खेती की इस व्यवस्था से बदल सकती है देश की तकदीर..आवर्तनशील खेती


स्टोरी हाइलाइट्स

आवर्तनशील खेती और इसकी आवश्यकता | वर्तमान में हम मानव जाति यह अब समझ ही चुके हैं कि धरती की व्यवस्था हमारी गलतियों की वजह से दिनों दिन बिगड़ती जा रही है।

खेती की इस व्यवस्था से बदल सकती है देश की तकदीर..आवर्तनशील खेती आवर्तनशील खेती और इसकी आवश्यकता | वर्तमान में हम मानव जाति यह अब समझ ही चुके हैं कि धरती की व्यवस्था हमारी गलतियों की वजह से दिनों दिन बिगड़ती जा रही है। इससे मानव जाति के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती आ गई है कि कैसे स्थिति को नियंत्रण में लाया जाए ताकि यह धरती की व्यवस्था बनी रहे। इसमें मानव जाति की ही सुरक्षा है। वनों की अंधाधुंध कटाई हमारी गलतियों में एक सबसे बड़ी गलती है। असंतुलित मौसम चक्र इसका उदाहरण है। इसके समाधान में कई विकल्प हो सकते हैं, एक विकल्प आवर्तनशील खेती के रूप में परम श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी (प्रणेता: मध्यस्थ दर्शन, सह अस्तित्ववाद) ने बताया था। इस खेती की सहायता से हम धरती के संतुलन को बनाए रखने में पूरक हो सकते हैं। आवर्तनशील खेती में मुख्यत: तीन भाग होते हैं। पहले भाग में घर में खाने वाले फसल जैसे गेहूँ, दाल, चावल, अनाज आदि लगाया जाता है।  दूसरे भाग में फल, सब्जी, मसाले व गाय का चारा (नैपियर, जिंजवा, बरसीम घास ) लगाया जाता है। तीसरे भाग में जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी जैसे बाँस, साल, सागौन आदि लगाया जाता है। सुखी पत्तियाँ खाद बनाने के काम आती है। यह वृक्ष पर्यावरण संतुलन में एक बड़ा योगदान करती है। इसी भाग में ढलान की तरफ एक तलाब होता है जिससे पानी का स्रोत हमेशा बना रहता है। तीसरे भाग में ही हम गौशाला रख सकते हैं जिससे दूध का उत्पादन होता है तथा गोबर से एक अच्छी उपजाऊ जमीन तैयार करने में मदद मिलती है। इसी भाग में गाय के लिए चारा (बरसीम घास) भी लगाया जाता है। इस खेती का प्रयोजन है, पहला आवश्यकता से अधिक का उत्पादन अर्थात पहले स्वयं की आवश्यकता के लिए तो उत्पादन हो ही जो अधिक हो उसे संबंधियों को वितरित कर दिया जाए।  (हर परिवार में आवश्यकताएं समझ आने पर आवश्यकता से अधिक उत्पादन सहज है जिससे समृद्धि का भाव आता है।) दूसरी आवश्यकता शेष अवस्थाओं (पदार्थ, प्राण व जीव) में संतुलन बनाए रखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार की खेती में किसी भी प्रकार का रासायनिक खाद व रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता। ➡आवर्तन - दोहराने वाली क्रिया । - क्रिया (श्रम, गति परिणाम) परम्परा। - यथास्थिति, उपयोगिता पूरकता सहज परम्परा। - पदार्थावस्था-परिणामानुषंगी। प्राणावस्था-बीजानुषंगी। जीवावस्था-वंशानुषंगी। ज्ञानावस्था-संस्कारानुषंगीय परम्परा में आवर्तनशील हैं। - ऋण धनात्मक गुण स्वभाव प्रकाशन सीमा गतिपथ। ➡ आवर्तनशील - पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से पदार्थावस्था आवर्तनशील। ➡ आवर्तनशीलता - जागृत मानव विकसित चेतना विधि से ही पदार्थ, प्राण और जीवावस्था के साथ उपयोगिता पूरकता सहज प्रमाण। - अन्य तीनों अवस्थाएं अपने - अपने यथास्थिति में उपयोगी अग्रिम अवस्था के लिए पूरक होना ही आवर्तनशीलता है। ➡ आवर्तनशील विधि - ज्ञान, विवेक, विज्ञान, जागृत मानव परम्परा सहज कार्य व्यवहार फल परिणाम ज्ञान सम्मत होना आवर्तनशीलता। - मानवीयतापूर्ण आचरण संगत कार्य व्यवहार। ➡ आवर्तित - धरती सूर्य के सभी ओर आवर्तित है। - परमाणु में मध्यांश के सभी ओर परिवेशों में कार्यरत सभी अंश आवर्तित रहते हैं। इसी के साथ प्रत्येक अंश अपने घूर्णन गति में रहते हैं इसे भी आवर्तन संज्ञा है और धरती भी अपने घूर्णन गति सहित आवर्तनशील है।