आदमी के अन्दर डर क्या है ?- जे कृष्णमूर्ति
क्या यह संभव है कि हम खुद को डर से पूरी तरह मुक्त कर लें, किसी भी तरह के डर से। क्योंकि भय किसी भी तरह का हो भ्रम पैदा करता है, यह दिमाग को कुंद बनाता है, खोखला करता है। जहां भी डर होगा, निश्चित ही वहां आजादी नहीं हो सकती, मुक्तता नहीं हो सकती और जहां स्वतंत्रता हींन होगी वहां प्रेम भी नहीं हो सकता। हममें से बहुत से लोग किसी ना किसी तरह के भय से ग्रस्त रहते ही हैं- अंधेरे का भय, ‘लोग क्या कहेंगे’ इस बात का भय, सांप का भय, शारीरिक दुखदर्दों का भय, बुढ़ापे की परेशानियों का भय, मौत का भय और ऐसे ही सैकड़ों की संख्या में कई तरह के भय हैं। तो क्या ऐसा संभव है कि हम भय से पूर्णतः मुक्त रहें?
हम देख सकते हैं कि हम में से हर आदमी के लिए भय क्या-क्या करता है। इसी के कारण कोई झूठ बोलता है, यह आदमी को कई तरह से भ्रष्ट करता है, यह बुद्धि को उथला और खोखला बना देता है। तो हमारे मन में कई अंधेरे कोने होते हैं जिनकी तब तक खोज और उनका उद्घाटन नहीं हो पाता जब तक कि हम डरें। शारीरिक सुरक्षा, एक जहरीले सांप से खुद को दूर रखने की एक स्वाभाविक वृत्ति, किसी ऊंची चट्टान के ऊपर खड़े होने से बचना, या ट्रेन के सामने आने से बचना, एक स्वाभाविक सहज स्वस्थ बचाव है लेकिन हम उस डर की बात कर रहे हैं जो मनोवैज्ञानिक आत्मरक्षण है, जो कि एक आदमी को बीमारियों से, मौत से और दुश्मन से डराता है। हम जब भी किसी भी रूप में पूर्णता की तलाश में रहते हैं वह चाहे चित्रकला हो, संगीत हो, किन्हीं तरह के रिश्ते हों, या आप जो भी होना चाहें, वहां हमेशा भय होता है। तो बहुत ही महत्वपूर्ण क्या है? यह कि हम भय कि इस सारी प्रक्रिया के प्रति खुद को जागरूक रखें। भय का अवलोकन करके, इस के बारे में सीख कर और यह ना कहें कि इसको कैसे दबायें, कुचलें ? जब हम भय को दबाने या कुचलने की बात करते हैं तो हम फिर इससे पलायन के रास्तों पर चलने लगते हैं और भय से पलायन करने से तो भय से मुक्ति नहीं मिलती।