राहुल गांधी के खटाखट खातों में नगद पैसे देने से आगे तेजस्वी प्रण आ गया है. बिहार के चुनावी घोषणा पत्र में कांग्रेस राजद गठबंधन ने ऐसे-ऐसे वादे किए हैं, जो मतदाता के विवेक और समझ की परीक्षा लेने वाले हैं..!!
हर आने वाले चुनाव में सत्ता के शिकारियों के झूठे वादों का फंदा कसता जा रहा है. कांटे में लगे आटे से ही मछली फंसती है. राजनेता असंभव वादों का उपयोग कांटों में आटा जैसा ही करते हैं. लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी की कांग्रेस ने हर परिवार को खातों में नगद पैसा खटाखट देने का वादा किया था. लेकिन मतदाताओं ने भरोसा नहीं किया.
अब तेजस्वी यादव हर परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने का वादा कर रहे हैं. यह नहीं बता रहे हैं कि इसमें लगने वाला धन कहां से आएगा. घोषणा पत्र में कुछ ऐसी बातें भी कही गई हैं, जो पूरे मेनिफेस्टो को ही झूठा साबित कर देते हैं. वक्फ़ कानून को रोकने का भी वायदा किया गया है. आरक्षण की पचास प्रतिशत की सीमा बढ़ाने का वादा किया गया है. जो अधिकार संसद का है, उसको राज्य के चुनाव में वादा करना ही यह साबित करता है कि मतदाताओं की बुद्धिमानी को चुनौती दी जा रही है.
राजनीतिक रूप से सबसे जागरूक बिहार राज्य के मतदाताओं को फंसाने के लिए ऐसे-ऐसे वायदे किए जा रहे हैं, जो राज्य सरकारों के प्राण लेने के लिए पर्याप्त हैं. देश का कोई भी राज्य नहीं है, जहां कर्जों से सरकारों का गला नहीं घुट रहा हो. वेतन भत्तों, पेंशन पर राज्य सरकारों की आय का पचास प्रतिशत से ज्यादा खर्च हो रहा है. फिर भी इसे बढ़ाने के वायदे किए जा रहे हैं. पुरानी पेंशन स्कीम लागू करने की घोषणा की जा रही है. इस तरह की घोषणाएं राष्ट्रीय अपराध की श्रेणी में आती हैं.
कंगाली के कारण भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के लोग कराहते हुए दिखाई पड़ रहे हैं. नेपाल में GEN_Z आंदोलन के पीछे भी आर्थिक अराजकता ही कारण रही है. श्रीलंका में भी ऐसे कारणों से तख्ता पलट हो चुका है. पाकिस्तान में तो महंगाई बेतहाशा बढ़ी हुई है. सब कुछ जानते हुए भी राजनीतिक दल सत्ता के शिकार के लिए ऐसे चुनावी वायदे करते हैं, जो कभी भी कोई भी सरकार पूरा नहीं कर सकती.
राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयास पहले से करते रहे हैं, लेकिन उन्हें अब तक सफलता नहीं मिली है. बिहार के चुनाव परिणाम यह बताएंगे, कि मतदाता का रुझान केवल लोक-लुभावन वायदे पर आधारित होगा. या नेताओं और राजनीतिक दल की विश्वसनीयता उसका आधार होगी.
अब तक का चुनावी इतिहास तो यही बताता है कि लोक-लुभावन वादो का थोड़ा बहुत असर हो सकता है, लेकिन सबसे ज्यादा असर राजनीतिक दल और नेता की विश्वसनीयता का होता है. लोकसभा में झटका खाने के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में बीजेपी की जीत यही बताती है. कांग्रेस जिन राज्यों में मुफ्तखोरी की चुनावी घोषणाओं पर चुनाव जीत भी जाती है, वहां अगला चुनाव हार जाती है. इसका उदाहरण राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश है, जहां कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना सकी.
अभी वर्तमान में कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में ऐसे वादों पर ही कांग्रेस की सरकार बनी है. लेकिन वहां सत्ता विरोधी रुझान का जो माहौल है, वह यही बताता है कि अगले चुनाव में जीतना उनके लिए कठिन चुनौती होगी.
इसके विपरीत बीजेपी की राज्य सरकारें कई चुनाव से रिपीट हो रही हैं. गुजरात में तीस सालों से बीजेपी की सरकार है. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी बीजेपी की सरकार लगातर है. बीजेपी चुनावों में प्रो-इनकमबेंसी साबित करती है. कांग्रेस का वर्तमान समय में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जिसमें उसकी कोई भी राज्य की सरकार रिपीट कर पाई हो.
नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार तीसरी बार सत्ता में है. तीनों चुनाव में कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में तमाम तरह के ऐसे ही लोक-लुभावन और मुफ्तखोरी के वायदे किए थे. जैसा तेजस्वी यादव ने अपने प्रण में किया है. बीजेपी की सरकारों का रिपीट होना देश के मतदाताओं के उस विवेक की बानगी है. जो लोक-लुभावन वादों को छोड़कर भी नेता के फेस और राजनीतिक दल के विश्वसनीयता को महत्व देता है.
तेजस्वी प्रण चुनाव में कितना असर डालेगा, इसका अध्ययन जरूरी है. राजद के पक्ष में लगभग तीस प्रतिशत मतदाताओं का जातीय समीकरण फिक्स है. मुस्लिम, यादव समीकरण उसके साथ मजबूती के साथ खड़ा है. इसके लिए किसी लोक-लुभावन वायदे की जरूरत नहीं है. उसे कुछ मिले या नहीं मिले, वह तेजस्वी यादव के साथ रहेगा. यह जानते हुए भी वक्फ़ कानून को रोकने और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू करने का वादा करके तेजस्वी यादव ने राजनीतिक भूल की है. राजद और कांग्रेस की मुस्लिम परस्ती के कारण हिंदुत्व ध्रुवीकरण भाजपा की जीत की बुनियाद बन गई है. जाने-अनजाने राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने बिहार चुनाव को इसी ट्रैक पर डाल दिया है.
राज्यों की अर्थव्यवस्था मृत अवस्था में पहुंच चुकी है. मुफ्तखोरी की ऐसी घोषणाएं उसके गले का फंदा बनती जा रही हैं. ऐसे वादों पर ऐसी बातों पर जिन राज्यों में सरकारी बनी है. वह ठीक से चल नहीं पा रही हैं.
चुनावी घोषणा पत्र को कानून की परिधि में लाना बहुत आवश्यक है. चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को इस पर विचार करना ही होगा.
सत्ता के शिकार के लिए राजनीतिक दलों के प्रण से राज्यों के प्राण पखेरू ना उड़ जाएं इसके लिए जरूरी है, कि कानून की परिधि में वित्तीय प्रबंधन के साथ ही घोषणाएं की जाएं अपनी सत्ता के लोभ के लिए मतदाता के लोभ को जगाना और भरमाना लोकतांत्रिक अपराध होता है.