यह क्या अज़ाब, क़ैद हैं....दिनेश मालवीय "अश्क" यह क्या अज़ाब, क़ैद हैं अपने ही घर मे हम फिरते थे देर रात तक अपने शहर मे हम। यूँ तो रहे हैं साथ बुरों से भी बुरों के। लेकिन कभी न आये किसी के असर मे हम कोई मिला न क़द्रदां क़िस्मत की बात है हालांकि न कमतर रहे अपने हुनर मे हम। मन्नत कभी थी माँग ली हमने ख़ुदा से कुछ तब ही से गुनहगार हैं अपनी नज़र मे हम। अंतर मे झाँककर कभी अपनी ख़बर न ली दिन रात उलझते रहे जग की ख़बर मे हम।
यह क्या अज़ाब, क़ैद हैं....दिनेश मालवीय
 
										
									
									 
                                 
 
										 
										 
 										 
															 
															 
															 
															 
															 
															 
															 
															 
															 
															 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											 
											