कांग्रेस के पचमढ़ी शिविर को लाइम लाइट देने वाली सबसे बड़ी खबर राहुल गांधी का पुशअप बना. ऐसा बताया गया, कि लेट पहुंचे तो सजा दी गई .जो जन्म से ही कांग्रेस का भाग्यविधाता बन गया हो, उसे सजा देने की हिम्मत पार्टी में कौन कर सकता है..!!
यह तो हैडलाइन मैनेजमेंट का कांग्रेसी इवेंट जैसा लगता है. राहुल गांधी ने प्रशिक्षण में जो मैसेज दिया वह भी गुटबंदी, नेताओं की कामचोरी, समन्वय और संघर्ष की कमी का रहा. प्रशिक्षण शिविर पॉजिटिव कितना रहा, यह तो नहीं पता लेकिन वहां से पार्टी में ओल्ड और यंग नेताओं के बीच मतभेद खुलकर सामने आए. शायद इसीलिए राहुल गांधी ने समन्वय की बात की, संघर्ष की बात की.
उनकी जंगल सफारी को भी देशव्यापी चर्चा मिली. प्रचार के अंतिम दिन बिहार में जब उन्हें जाना था, तब जंगलों में पर्यटन को प्राथमिकता दे रहे थे. चुनावी दृष्टि से एमपी के मुख्यमंत्री ने सही कही कि बारात तैयार और दूल्हा गायब जैसा राहुल गांधी प्रचार अभियान से गायब हो गए.
पचमढ़ी में दिग्विजय सिंह ने राज्य में कांग्रेस को जीतने का प्लान पेश किया. बिहार में जैसे जंगलराज पीछा नहीं छोड़ पा रहा है, वैसे ही एमपी की राजनीति में दिग्विजय सरकार का कार्यकाल कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है. बीजेपी हर चुनाव में उसकी याद दिलाती है. जब कांग्रेस उन्हीं के प्लान पर जीतने के लिए आगे बढ़ेगी, तब तो बीजेपी का एजेंडा उन्हीं पर केंद्रित हो जाएगा.
गुटबंदी कांग्रेस का डीएनए है. इसे संगठन से ज्यादा गुटों का समूह कहना उपयुक्त है. गुटबंदी हटी तो कांग्रेस घटी. पार्टी में संगठन नाम की कोई चीज नहीं है. सब कुछ नेताओं और उनके गुटों से जुड़ा हुआ है. यहां कांग्रेस का कोई सिपाही नहीं है. सब किसी न किसी नेता या गुट के सिपाही हैं. नेताओं में समन्वय ना पहले कभी था, ना आगे हो सकता है.
मुख्यमंत्री का पद एक है और कांग्रेस में हर बड़ा नेता सीएम बनना चाहता है. इसी विवाद में कमलनाथ की सरकार गई. जो नया नेतृत्व कांग्रेस में बना है, वह सारे नेता सीएम की रेस में स्वयं को सबसे आगे मानते हैं. उस रेस में संभावित नेताओं को पीछे धकेलना, नेताओं का अघोषित एजेंडा है. पुराने नेता छोड़ने को और नए नेता मानने को तैयार नहीं हैं. एसआईआर पर कोरी बातें हो रही हैं. जमीन पर कांग्रेस को बूथ लेवल एजेंट नहीं मिल रहे हैं. पार्टी में जिनके हाथ में पावर है, उनमें अक्षमता दिखती है, नाहीं दक्षता का कोई प्रदर्शन अब तक दिखा.
कांग्रेस के वोट चोरी कांग्रेस की अकर्मण्यता के कारण हो रहे हैं, इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है. कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं.
राहुल गांधी पार्टी में योग्यता को प्राथमिकता देने की बात कह रहे हैं. जहां योग्यता का सम्मान होता है, वहां ऐसी बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती. अयोग्यतावादी सोच को ही यह कहना पड़ता है, कि हमें योग्यता को प्रमुखता देनी है. कांग्रेस की योग्यता का पैमाना क्या है, जो पार्टी जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी पर विश्वास करती है, वह योग्यता के बारे में बात करने का भी नैतिक अधिकार नहीं रखती. जो सेना में भी रिजर्वेशन का सोच रखती है, उसे योग्यता की बात नहीं करनी चाहिए.
राहुल गांधी स्वयं क्या योग्यता के आधार पर कांग्रेस के भाग्यविधाता बने हुए हैं? उनको जो भी मिला है सब कुछ परिवार और विरासत के कारण मिला है. उनकी योग्यता पर कई बार कांग्रेस के सीनियर लीडर्स ने सवाल उठाए हैं. हाल ही में कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने पार्टी में मेरिटोक्रेसी लाने की बात कही है. राहुल गांधी द्वारा योग्यता की पहचान का एक बड़ा जीवंत उदाहरण असम के मुख्यमंत्री हैं.
कांग्रेस से कई प्रतिभावान नेता दूसरे दलों में चले गए हैं. शरद पंवार, ममता बनर्जी जैसे नेता कांग्रेस में ही थे, उनकी योग्यता को सम्मान दिया गया होता तो, आज वह सब कांग्रेस में ही होते. ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने के पीछे भी योग्यता को अपमानित करना ही रहा है. सुरेश पचौरी जैसे नेता जो पार्टी के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहे उन्हें भी इसीलिए पार्टी जाना पड़ा क्योंकि कांग्रेस में योग्यता के लिए कोई स्थान नहीं बचा.
अब तो कांग्रेस में जाति योग्यता है, धन प्रबंधन योग्यता है, वोट बैंक साधना योग्यता है, सनातन और हिंदुत्व को अपमानित करना योग्यता है, कांग्रेस में राजनीतिक परिवारवाद योग्यता है. मध्य प्रदेश में जितने भी नेता आज प्रमुख स्थानों पर दिखाई पड़ते हैं, सब के सब राजनीतिक परिवारों से आते हैं.
संगठन की मजबूती से राजनीति थोड़ी- बहुत चल सकती है, लेकिन सोशल मीडिया के दौर में अब मुद्दे जनमानस को प्रभावित कर रहे हैं. जनता से जुड़े मुद्दों पर कांग्रेस डिस्कनेक्ट रहती है.
ओल्ड और यंग नेताओं का ब्रेकअप एमपी में बढ़ता जा रहा है. चुनाव के करीब आते-आते यह सबाब पर होगा. राहुल पुराने नेताओं को लंगड़ा घोड़ा बताते हैं. युवाओं को आगे लाना उनका नजरिया हो सकता है, लेकिन नेतृत्व की योग्यता, क्षमता और दक्षता को तो कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पुशअप करने से हेल्थ अच्छी हो सकती है, लेकिन इसका राजनीतिक हेल्थ पर कोई असर नहीं होगा कांग्रेस का राजनीतिक हेल्थ पर कोई असर नहीं होगा.
नए पुराने के द्वंद्व में फंसी कांग्रेस बिना काम किए केवल राजनीतिक डायलॉग से चुनाव जीतने का सपना देख रही है. जनमत के मुद्दों से कटती कांग्रेस खरीदी-बिक्री की सोच से ही ग्रसित है.
दल से बगावत ही बिकने की सोच नहीं है. दल में रहकर पोजीशन का दुरुपयोग और सत्ता पक्ष से समझौते के जरिए धन प्रबंधन भी पार्टी को बेचने जैसा ही है.