प्रधानमंत्री कार्यालय पीएमओ का नाम अब सेवा तीर्थ होगा. राज्यों के राजभवन लोकभवन कहलाएंगे. लोकतंत्र में अब राजपथ नहीं होंगे. अब यह कर्तव्य पथ के नाम से जाने जाएंगे..!!
वैसे ये सारे बदलाव केवल नाम के दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनकी भावना लोक कल्याण के शुद्ध अंतःकरण से निकली है. पीएमओ का नाम बदलने की सोच निश्चित रूप से पीएम नरेंद्र मोदी की ही होगी. जो उनका कार्यालय है, कम से कम उसका नाम तो वही तय करेंगे. देश के पीएमओ को सेवा तीर्थ बनने में आजादी के इतने साल लग गए. विचार से ही बदलाव की शुरुआत होती है. अपने कार्यस्थल को सेवा तीर्थ में बदलने का सोच आना ही शासन प्रणाली में सकारात्मक बदलाव का संकेत है.
अवधारणा में तो पीएमओ और सीएमओ को शक्ति का केंद्र माना जाता है. सेवा भावना तो वहां शक्ति संतुलन पर निर्भर करती है. देश में अस्थिर सरकारों के बीच लंबे समय के बाद केंद्र में पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार काम कर रही है. गुलामी के प्रतीकों को छोड़ने की बात हमेशा मोदी करते रहे हैं. मैकाले की अंग्रेजी मानसिकता पर भी उन्होंने सवाल खड़े किए हैं. जब राजपथ को कर्तव्य पथ बनाया था, पीएम आवास को सेवन रेस कोर्स रोड से लोक कल्याण मार्ग के रूप में बदला था, तब भी यही कहा गया कि नाम बदलने से क्या होगा.
अभी भी विपक्ष पीएमओ को सेवातीर्थ बनाने पर ऐसी ही प्रतिक्रिया दे रहा है. देश के नजरिए से अगर देखा जाए तो सेवातीर्थ बनने से अचानक सब कुछ ठीक हो जाएगा ऐसा तो नहीं मान सकते. लेकिन कम से कम दृष्टि तो बदली है. एक बार सोचने का तरीका और देखने की दृष्टि बदल जाती है, तो बहुत सारी समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं. वैसे भी डिजिटल एडमिनिस्ट्रेशन से प्रशासनिक कामकाज की सोच बदली है. इससे करप्शन भी कम हुआ है, पारदर्शिता बढ़ी है, सुशासन मजबूत हुआ है.
शासन प्रणाली में भाई-भतीजावाद अभी भी चल रहा है. अकेले मोदी सब कुछ सुधार देंगे, ऐसा सोचना शायद सही नहीं है. इतना जरूर है कि उनका पॉजिटिव सोच व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए काफी है. जब भी तीर्थ शब्द का विचार आता है, तब पूजा का भाव आता है. जब अपने काम को पूजा के भाव से लिया जाता है, तभी कोई अपने कार्य स्थल को सेवातीर्थ बनाने का सोच सकता है. सब कुछ ठीक हो गया है, ऐसा तो नहीं कह सकते लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि शासन प्रणाली में सुधार आया है.
पहले जहां करप्शन की धारणा में सरकारों का पांच साल चलना भी मुश्किल हो जाता था, वहीं अब दो-तीन कार्यकाल तक सरकारें चुनकर आई हैं. अब प्रो- इन कम्बेंसी और प्रो पीपुल गवर्नेंस की शैली बढ़ रही है.
सेवातीर्थ, लोकभवन और लोक कल्याण नाम परिवर्तन में तो हिंदू-मुस्लिम की धारणा नहीं है. शहरों के जब नाम बदले जाते हैं, तब तो यह आरोप लगाया जाता है कि जानबूझकर कम्युनल पॉलिटिक्स की जा रही है. यद्यपि वह बदलाव भी इस नजरिए से आवश्यक है, कि गुलामी के प्रतीकों को जितना संभव हो छोड़ा जाए.
भारत इस समय बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है. हर क्षेत्र में बदलाव हो रहे हैं. सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा है. अयोध्या में राम मंदिर पर भगवा ध्वज लहरा रहा है. तीर्थ स्थलों पर पुनर्निमाण और जीर्णोद्धार हो रहे हैं. शिक्षा व्यवस्था में भारतीय संस्कृति और सभ्यता को महत्व मिल रहा है. चरित्र और संस्कारों को बढ़ाने की तरफ देश चल पड़ा है.
केवल नाम बदलने से सब कुछ नहीं हो जाएगा, लेकिन इससे शुरुआत जरूर होगी. शासन प्रणाली में सेवा के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा अक्षमता, जवाबदेही का अभाव और करप्शन को माना जा सकता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार भी सेवा भावना को कमजोर करता है. कोई एक नेता अगर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मिल जाए तब पीएमओ सेवातीर्थ में बदल जाता है.
करप्शन को नियंत्रित करने के लिए सिस्टम में सुधार की बड़ी आवश्यकता है. करप्शन में अपनों और परायों को भी नहीं देखा जाना चाहिए. राजनीतिक भ्रष्टाचार में अक्सर यह आरोप लगते हैं, कि, विपक्षी दलों के नेताओं को तो फंसाया जाता है. लेकिन अपनी पार्टी के साथियों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने के बाद भी अनदेखा किया जाता है.
भारत का लोकतंत्र लगातार परिपक्व होता जा रहा है. जातियों से ऊपर उठते हमारे लोकतंत्र से योग्यता आधारित सेवा भावना बढ़ाने की उम्मीद है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबकी भागीदारी महत्वपूर्ण आयाम है. सुधार भी बिना सबकी भागीदारी के संभव नहीं हो सकता. वर्तमान हालात तो इस दिशा में जा रहे हैं, कि कर्ज में लदी सरकारें नगद पैसे बांटकर चुनाव जीतने को अपनी उपलब्धि मानती हैं
अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करना सेवा भाव नहीं हो सकता. दीर्घकाल में यह समाज को नुकसान ही पहुंचाता है. किसी को पैसे देना और उसे पैसे कमाने के लिए सक्षम बनाने में जमीन-आसमान का अंतर है.
अच्छाई और बुराई दोनों छिपती नहीं हैं. आजकल के जमाने में तो कुछ भी छुपाना असंभव हो गया है. ईमानदारी भी बोलती है और बेईमानी भी. राजनीति तो आजकल सबसे ज्यादा लाभ का धंधा साबित हो रहा है. छोटे से छोटे पद पर निर्वाचित होने के बाद अचानक जो समृद्धि बढ़ती है, वह दिखाई पड़ती है. भले वक्त लगे लेकिन सेवातीर्थ की भावना नीचे तक पहुंचानी होगी. दूसरे दलों में नहीं तो कम से कम बीजेपी में ही इस भाव को स्थापित करने की कोशिश होना चाहिए.
लोकतांत्रिक प्रणाली में संविधान की पूजा की भावना से ही कार्य स्थल सेवा तीर्थ में बदल सकते हैं. सेवातीर्थ से जन सेवा के ऐसे आदर्श स्थापित होने चाहिए, जो भारत की शासन व्यवस्था के गौरव को महिमामंडित करने में सहायक हो. सन्यासी भाव से जीवन, कर्म के प्रति निष्ठा और ईमानदारी का विस्तार करता है.