अपने ही धर्म में मरना चाहिए, श्रीकृष्ण के इस कथन के हैं, बहुत गहरे अर्थ.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

भगवान् श्रीकृष्ण ने “श्रीमदभगवतगीता” में जो कहा, उसका हर शब्द मानव जीवन के लिए एक महामंत्र है. वैसे तो विश्व के इस सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रंथ के हर...

अपने ही धर्म में मरना चाहिए, श्रीकृष्ण के इस कथन के हैं, बहुत गहरे अर्थ.. दिनेश मालवीय भगवान् श्रीकृष्ण ने “श्रीमदभगवतगीता” में जो कहा, उसका हर शब्द मानव जीवन के लिए एक महामंत्र है. वैसे तो विश्व के इस सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रंथ के हर श्लोक में जीवन के बहुत गहरे रहस्य छुपे हैं, लेकिन एक बात बहुत विशिष्ठ अर्थ वाली है. श्रीकृष्ण ने कहा कि-‘ स्वधर्मे निधनं श्रेया परधर्मो भयावह:” अर्थात अपने धर्म में मरना श्रेश्यस्कर है और दूसरे के धर्म में मरना भयानक. आमतौर पर इसका यही अर्थ लगाया जाता है, कि मनुष्य को अपने धर्म में ही मरना चाहिए. यह माना जाने लगा कि यदि कोई  हिन्दू धर्म में जन्मा है तो उसे जीवन भर अपने ही धर्म में रहना चाहिए. यानी जो भी व्यक्ति जिस धर्म में जन्म लेता है, उसे उसी मरने तक उसे धर्म का पालन करना चाहिए. धर्म बदलना बहुत भयानक परिणाम देने वाला है. ऊपरी तौर पर यह बात बिल्कुल सही लगती है. लेकिन ऐसा मानना श्रीकृष्ण की बात को बहुत उथले रूप से समझना है. पहली बात तो श्रीकृष्ण के समय में अनेक धर्म थे ही नहीं. यदि होते भी तो श्रीकृष्ण का याह आशय है ही नहीं. श्रीकृष्ण का धर्म से आशय स्वभाव से है. वर्णों का निर्धारण भी स्वभाव के आधार पर है. जब वह कहते हैं कि चारों वर्णों का निर्धारण मेरे द्वारा किया गया है. सभी को व्यक्ति को अपने-अपने वर्ण के अनुसार जीवन जीना चाहिए. उदाहरण के तौर पर, यदि किसी व्यक्ति का सहज स्वभाव अध्ययन-अध्यापन करने, धर्म-आध्यात्म की खोज करना है, तो उसका वर्ण ब्राह्मण हुआ. यानी उसके जीवन में सत्वगुण की प्रधानता है.  इसी तरह रजोगुण प्रधान व्यक्ति क्षत्रिय, वणिक बुद्धि वाला व्यक्ति वैश्य और सेवा करने की सहज प्रवृत्ति वाला व्यक्ति शूद्र है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन वर्णों में विभाजन सिर्फ स्वभावगत है, इसमें कोई ऊँच-नीच की बात नहीं है. वैसे तो श्रीकृष्ण ने यह बात अर्जुन से कही, लेकिन यह हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होता है. हर व्यक्ति का अपना सहज स्वभाव या प्रकृति होती है, यही उसका धर्म होता है. अर्जुन का स्वाभाव क्षत्रिय का है. युद्ध करना उसका सहज स्वभाव है. यदि वह ब्राह्मणों की तरह जीना चाहे भी तो नहीं जी पायेगा. क्षणिक आवेश में या भावना में बहकर यदि वह ब्राह्मणों की तरह जीने की कोशिश भी करता तो सफल नहीं होता. उसके मोक्ष का रास्ता धर्मयुक्त युद्ध से होकर ही जाता है. आजकल हमारे साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह हो रही है कि हम अपनी सहज वृत्ति के अनुरूप कुछ होना या करना कुछ कुछ चाहते हैं, लेकिन हमें कुछ और होना या करना पड़ता है. मूल स्वभाव के विपरीत कार्य करने की मजबूरी में हम कभी उस काम के साथ न्याय नहीं कर पाते. कहीं पढ़ा है कि हिटलर को यदि उसके सहज स्वभाव के अनुरूप आगे बढ़ने का अवसर मिल जाता, तो वह इतना दानवी प्रवृत्ति का नहीं हो पाता. विवरण के अनुसार, हिटलर बचपन में एक चित्रकार बनना चाहता था. जब वह चित्रकला सिखाने वाले स्कूल में प्रवेश में लिए गया, तो उसे किसी कारण से प्रवेश नहीं मिल पाया. इसके बाद उसने आर्किटेक्ट बनने का विचार किया. उसे इससे सम्बंधित संस्थान में भी प्रवेश नहीं मिल पाय. इसके कारण उसके मन में एक अजीब किस्म की बगावत का भाव विकसित हो गया. उसने निश्चय किया कि वह ऐसा कुछ करेगा, जो आजतक किसीने नहीं किया हो. इसी बाग़ी भाव के चलते उसने ऐसे शैतानी काम किये, जिनकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती. कहते हैं कि वह 60 लाख से ज्यादा मनुष्यों की मौत का जिम्मेदार है. आजकल बच्चों के साथ भी यही विसंगति हो रही है, जिसके कारण उनका जीवन बिखर रहा है. हर माता-पिता अपने बच्चे को डॉक्टर-इंजीनियर या ऐसा कुछ बनाना चाहता है, जसका ट्रेंड चल रहा हो. माता-पिता बच्चे के सहज स्वभाव और रुझान को समझने का कोई प्रयास नहीं करते. वे बच्चों के माध्यम से अपनी किसी महत्वाकांक्षा को पूरा करना चाहते हैं. अनेक बच्चे स्वाभाविक रूप से कवि, लेखक, चित्रकार, संगीतकार, गायक, नर्तक या कोई अन्य कलाकार बनना चाहते हैं. लेकिन हम उन्हें आईटी इंजीनियर बनाने पर तुले रहते हैं. हमारे दबाव में वह हमारी योजना पर चलता तो है, लेकिन उसका स्वाभाविक विकास विकृत हो जाता है. ऐसे बहुत कम भाग्यशाली लोग होते हैं, जिन्हें अपने शौक या सहज रुझान के अनुरूप काम मिल जाता है. यानी वे जिस विषय में स्वाभाविक रुचि रखते हैं, वही उनका प्रोफेशन होता है. ऐसे बच्चे अपने व्यवसाय में बहुत ऊंची स्थिति प्राप्त करते हैं. श्रीकृष्ण की बात का आज के युग में और अधिक महत्त्व बढ़ ज्ञा है. चारों तरफ ज्ञान का प्रसार हो गया है. अनेक फील्ड्स खुल गयी हैं. ऐसी स्थिति में माता-पिता और व्यक्ति को स्वयं भी सूक्ष्मता से अपने स्वभाव का गहराई से अध्ययन करना चाहिए, जिससे यह पता लग सके कि वह किस काम को सबसे अच्छा कर सकता है. पहले ज्योतिषशास्त्री जन्मकुंडली देखकर बहुत कुछ स्पष्ट कर देते थे. लेकिना आज इस विद्या के ऐसे सटीक जानकार कम ही मिलते हैं. बहरहाल, हाल ही में एक व्यक्ति से मुलाक़ात में उसने बताया कि उसकी संस्था बच्चों के फिंगरप्रिंट्स का विश्लेषक करके यह बताने का काम कर रही है कौन  सा बच्चा किस फील्ड में आगे जा सकता है. उसकी यह सहज प्रवृत्ति, स्वभाव या प्रकृति है. यदि इस संस्था को सफलता मिलती है तो यह मानव जीवन की एक क्रांतिकारी उपलब्धि होगी. ऐसे में व्यक्ति को खुद ही अपने स्वभाव यानी धर्म का निर्धारण करना होगा, तभी जीवन से विसंगतियां ख़त्म होंगी. यही है अपने धर्म में मरना. इसीसे जीवन सफल होगा.