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अमृत महोत्सव : ये भी भारत के नागरिक हैं ?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 27 Jul

सार

फिर भी इन्हें न्याय नहीं मिल रहा है,क्योंकि, इनमें से अधिकतर गरीब और कमजोर वर्गों से जुड़े हैं| यूँ तो भारत कारोबारी सुगमता केलिए बहुत कुछ कर रहा है,  क्या इसी तर्ज पर ईज ऑफ जस्टिस यानी न्याय की सुगमता भी जरूरी नहीं है..!

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विस्तार

भारत अपनी आज़ादी की ७५ वीं वर्षगांठ मना रहा है | भारत की जेलों में लगभग ५ लाख नागरिक  बंद हैं, जिनमें कोई ३.७१ लाख तो विचाराधीन कैदी हैं| कहने को अदालतों में चल रहे मुकदमों और जेलों में बंद गरीब कैदियों की मदद के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर विधिक सेवा प्राधिकरण गठित हैं | फिर भी इन्हें न्याय नहीं मिल रहा है,क्योंकि, इनमें से अधिकतर गरीब और कमजोर वर्गों से जुड़े हैं| यूँ तो भारत कारोबारी सुगमता केलिए बहुत कुछ कर रहा है,  क्या इसी तर्ज पर ईज ऑफ जस्टिस यानी न्याय की सुगमता भी जरूरी नहीं है?

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना और अन्य जजों ने भी गरीबों को जल्द न्याय देने और कैदियों की रिहाई की बात कही है,  संविधान भी गरीब-अमीर सभी बराबर हैं की बात कहता है , तो फिर अमीरों की तरह गरीबों को भी जल्द न्याय मिलना उनका संवैधानिक अधिकार क्यों नहीं  है? संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार के तहत लोगों को जल्द न्याय मिलना जरूरी है| आज विचाराधीन कैदियों का मामला नासूर-सा बनता जा रहा है |

इस संदर्भ में इन  तीन पहलुओं को समझना जरूरी है| एक- पुलिस द्वारा बेवजह और गैर-जरूरी गिरफ्तारी| दो- थकी हुई न्यायिक व्यवस्था| तीन- अंग्रेजों के जमाने के दो शताब्दी पुरानी पुलिस जांच और फौजदारी कानून| आज भी मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर किसी भी व्यक्ति को पुलिस कब, क्यों और कैसे गिरफ्तार करे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के अनेक अहम फैसलों  की अवहेलना हो रही है | इन नियमों और कानूनों को अनदेखा कर पुलिस द्वारा मनमाने तौर पर गिरफ्तारी होती हैं | पुलिस की एफआईआर और स्टोरी पर आंख मूंद कर भरोसा कर ट्रायल कोर्ट के मजिस्ट्रेट आदेश पारित कर देते हैं| अंग्रेजों के जमाने की दो शताब्दी पुरानी पुलिस जांच और फौजदारी कानून. तकनीकी विकास के साथ कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया आम लोगों की जिंदगी का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं| सीआरपीसी कानून के तहत पुलिस जांच और साक्ष्य कानून के तहत सबूतों को जुटाने की ब्रिटिशकालीन पद्धति पर  ही चल रही  है|

इस वजह से पुलिस जांच के बाद लंबे-चौड़े आरोप-पत्र दायर करने का चलन खत्म नहीं हो रहा. इसलिए गवाहों की लंबी सूची और मोटी फाइलों के बोझ से दबी अदालतों से फैसला और न्याय की बजाय लंबी तारीख मिलती है दूसरी तरफ रईस और रसूखदार लोगों को साम, दाम, दंड और भेद के इस्तेमाल से जल्द न्याय मिल जाता है. ऐसे में न्याय के महंगा होने के साथ लोगों में असमानता भी बढ़ गयी, जिसके लिए प्रधान न्यायाधीश ने चिंता और बेचैनी जाहिर की है|

होना तो यह चाहिए था पुराने कैदी रिहा हों और नये कैदियों की आमद कम हो| इन पहलुओं से विचाराधीन कैदियों के मर्ज को दुरुस्त करने के लिए रोडमैप बनाने के साथ कई मोर्चों पर काम करने की जरूरत है| सुप्रीम कोर्ट के हाल के तीन अहम फैसलों का प्रभावी तरीके से करना हो इस मर्ज को आगे बढ़ने से रोक सकता है|

सीआरपीसी कानून की धारा ४१  के तहत संदिग्ध या आरोपी को पुलिस जांच में बुलाने से पहले नोटिस देना जरूरी है|

अगर आरोपी हाजिर होता है, तो फिर शिकायत या संदेह के आधार पर उसकी गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए| अगर नोटिस के तहत कोई व्यक्ति हाजिर नहीं होता, तो भी अदालत से वारंट हासिल करने के बाद ही गिरफ्तारी होनी चाहिए| दूसरा, सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले में दिये गये जरूरी दिशा निर्देश के अनुसार जमानत की अर्जी को दो सप्ताह में और अग्रिम जमानत की अर्जी को छह सप्ताह में निपटाना चाहिए| जो नहीं हो रहा है |

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है और लगातार हिरासत में रहने के बाद किसी का बरी होना बेहद अन्याय की बात है| सभी उच्च न्यायालयों से कहा गया है कि जमानत की शर्त पूरी करने में असमर्थ विचाराधीन कैदियों का पता लगाकर उन्हें जल्द राहत दी जाए| सजा से ज्यादा समय तक जेल में रखने के लिए कैदी को हर्जाना मिले तथा दोषी अधिकारियों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए|एक मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को तीन लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया| ऐसे मामलों में कानून और प्रशासन के साथ सिस्टम की भी खामी सामने आयी है, जिसे ठीक करने के लिए तकनीक के इस्तेमाल की जरूरत है| तब ही  विचाराधीन कैदियों को अमृत महोत्सव पर्व पर नागरिक आजादी का हक हासिल होगा|