अध्यात्म और पूजा में क्या अंतर है?


स्टोरी हाइलाइट्स

पूजा का अर्थ है किसी के प्रति अत्यधिक सम्मान, प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति का भौतिक तरीका|

सबसे पहले तो पूजा का अर्थ समझना चाहिए, पूजा है क्या? पूजा का अर्थ है किसी के प्रति अत्यधिक सम्मान, प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति का भौतिक तरीका| जब भी हम किसी व्यक्ति, देवता या परमपिता परमात्मा के प्रति अपने समर्पण के भाव को प्रकट करना चाहते हैं, तब हम पूजा की पद्धतियों का सहारा लेते हैं| पूजा अपने समर्पण को अभिव्यक्त करने के लिए भी की जाती है और फल की प्राप्ति की अभिलाषा के लिए भी की जाती है| पूजा का अर्थ स्तुति प्रशंसा और प्रार्थना भी है| सांसारिक मनुष्य अपनी भौतिक उन्नति के लिए कर्म करता है लेकिन जब कर्म के फल आशाजनक नहीं होते तो व्यक्ति विभिन्न स्तर पर पूजा के माध्यम से कृपा प्राप्त करने की कोशिश करता है| हम सब जीवन में अनेक अवसरों पर अपने से ऊपर बैठे हुए लोगों या उन से भी ऊपर मौजूद दृश्य-अदृश्य शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए पूजा का सहारा लेते हैं| सनातन धर्म में देवी देवताओं के प्रतीक, प्रतिमाओं और प्रतिमाओं के ज़रिये  उस परम शक्ति तक पहुंचने के अनेक रास्ते बताए गए हैं| वह सभी रास्ते एक तरह की पूजा ही हैं| मंत्र, पाठ कर्मकांड आदि पूजा के ही अलग अलग खंड हैं| पूजा वस्तुतः कुछ प्राप्ति की अभिलाषा में किया गया मानसिक या शारीरिक कर्म है| अध्यात्म इससे थोड़ा अलग है| अध्यात्म अपने आत्म स्वरूप को जानने का एक विधान है| अध्यात्म का अर्थ है अपनी आत्मा का अध्ययन, हम सब भौतिक शरीर से भली-भांति परिचित होते हैं, लेकिन इस शरीर के साथ कुछ और भी है जो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है| हमारा मन, हमारी आत्मा और प्राण ऊर्जा भी हमारे ही अस्तित्व का हिस्सा हैं| मन आत्मा और प्राण मिलकर चेतना का निर्माण करते हैं| चेतना का क्रियाशील भाग हमारी सामान्य गतिविधियों को संचालित करता है| इसीका सुप्त भाग कुंडलिनी के रूप में हमारे ही अंदर मौजूद होता है| सुप्त चेतना(कुंडलिनी ) को जागृत करके हमारे आध्यात्मिक अस्तित्व का अनुभव करना ही अध्यात्म है| इस आध्यात्मिक अस्तित्व यानी कुंडलिनी के अनुभव के लिए योग ही एकमात्र मार्ग है| योग का अर्थ सिर्फ आसन या कोई खास विधि नहीं है, योग का अर्थ है वह तमाम विधियां(प्रक्रियाएं) जो हमें उस चेतना की जागृति के स्तर तक ले जाए, जहां हमें वास्तविक आध्यात्म का अनुभव हो सके| इधर उधर से बटोरी हुई जानकारियों के आधार पर कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि आध्यात्मिक होने का अर्थ ज्ञान का एकत्रीकरण नहीं है| आध्यात्मिक होने का अर्थ है हमारी उस आध्यात्मिक चेतना से हमारा साक्षात्कार जो हमारे ही अंदर प्रसुत रूप में या अदृश्य रूप में मौजूद है| जिसे हम न देख पाते हैं न जान पाते हैं| इसी को आत्म साक्षात्कार आत्मज्ञान या तत्व बोध कहते हैं| आत्मबोध क्या है? यह आपकी उच्चतर वास्तविकता(higher consciousness) का प्रत्यक्ष अनुभवात्मक(Practical) ज्ञान है। यदि अनुभव के माध्यम से नहीं,तो किसी को आत्म-साक्षात्कार कैसे हो सकता है? सोच कर? खुद के होने का दिखावा करके?कल्पना करके,मतिभ्रम से ? आध्यात्मिक अनुभवों के बिना,दुनिया में सभी तरह का ज्ञान उधार का है| वास्तविक स्व या मै का ज्ञान केवल इस आध्यात्मिक शरीर के माध्यम से ही हो सकता है। आध्यात्मिक शरीर को अभिव्यक्ति के लिए शब्दों और भाषा की आवश्यकता नहीं होती है। चेतना (आत्मा, सत्य, सत्व, अस्तित्व, आयाम, मूल प्रकृति, स्व, आध्यात्मिक शरीर,,सूक्ष्म शरीर)हमारे भौतिक शरीर के अंदर और बाहर,एक चुंबकीय क्षेत्र की तरह है। किसी के वास्तविक स्व यानि उसके सूक्ष्म अस्तित्व का ज्ञान केवल अनुभव से ही प्राप्त होता है। अनुभव के लिए योग ही एकमात्र मार्ग है इसीलिए योग ही आध्यात्म का वास्तविक रूप है , पूजा भी योग का ही एक अंग है जिसे भक्ति योग कहते हैं लेकिन किसी भौतिक मांग के लिए कि जाने वाली पूजा योग से हटकर है| -अतुल विनोद