मध्य प्रदेश की विधानसभा के 69 वर्ष पूरे होने पर विशेष सत्र के आयोजन के लिए वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर प्रशंसा के पात्र हैं ऐसे आयोजन हर साल हो सकते थे लेकिन पहली बार उन्होंने इस पर सोचा..!!
राज्य के विकास भविष्य की नीतियों पर चर्चा के लिए आयोजित विशेष सत्र में केवल खूबियां पर चर्चा हुई अब तक के मुख्यमंत्रियों के गुणगान हुए, राज्य के विकास के रोडमैप पर वैसे ही चर्चा हुई जैसे सदन में होती है. इसमें कोई गंभीरता दिखाई नहीं पड़ी. विरासत में केवल सब कुछ अच्छा ही नहीं होता. जो कुछ नकारात्मक है वर्तमान को सुधारने के लिए उस पर भी चर्चा जरूरी है. पिछला विशेष सत्र ‘स्वर्णिम मध्य प्रदेश’ के नाम पर आयोजित किया गया था. अब ‘विकसित मध्य प्रदेश’ के नाम से हो रहा है. केवल स्लोगन बदल गया है सोच-विचार प्लानिंग और नीतियों के निर्माण में संवाद की गुणवत्ता में अधिक सुधार परिलक्षित नहीं होता.
मध्यप्रदेश विधानसभा की परंपराएं गौरवशाली हैं. धीरे-धीरे सदन के सत्रों की संख्या घटती ही जा रही है. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व कानून का निर्माण है लेकिन बिना चर्चा के कानून पारित होना आम बात हो गई है. ना बजट पर चर्चा होती है और ना ही जनहित के विषयों पर सार्थक संवाद होता है. सरकार तो हमेशा चाहती है कि सदन में कम से कम समय जवाबदेही में खड़ा होना पड़े. विपक्ष का रोल भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. सदन के दौरान विपक्ष का स्वांग ही मीडिया में छाया रहता है.
मध्यप्रदेश विकास का मापदंडों पर काफी पीछे ही है. प्रारम्भ में प्रदेश कांग्रेस का गढ़ रहा है. आजकल भले ही बीजेपी की सरकारों का दौर हो लेकिन दो दशक पहले कांग्रेस ही राज्य की भाग्य विधाता थी. सदन में विरोधी नेताओं के लिए सदाचार की बातें असलियत नहीं हो सकती.असलियत तो चुनाव के समय दिखाई पड़ती है. जब यही प्रतिनिधि एक दूसरे को बंटाढार भ्रष्टाचारी और ना मालूम किन-किन विशेषणों से संबोधित करते हैं.
इसमें सच्चाई भी होती होगी तभी तो जनादेश में सरकारों का बदलाव होता है. सदन की गरिमा ऐसी मीठी-मीठी चर्चाओं से नहीं होगी बल्कि आचरण से ही साबित होगी .मध्यप्रदेश के विधानसभा में एक ऐसी महिला सदस्य अभी भी हैं जो जिस दल से निर्वाचित हुई हैं, उसको छोड़कर सार्वजनिक रूप से दूसरे दल में शामिल हो चुकी हैं लेकिन आज तक उनकी सदस्यता के बारे में फैसला नहीं हो सका है. ऐसे हालात सदन की गरिमा कैसे बढ़ा सकते हैं.
वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष का लंबा संसदीय अनुभव है. वह पार्टी संगठन में भी नेतृत्व प्रदान कर चुके हैं. राज्य मंत्रिमंडल के साथ ही केंद्रीय मंत्री के रूप में भी उन्होंने भूमिका निभाई उनका चिंतन संसदीय है, इसीलिए वे संवाद के संसदीय अवसर बढ़ाने की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं. इस सब के बावजूद संसदीय वाद-विवाद और संवाद की गुणवत्ता में सुधार की बेहद जरूरत है.
इतिहास और विरासत को याद रखना जरूरी है, तो उन असफलताओं और गलत फैसलों को भी जेहन में रखना आवश्यक है. जिनके कारण मध्यप्रदेश का विकास अपनी वांछित यात्रा अब तक पूरी नहीं कर सका है. इसके लिए भी पूर्व मुख्यमंत्रियों को जवाबदेह बताना होगा। जिन नेताओं को चुनाव के समय बंटाढार और भ्रष्टाचारी स्थापित करती हैं उनको सदन में राज्य के लिए उपयोगी साबित करके ना मालूम क्या संदेश दिया जा रहा है.
मध्य प्रदेश के गठन के समय जो मुख्यमंत्री बने थे उनके बारे में तो वर्तमान पीढ़ी पुस्तकों में ही पढ़ती है लेकिन आधुनिक काल में जिन मुख्यमंत्रियों को लोगों ने खुद देखा और परखा है उनके बारे में भी अगर सदन में सच नहीं बोला जाएगा तो फिर इससे सदन की विश्वसनीयता ही प्रभावित होगी. पहले भी ऐसा होता रहा है और अभी भी उसी रास्ते पर सरकारें आगे बढ़ रही है.
राज्य के आर्थिक संसाधनों को राजनीतिक हित में उपयोग करने के प्रवृत्ति रही है. पहले 'मुफ्त एक बत्ती कनेक्शन', रिक्शा चालकों को मालिकाना हक और मुफ्त झुग्गी की राजनीति से वोट तो कबाड़े गए थे लेकिन इसका राज्य के विकास पर दूरगामी दुष्प्रभाव ही देखा जा सकता है. आज राज्य का कोई भी शहर झुग्गीमुक्त नहीं हो पा रहा है तमाम सारे प्रयासों के बाद भी झग्गियों का निर्माण एक धंधा बन चुका है. अवैध कालोनियों का नियमितीकरण सरकारों का चुनावी एजेंडा रह गया है. वर्तमान में मुफ्तखोरी की योजनाएं भी इससे अलग नहीं है. जिन योजनाओं में नगद राशि हितग्राहियों के खाते में डाली जाती है उससे राज्य का समग्र विकास प्रभावित होता है लेकिन हर राजनेता राज्य के विकास के लिए चिंतित नहीं है बल्कि उसकी चिंता चुनाव में विजय है.
कागजों में विकास के रिकॉर्ड तो बहुत बने हैं लेकिन जमीन अभी भी उसकी प्रतीक्षा ही कर रही है, जिस सदन में एक दल दूसरे दल के मुख्यमंत्री की तारीफ कर रहे हैं उसी सदन के विपक्ष के नेता सदन के नेता के खिलाफ अदालतों में जाकर मुकदमे लड़े हैं. भ्रष्टाचार के कारण कुछ मुख्यमंत्रियों को अपना पद भी छोड़ना पड़ा है. सदन की यही प्रासंगिकता है कि सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधि ईमानदारी और लोकतांत्रिक ढंग से राज्य के विकास में अपने बुद्धि विवेक और ज्ञान का उपयोग करें.
पहली विधानसभा से लेकर अब तक जिस किसी ने भी राज्य के विकास में कोई मील का पत्थर रखा है, जो आज भी प्रासंगिक है तो उसको याद रखा जाएगा. यह जो तात्कालिक लाभ देने और चुनावी लाभ लेने का दौर शुरू हुआ है यह तो भविष्य में राजनेताओं के योगदान को और भी ज्यादा विस्मृत कर देगा.
विधानसभा की गरिमा सामूहिकता है. विभिन्न दलों के बीच व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं होती लेकिन राज्य के विकास के लिए दिशा दृष्टि और नीतियों का विरोध है और उसे होना ही चाहिए. जिसकी नीतियां राज्य विरोधी रही हैं उसकी आलोचना होनी चाहिए और जिसके नीतियां राज्य के विकास में कारगर रही हैं उनकी तारीफ होना चाहिए. केवल तारीफ के लिए विधानसभाका विशेष सत्र राज्य के लिए बहुत उपयोगी साबित नहीं हो सकता.