नर्मदा के सौन्दर्य का प्रसाद : अमृत लाल वेगड़ के रेखांकन


स्टोरी हाइलाइट्स

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नर्मदा के सौन्दर्य का प्रसाद : अमृत लाल वेगड़ के रेखांकन

कलावाक्: रेखाओं में नदी संस्कृति का इतिहास'सौंदर्य की नदी नर्मदा' और 'अमृत्स्य नर्मदा' जैसी कालजयी कृतियों के लेखक और नर्मदा के ही लोकजीवन के रंग-बिरंगे रेखांकनकार अमृतलाल वेगड़ ....

नर्मदा के तटों की परिक्रमा करते हुए, जीवन के कितने ही रूपों और रंगों की आवाजाही की भीड़ में किसी समाधिलीन साधक से, वे वह सब कुछ उसी निगाह से निहारते-परखते रहे, जैसा वह सचमुच था| यही उनकी साफगोई भी थी, ईमानदारी भी| अपना कोई रंग मनमाना, उन्होंने उस पर थोपा ही नहीं| न ही उसके रंग को अपनी कलाकारी से रंगा और पोता ही| इसलिए वह अपने स्वभाव में है वहां, भले ही कहने को यह नर्मदा के बहाने से हो|

उनकी कलम से-

नर्मदा! तुम सुन्दर हो, बहुत सुन्दर। अपने सौन्दर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुँचा सकू। नर्मदा मेरे लिए सौन्दर्य की नदी है। उसका सौन्दर्य मुझे चकित और विस्मित करता है। उसका सौन्दर्य है ही ऐसा। हमेशा नया-नया सा। इस सौन्दर्य की झलक पाने के लिए मैं नर्मदा के किनारे-किनारे 1800 किलोमीटर पैदल चला। एक साथ नहीं, रुक-रुक कर। उद्गम से संगम तक की पूरी यात्रा की। पहाड़ों और वनो में से गया। दुर्गम और खतरनाक शूलपाण झाड़ी में से भी गया, जहाँ आज तक शायद ही कोई कलाकार या लेखक गया हो। नर्मदा जहाँ समुद्र से मिलती है वहाँ उसका 20 किलोमीटर चौड़ा पाट नाव से पार किया।
  https://youtu.be/Z7Z_MCCODtA
इस देश के करोड़ो निवासियों के लिए नर्मदा केवल नदी नहीं, माँ है। उसके तट पर ऋषियों ने तपस्या की, आश्रम बनाये, तीर्थ बनाये। नर्मदा-तट के छोटे से छोटे तृण और छोटे से छोटे कण न जाने कितने परिवाजको, ऋषि-मुनियों और साधु की पदधूलि से पावन हुए होंगे। कभी नर्मदा तट पर शक्तिशाली आदिम जातियाँ निवास करती थी। आज भी इसके तट पर बैगा, गोंड, भील आदि जनजातियाँ निवास करती है।



यह भारत की सात प्रमुख नदियों में से है। गंगा के बाद नर्मदा का ही महत्व है। नर्मदा अपने आप में अनूठी है। यह अपने ढंग की अकेली नदी है क्योंकि सारे संसार में एकमात्र नर्मदा की ही परिक्रमा की जाती है। नर्मदा अत्यन्त सुन्दर नदी है। उद्गम से संगम तक की अधिकांश दूरी पूरे लावण्य के साथ तय करती है। यदि नदियों की कोई सौन्दर्य प्रतियोगिता आयोजित होती, तो सर्वोत्तम पुरस्कार नर्मदा को ही मिलता। नर्मदा के इसी मनोहारी रूप को अपने रेखांकनों में, चित्रों में तथा लेखन में बाँधने का मेरा प्रयास रहा है।

नर्मदा मुझे बचपन से ही खीचती रही है उसके विविध रूप देखने सुंदर देहातों में गया है। उसकी शोभा को मुग्ध  होकर निहारता रहा हूँ। लेकिन तृप्ति कहाँ। परकम्मावासियों को देखकर मन ललक उठता। सोचना, अपनी स्केन-बक लेकर इनके साथ हो लें। लेकिन बात बनती नहीं थी। किन्तु, एक दिन बात बन गई। 22 अक्टूबर 1977 के दिन जबलपुर से मंडला तक की पैदल यात्रा के लिए हम लोग पीठ पर बोझा लादे चल पड़े। प्रायः 100 किलोमीटर लम्बी इस यात्रा में हमें 15 दिन लगे। दिन ढलते किसी बाबा की कुटी में, कोटवार या पटवारी के बरामदे में, या मन्दिर से लगी धर्मशाला में रह जाते और सबेरा होते ही आगे बढ़ते। कही अन्छा लगता तो दो दिन भी रह जाते।

इस पहली यात्रा में मैने कई रेखांकन (स्केच) किये लेकिन अच्छे चार-पाँच ही हुए। एक गाँव में शरद पूर्णिमा की भजन मण्डली जमी थी। लोग बड़ी मस्ती से गा रहे थे। कोई मृदंग बजा रहा था, कोई झांझ-मजीरा, कोई पखावज। उनकी मस्ती मुझे भी छू गयी। मेरा हाथ भी उनके लय और ताल के साथ चलने लगा इस भजन मण्डली (रेखांकन 4) को मैने आधी रात को चाँदनी में बनाया था। इसी यात्रा का एक अच्छा रेखांकन साप्ताहिक बाजार में चूड़ियाँ पहनती ग्रामीण नारियों का है (रेखाकन 2)। मैने देखा, गरीब से गरीब ग्रामीण नारी भी चूड़ियाँ खरीदे बिना नहीं रहती। सुहाग और कांच की चूड़ियों से बढ़कर सस्ता व सुन्दर आभूषण और है भी क्या!

हमारी दूसरी यात्रा मंडला से अमरकंटक तक की थी और 225 किलोमीटर लम्बी थी। इस यात्रा में हम दो ही थे|  मै और मेरा छात्र यादवेन्द्र। अभी तक हम लोग नर्मदा के उत्तर तट से चल रहे थे, अमरकंटक से दक्षिण तट पर आ गये। अभी तक हम उद्गम की ओर चल रहे थे, अब संगम की ओर चलेगे। और इस प्रकार, खण्ड यात्रा करते हुए, हम समुद्र तक पहुँच गये उन परकम्मावासियो की खुशी का क्या कहना, जो कई-कई महीनों की कठिन पदयात्रा के बाद जीवन में पहली बार समुद्र का दर्शन करते हैं। नाव से समुद्र पार करके हम पुनः उत्तर तट आ गये और भरूच होते हुए नारेश्वर जाकर यात्रा समाप्त की।

पहली यात्रा 1977 में और अन्तिम 1987 में हुई। मै कल 1800 किलोमीटर पैदल चला।

ग्रामीणों का पैदल नर्मदा पार करना मेरा प्रिय विषय रहा है। इसके मैने कई रेखांकन किये। वे पहले माँ नर्मदा को प्रणाम करते, इसके बाद ही नदी में उतरते। मुख्य धारा के आने पर सिर की गठरी ठीक करते, गोद का बच्चा संभालते, काँवर का सन्तुलन ठीक करते और एक-दूसरे का हाथ थाम कर उतरते। पानी गहरा नहीं, लेकिन प्रवाह तेज है और काई के कारण पैर फिसलते है। बहुत सम्भाल कर पार करना होता है। कभी-कभी तो ग्रामीण नारियों सिर पर लकड़ियो का भारी गट्ठर लिये नदी का तेज प्रवाह पार करती (रेखांकन 11)। कैसा रोमांच है इसमें !

यह जो नदी को पैदल पार करना है, यह नर्मदा की अपनी विशिष्टता है। वह शुरू के 100 किलोमीटर तक इतनी उथली है कि ग्रामीण उसे आसानी से पैदल पार कर लेते है।

एक बार गर्मियों में चले तो खूब शादियाँ देखने मिली। जहाँ शादी होती, यहाँ बड़े-बड़े नगाड़े बजाता वादक होता और पास में छोटी-सी टिमकी बजाता दूसरा वादक होता। दूल्हा-दुल्हन के बजाय इन वादकों ने मुझे ज्यादा आकृष्ट किया। उनका स्केच (रेखांकन 14) बनाते समय मुझे लगा था कि मैं खुद नगाड़े बजा रहा हैं। कलाकार और कलाकृति के बीच जब इतना तादात्म्य स्थापित होता है तब कलाकृति सजीव हो उठती है।

ऐसा भी हुआ कि मेरे लालच ने मेरे स्केच को बिगाड़ दिया। मुझे लालच हो आता कि स्केन में यह ले लूँ, वह ले लें और इसी लोभ में अपने स्केच में बहुत गाय कबाड़ इकट्ठा कर लेता और उसके सौन्दर्य को बिगाड़ देता। मै अच्छी तरह है कि स्केच में या किसी भी कलाकृति में केवल आवश्यक चीजों को ही दर्शाना चाहिए, अनावश्यक चीजों को निर्ममतापूर्वक छोड़ देना चाहिए। स्केचिंग का सार यह जानने में है कि क्या लेना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए। मैं यह जानता हूँ फिर भी ऐसा हो जाता।

इन यात्राओं में मुझे साधु-संन्यासियों के साथ रहने का और उनके स्केच करने का अवसर मिला। एक दुबले पतले साधु ने एक ही पैर पर खड़े रहने का व्रत लिया था।

ऐसा भी हुआ कि सामने बैठी महिला अत्यन्त सुन्दर थी, लेकिन मेरा स्केल अच्छा नहीं बना। शूलपाण झाड़ी की बात है। नर्मदा परिक्रमा का यह सबसे खतरनाक प्रदेश है। यहाँ के भील परकम्मावासी को लूटकर नंगा कर देते हैं। मेरे साथ सिपाही थे इसलिए मुझे कोई खतरा नहीं था। गर्मी के दिन थे झुलसाने वाली धूप में एक गाँव पहुँचे। वहाँ मेरा ध्यान एक स्त्री पर गया। उसे देखा तो बस देखता ही रह गया। रंग तो काला था लेकिन इतना सुन्दर, कोमल-मृदुल रूप में तराशा चेहरा कभी नही देखा था। मैने सोचा, यह है वास्तविक सौन्दर्य जिसे प्रकृति

को पूर्णता कहते है। यह माँ बनने वाली थी, मातृत्व की उजास उसके नेहरे पर उतर आयी थी। मैंने उसके दो स्केच बनाये पर एक भी अच्छा नहीं बना। उसके सौन्दर्य का शतांश भी मैं अपने स्केच में न ला सका। उस दिन मुझे लगा, आज मेरी स्फेचंग की परीक्षा ली गयी और मै उसमें अनुत्तीर्ण रहा ।

इससे कठिन परीक्षाएँ मैं दे चुका था और सफल रहा था। चक्की पीसती, धान कुटिया दही बिलोती खियो के रेखांकन मैं बना चुका था। इसरे भी कठिन था. नृत्यरता आदिवासी नारियों के रात के अन्धेरे में ढिबरी के उजाले में स्केच करना। ये तो मानो हवा में उड़ रही थी। उनके बलिष्ठ देहलय को अपने स्केच में उतारने में सफल रहा था (रेखाकन 17)। इसकी तुलना में यह तो बहुत आसान काम था। सामने स्थिर बैठी स्त्री का चेहरा भर बनाना था। लेकिन नही बना सका। चिलचिलाती धूप में पहाड़ी मार्ग पर चलते रहने के कारण हम बेहद थके हुए यह एक कारण था। लेकिन दूसरा और बड़ा कारण यह था कि उसके अनुपम थे। सौन्दर्य से मैं इतना अभिभूत था कि मैने यह पहले ही मान लिया कि इस माधुर्य को कागज पर उतारना मेरे बस की बात नहीं। यह कार्य तो कोई महान कलाकार ही कर सकता है। स्केच बनाने से पहले ही मैने हार जान ली थी।

तीरे-तीरे नर्मदा - Teere Teere Narmada (Travelogue)कभी यत्न करने पर भी कोई स्केच अच्छा न होता. तो कभी अनायास ही अच्छा बन जाता।

कुछ रेखांकन मैने सर्वथा भिन्न तरीके से बनाये है। चलते-चलते जब किसी पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठते, या यो ही फुरसत के समय, मैं पेड़ के तने को या किसी चट्टान को गौर से देखता। तने में कही-कही छाल निकल जाती है और अजीबोगरीब आकार बन जाते है। ऐसा ही चट्टानों में या दीवारों पर होता है। इन आकारों को काफी देर तक गौर से देखते रहने के बाद मुझे उनमे कुछ जानी पहचानी सी आकृतियाँ दिखायी देने लगती है। ऐसा हमेशा नहीं होता, कभी-कभी हो होता है, पर जब दिखायी देती है तो उन पर से मै स्केव बना लेता हूँ। मेरे कुछ अच्छे स्केच इसी प्रकार से बने है। मेरे लिए यह लुका-छिपी का खेल था। प्रकृति को पाण्डुलिपियों में छिपी सौन्दर्य सम्पदा को ढूँढ़ना कितना दिलचस्प होता था !

एक बार एक पेड़ के तने में मुझे कुएं से पानी निकालती स्त्री दिखायी दो (रेखांकन 34)। कुओं कच्चा है और रस्सी छोटी है। वह इतना झुक गयी है कि उसको केवल पीठ ही दिखायी देती है। एक बार एक नट्टान में मुझे मृदंग बजाता वादक नजर आया (रेखांकन 21)। मैने अपना खुद यह जो रेखाकन किया है (रेखांकन 40) वह भी इसी प्रकार बना है।

इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से बने रेखांकनी में सबसे अच्छा वह है जिसमें नदी पार करता एक ग्रामीण परिवार है (रेखांकन 12) । एक बार एक किसान के घर में हम दोपहर का भोजन बनाने के लिए रुके थे। मै बहुत थक गया था, सो गया। उठा तो तेज बुखार लेकर। वहीं रुक जाना पड़ा। जब बुखार कम हुआ तो में पड़ा-पड़ा कमरे की मिट्टी की दीवार को देखने लगा। मिट्टी कहीं-कही उधड़ गयी थी और वहाँ तरह-तरह के आकार बन गये थे। सहसा मुझे ऐसा लगा मानो एक ग्रामीण परिवार नर्मदा को पार कर रहा है। आगे पति है कंधे पर रखे बोझ से झुक-सा गया है। पीछे पत्नी है, उसकी पीठ से बच्चा बँधा है। बढ़िया संयोजन था। मैने हल्के बुखार में ही यह स्केच कर लिया।

कुछ सामने पेड़ या चट्टान में है, कुछ मन में है, कुछ कल्पना में है। इन तीनों के मिले-जुले रूप हैं इस प्रकार के रेखांकन। जहाँ मुझे मृदंगवादक या नदी पार करता परिवार दिखायी दिया, हो सकता है दूसरों को वहाँ कुछ भी दिखायी न दे या कुछ और ही दिखायी दे। दर्शकों के लिए यह अन्दाज लगाना मुश्किल होगा कि इन रेखांकनों को बनाते समय मेरे सामने कोई नहीं था। यह सब कल्पना का खेल था। हाँ, मेरी कल्पना को जगाया उन आकारी ने।

पेड़ों, चट्टानों या दीवारों पर बने आकार मानो ढँका हुआ पकवान है। जो ढक्कन उठा सके, इसे ले ले!

बड़ा कलाकार वह है जो मन की आँखों से देख सके। मुझ में यह क्षमता नहीं। पर जब कोई पेड़ या चट्टान मेरी कल्पना को जगाते हैं, तो थोड़ी देर के लिए ही सही, मै मन की आँखों से देखने लगता हूँ। तब जो रेखांकन बनते हैं. उनका स्वाद कुछ और होता है।

रेखांकन मैने चाहे जिस तरीके से बनाये हों, सामने देखकर या अस्पष्ट आधार से प्रेरित होकर, लोग यह नहीं पूछेगे कि यह रेखांकन तुमने किस प्रकार बनाया। वे तो यही देखेंगे कि वह है कैसा - अच्छा या बुरा।

मैंने दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी स्केच किये है और आधी रात को चाँदनी में भी किये है। एक शिकारी की तरह हर घड़ी मौके की तलाश में रहता - पता नहीं कब, कहाँ, क्या मिल जाये समुद्र पार करते समय नाव में भी स्केच बनाये और पहाड़ी पगडंडी पर चलते-चलते भी स्केच बनाये।

ये रेखांकन मैने माइक्रोटिण्ड पेन से बनाये है इसलिए कभी-कभी मै अपने आपको माइक्रोएंजेलो कहता था !

नर्मदा के तटवर्ती प्रदेश का भूगोल तेजी से बदल रहा है। उसकी वन्य एवं पर्वतीय रमणीयता बहुत कम रह गयी है। घने जंगल काट डाले गये है। कभी इन जंगलो में जंगली जानवरों की गरज सुनायी देती थी। अब पक्षियों का कलरव तक सुनायी नहीं देता। उन दिनों नर्मदा के तट पर पशु-पक्षियों का राज था, लेकिन उसमें आदमी के लिए भी जगह थी। अब आदमी का राज हो गया है, लेकिन उसमे पशु-पक्षी के लिए कोई जगह नहीं।

बरगी बाँध के कारण नर्मदा तट के कई गांवों का अस्तित्व नही रहा। नर्मदा सागर और सरदार सरोवर के कारण अनेक गाँवो का तथा नर्मदा के सैकड़ों किलोमीटर लम्बे किनारों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा शूलपाण की पूरी झाड़ी डूब में आ जायेगी। जब मैने ये यात्राएँ की थी, तब एक भी गाँव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत-कुछ वैसी ही थी, जैसी हजारों वर्ष पूर्व थी। मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि नर्मदा के उस विलुप्त होते सौन्दर्य को मैने सदा के लिए इन पृष्ठों सँजोकर रख दिया है।

नर्मदा के राशि-राशि सौन्दर्य में से में थोड़ा-सा सौन्दर्य हो ले सका हूँ। सामने तो अथाह सागर है, पर हम उतना ही तो ले पाते हैं, जितना हमारा पात्र होता है।

ये रेखांकन मैने 1977 से 1987 के दो किए थे। 1977 की प्रथम यात्रा के समय मैंने आयु के 50 वे वर्ष में प्रवेश किया था और 1987 की अन्तिम यात्रा के समय 60 वे वर्ष में। अब में 68 के बर्व में प्रवेश कर चुका हूँ और पहाड़ों और जंगलो की वैसी कठिन पदयात्राएँ करना मेरे लिए सम्भव नहीं। वे दिन पोछे छूट गये है और उनके लौटने की कोई उम्मीद नहीं। ये रेखांकन उस अतीत को मेरे लिए फिर से जीवित कर देते है। उन उल्लास भरे दिनों को मैं पुनः जी सकता हूँ। ये रेखांकन नर्मदा से मिले अनमोल उपहार है।

नर्मदा ! तुम मेरी प्रेरणा-स्रोत हो। तुमने मेरी कला को नया आयाम दिया। मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ।

अमृत लाल वेगड़
Amritlal Vegad (3 October 1928 – 6 July 2018) was a noted Gujarati and Hindi language writer and painter living in Jabalpur, Madhya Pradesh, India