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चुनाव : लोकतंत्र का अवमूल्यन क्यों?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 27 Jul

सार

कुछ सवाल खड़े हुए हैं,जवाब खोजना चाहिए। आखिर क्यों हम देश की जनता को सकारात्मक मुद्दों पर चुनाव में मतदान करने के लिये प्रेरित नहीं कर सकते?

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विस्तार

सरकार और उसके पैरोकार यह कहते नहीं थकते कि देश में विकास कुलांचे भर रहा है। भारत दुनिया की सबसे तेज गति वाली अर्थव्यवस्था हैं। अभी पांचवें स्थान पर हैं व जल्दी ही तीसरे स्थान पर होंगे। यह भी कहते हैं ये ज्ञान की सदी है, 21वीं सदी भारतीय युवाओं की है। देश चांद पर पहुंचा । मंगल के दरवाजे पर दस्तक दी। ओलंपिक में उपलब्धियां रहीं। पैरा ओलंपिक में हमारे मेडलों का सैकड़ा पहली बार आया। यही  हमारे मीडिया की सुर्खियां हुआ करती थीं। लेकिन सवाल है कि आम चुनाव के अंतिम चरण तक आते-आते देश का राजनीतिक विमर्श इतना नकारात्मक क्यों हो गया?

कुछ सवाल खड़े हुए हैं,जवाब खोजना चाहिए। आखिर क्यों हम देश की जनता को सकारात्मक मुद्दों पर चुनाव में मतदान करने के लिये प्रेरित नहीं कर सकते? अब सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, मुद्दों में नकारात्मकता व आक्रामकता क्यों है? क्यों राजनीतिक दलों के नेता आमने-सामने बैठकर अपने कार्यकाल की उपलब्धियों व भविष्य के एजेंडे को लेकर जनता से रूबरू नहीं होते? अमेरिका व अन्य विकसित देशों में शीर्ष राजनेताओं द्वारा लंबी बहसों से जनता को समझाने का प्रयास किया जाता रहा है।

आखिर अमृतकाल के दौर में पहुंचकर भी देश में मतदाता इतना जागरूक क्यों नहीं हो पाया ?है कि उसे क्षेत्रवाद, धर्म-संप्रदाय, जातिवाद और अन्य संकीर्णताएं न लुभा सकें? क्यों चुनाव आयोग की मुहिम में बरामद रिकॉर्ड मूल्य की वस्तुओं में आधा मूल्य नशीले पदार्थों का होता है? क्यों छोटे-छोटे प्रलोभनों के जरिये मतदाता बहकते हैं? कहीं न कहीं हमारे नेताओं ने देश के जनमानस को पूरी तरह लोकतंत्र के प्रति जागरूक करने के बजाय संकीर्णता के शार्टकट से अपना उल्लू सीधा करना चाहा है। 

देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है। सोशल मीडिया के जरिये समाज में जागरूकता आई है। लोग सार्वजनिक विमर्श में अखबार व अन्य मीडिया की भाषा बोलते नजर आते हैं। तो फिर वे मतदान करने क्यों  नहीं जा रहे  हैं? आखिर क्यों कहा जाता है कि फलां जगह पचास प्रतिशत या साठ प्रतिशत मतदान हुआ है? आखिर पचास प्रतिशत या चालीस प्रतिशत वोट न देने वाले लोग कौन हैं?

यहां एक तथ्य यह भी है कि यदि आम चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के लोग धर्म, सांप्रदायिकता, क्षेत्र, जाति व अन्य संकीर्णताओं का सहारा ले रहे हैं तो कहीं न कहीं एक वजह यह भी है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी लोग इन मुद्दों की तरफ आकर्षित होते हैं? कई जगह सत्ता पक्ष के खिलाफ चुनावों में नाराजगी दिखायी देती है तो जनता फिर दूसरे राजनैतिक दल को सत्ता सौंप देती है। यह उसके पास विकल्प न होने की स्थिति होती है, लेकिन फिर दूसरा दल भी उन्हीं संकीर्णताओं को अपना एजेंडा बनाकर चुनाव मैदान में आ जाता है। सवाल यह है कि किसी दल ने अपने कार्यकाल में जो उपलब्धियां हासिल की हैं क्यों नहीं उन्हें चुनावी मुद्दा बनाया जाता है? क्या दल विशेष को अपनी बखान की गई उपलब्धियों की जमीनी हकीकत का अहसास होता है? भारत एक विविधता की संस्कृतियों का देश है। हर क्षेत्र की अपनी विशेषता और जरूरतें हैं। उत्तर भारत के राजनीतिक रुझान और दक्षिण भारत के राजनीतिक रुझान में हमेशा अंतर देखा गया है। जिसका लाभ एक क्षेत्र में पिछड़ने वाला राजनीतिक दल दूसरे क्षेत्र में उठाता है। हाल के दशकों में ऐसे कद्दावर नेता कम ही हुए हैं जिनकी राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता रही हो। लेकिन देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिये जरूरी है कि सत्ता की रीतियां-नीतियां पूरे देश के मनोभावों के अनुकूल हों। राजनेताओं की कार्यशैली और घोषणाएं संकीर्णताओं से मुक्त हों। 

एक बार और यदि देश में नकारात्मक मुद्दों के आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं तो पूरी दुनिया में कोई अच्छा संदेश नहीं जाएगा। जिसका असर हमारी अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर भी पड़ेगा। यदि राजनीतिक परिदृश्य में सकारात्मकता का प्रवाह नहीं होता तो हम कैसे दावा कर सकते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बड़े लोकतंत्र का बड़प्पन हमारे राजनेताओं में भी नजर आना चाहिए और मतदाताओं में भी। यदि हम संकीर्णताओं के पक्ष में मतदान कर रहे होते हैं तो कहीं न कहीं हम कमजोर व अयोग्य लोगों को ऊंची कुर्सी पर बैठाकर लोकतंत्र का अवमूल्यन कर रहे होते हैं।