उसे मिल जाता है. “अत्रि स्मृति” में अत्रिजी ने कहा है कि यदि कोई विद्वेष भाव से बैरपूर्वक भी भगवान का स्मरण करे, तो उसका उद्धार हो जाता है. उन्होंने इस सन्दर्भ में दमघोष के पुत्र शिशुपाल का उदाहरण दिया है. फिर यदि प्रेम और भक्ति से  भगवान का आश्रय लिया जाए, तो भक्त के कल्याण में के संदेह हो सकता है?