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एएसआई की आत्महत्या से उलझा मामला

सार

हरियाणा पुलिस में सुसाइड मिस्ट्री उलझती जा रही है. पहले आईपीएस पूरन कुमार ने सुसाइड किया. अब उनके गनमेन के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच करने वाले एएसआई ने आत्महत्या कर ली है. दोनों के सुसाइड नोट से जांच की दिशा बदल गई है..!!

janmat

विस्तार

    पहले आईपीएस अफसर के सुसाइड नोट ने कई सीनियर पुलिस अफसरों की प्रताड़ना और भेदभाव के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था. एएसआई के सुसाइड नोट में उन पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए गए हैं. दोनों मामलों में एफआईआर दर्ज कर ली गई है. पहले तो आईपीएस का परिवार पोस्टमार्टम के लिए तैयार नहीं था. सात दिन उनका पार्थिव शरीर रखा रहा. फिर अदालत के हस्तक्षेप के बाद पोस्टमार्टम हो पाया तो उनका अंतिम संस्कार हुआ.

    जिस तरीके से आईपीएस के परिवार ने व्यवहार किया, लगभग वैसे ही एएसआई के परिवार ने भी सुसाइड नोट के आधार पर मृतक आईपीएस की आइएएस पत्नी और उनके रिश्तेदारों पर मुकदमा दर्ज करने और गिरफ्तारी की मांग की. एफआईआर दर्ज होने के बाद ही पोस्टमार्टम और अंतिम संस्कार हो सका. मृतक आईपीएस दलित वर्ग से हैं और मृतक एएसआई जाट समुदाय से आते हैं. हरियाणा की राजनीति में दोनों समुदाय अपना महत्व रखते हैं.

    राहुल गांधी दलित राजनीति के तहत आईपीएस की पत्नी से मिलने पहुंचे. वहां उन्होंने कहा कि, सरकारी तंत्र में संस्थागत भेदभाव का यह गंभीर मामला है. अब राहुल गांधी के सामने यह संकट खड़ा हो गया है कि, जाट एएसआई के परिवार से मिलने जाएँ या नहीं? इसमें भूपेंदर सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा की राजनीति आ गई है. एक जाट है तो दूसरी दलित.

    जाट समुदाय इस बात का विरोध कर रहे हैं कि राहुल गांधी को इस आपराधिक मामले में पार्टी नहीं बनना चाहिए था. जब एक वर्ग के साथ हो खड़े हो गए हैं तो फिर दूसरे वर्ग में नाराजगी होना स्वाभाविक है. हरियाणा सरकार को भी इस मामले से दिक्कत हो रही है. बीजेपी भी इसका जल्दी समाधान चाहती है. बिहार में चुनाव के कारण दलित और जाट का विवाद खड़ा होना नुकसान दे सकता है .

    ऐसा लगता है कि हरियाणा सरकार इन दोनों मामलों की जांच सीबीआई को सौंप सकती है. इन मामलो में प्रशासनिक प्रक्रिया अपनी जगह है लेकिन राजनीति साथ-साथ चल रही है. राहुल गांधी के दलित राजनीति के चलते बदले हालात में राज्य के कांग्रेस नेताओं के बीच टकराहट बढ़ रही है

    इस पूरे मामले में सरकारी तंत्र में जाति असमानता और भेदभाव का आरोप लगाया गया है. इसमें ट्रांसफर, पोस्टिंग और सरकारी सुविधाओं के प्रदाय में भी जातिगत भेदभाव बताया गया है. राहुल गांधी ने दलितों को मैसेज देने के लिए संस्थागत भेदभाव का आरोप जरूर लगा दिया है लेकिन उनको सरकारी कार्य प्रणाली में व्याप्त असमानता का अंदाजा नही है. 

    यह असमानता किसी जाति से नहीं है. सिस्टम में घुसने के लिए जाति का सहारा लिया जाता है लेकिन पद पर पहुंच जाने के बाद फिर दलित कार्ड केवल सुरक्षा घेरा बन जाता है. सरकारी कार्य प्रणाली ऐसी बन गई है कि तंत्र में सबसे ज्यादा भेदभाव सामान्य वर्गों के साथ होता है. इसका सबसे बड़ा कारण राज्यों में प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था है. प्रमोशन में आरक्षण को असमानता और भेदभाव पैदा करता है.

    अगर मध्य प्रदेश का ही उदाहरण लिया जाए तो शासन के सभी विभागों में ऐसी स्थितियां बनी हुई है, जहां आरक्षण का लाभ उठाकर कनिष्ठ अधिकारी सामान्य वर्ग के ऊपर वरिष्ठ बन गया है. यह केवल एक विभाग में नहीं है बल्कि निर्माण विभागों में तो इसकी भरमार है. सामान्य वर्ग में एक अधिकारी के सामने आरक्षित वर्ग का जो अफसर नियुक्त हुआ है. वही उसका सीनियर बन जाता है. इस अपमान की कल्पना राहुल नहीं कर सकते हैं कि, कोई जूनियर किसी का सीनियर बनकर उसको हर दिन अपमानजनक स्थितियों से गुजरने के लिए मजबूर करता है.

    प्रमोशन में आरक्षण देना सरकारी तंत्र में सामान्य वर्ग के लोगों के साथ संस्थागत रूप से जातिगत भेदभाव साबित करता है. 

    दलितों के साथ अगर कहीं भेदभाव दिखाई पड़ता है तो यह जरूरी नहीं है कि, यह सामान्य वर्ग के लोगों द्वारा ही किया जा रहा है. दलित वर्ग के लोगों द्वारा भी अपने ही वर्ग के अफसरों के साथ असमानता और भेदभाव आम बात है. राजनीति के द्वारा दलित और सामान्य का नेरेटिव बनाया जाता है. यह नेरेटिव सरकारी तंत्र में काम नहीं करता लेकिन प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था इस भेदभाव को संस्थागत रूप प्रदान करती है.  

    मध्य प्रदेश में लगभग नौ साल से पदोन्नति नियमों को न्यायालय द्वारा रोके जाने के कारण पदोन्नतियां नहीं हो रही हैं. सरकार ने जो नए नियम बनाए हैं, उन पर भी उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगा दी गई है. कल्पना करिए,  प्रमोशन में आरक्षण के कारण हजारों लोग बिना प्रमोशन के रिटायर हो रहे हैं. यह ना राहुल गांधी को दिख रहा है और न किसी दूसरी सरकार के नेता को. 

    सब अपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं. क्योंकि उन्हें दलित वोट बैंक पर अपनी पकड़ बनानी है. इस राजनीति के कारण सरकारी कार्य प्रणाली कितनी विकृत होती जा रही है, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है.

    वास्तव में संस्थागत भेदभाव इसे कहा जाएगा. बड़े पदों पर पहुंचने के बाद भी अगर दलित कार्ड की सुरक्षा लेना जरूरी है तो फिर असमानता को खत्म करने की संवैधानिक प्रयासों को असफल ही माना जाना चाहिए. राजनीति की बुराई के कारण हर राज्य का प्रशासकीय तंत्र विभिन्न वर्गों में विभाजित है. हर वर्ग की अपनी अपनी लॉबी है. यहां तक कि राज्यों की भी लॉबियां हैं. दक्षिण और उत्तर के बीच ब्यूरोक्रेसी बंटी दिखती है. विभाजन के इन कारणों से जो भेदभाव असमानता बढ़ती है, वह संस्थागत होती है.

    हरियाणा के दोनों सुसाइड केस की जांच एक क्लासिक केस हैं. इसमें आईपीएस,आईएएस का कन्फ्रेटेशन भी शामिल है. जाट और दलित का समीकरण भी जुड़ा हुआ है. राहुल गांधी और बीजेपी की राजनीति भी जुड़ी हुई. ऐसा कोई भी मामला राहुल गांधी के लिए तो दलित नायक बनने का मौका होता है.

    आंध्र प्रदेश में वेमुला आत्महत्या मामले में भी राहुल गांधी ने वही सब किया था, जो इस मामले में कर रहें है. जैसे ही इन घटनाओं का राजनीतिक उपयोग समाप्त हो जाता है वैसे ही उनको भुला दिया जाता है. फिर नई घटना का इंतजार किया जाता है. परिस्थितियों को सुधारने के लिए कोई भी संस्थागत प्रयास नहीं किए जाते हैं.

    सरकारी कार्यप्रणाली में जाति आधार पर संस्थागत भेदभाव समाप्त करने के लिए राहुल गांधी को ईमानदारी से काम करना चाहिए. यह भेदभाव चाहे दलित के साथ हो या फिर सामान्य वर्ग के साथ. सोशल मीडिया के इस जमाने में केवल राजनीति के लिए दलितों से प्रेम एक्सपोज होने में समय नही लगता.