न्यायमूर्ति के फैसले के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया अपनाने की बजाय महाभियोग की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की गई है. किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग संवैधानिक प्रक्रिया है लेकिन यह किसी फैसले के खिलाफ नहीं होती. इसके लिए न्यायमूर्ति का अक्षम होना या संविधान विरोधी आचरण साबित होना जरूरी है..!!
मद्रास हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने तमिल हिंदुओं के हक में कार्तिकेय दीपम पर दीप प्रज्वलित करने के आदेश दिए. इस पर ही महाभियोग लाया गया है. तमिलनाडु की डीएमके सरकार का सनातन विरोधी स्टैंड किसी से छुपा नहीं है. वहां विधानसभा चुनाव होने हैं.
विधानसभा चुनाव में एंटी सनातन और प्रो मुस्लिम पॉलिटिक्स डीएमके के लिए विनिंग साबित हो सकती है. इसीलिए सेकुलर कांग्रेस, पीडीए वाले अखिलेश यादव और उनके गठबंधन के सहयोगियों ने अब न्यायमूर्ति के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग का प्रस्ताव दिया है. कार्तिकेय दीपम तमिल हिंदुओं का ऐतिहासिक उत्सव है. तमिलनाडु में जिस पहाड़ी पर यह पर्व मनाया जाता है उसके एक किनारे पर दरगाह है, जिसको लेकर यह विवाद पैदा हुआ है.
इसके पहले भी कांग्रेस और उसके सहयोगी कई महाभियोग ला चुके हैं, बुराई महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने में नहीं है, चिंता इस बात की है कि अगर कोई न्यायाधीश न्यायिक और संवैधानिक प्रक्रिया के अनुरूप फैसला देगा और वह किसी राजनीतिक दल के अनुयायियों कुछ स्वीकार्य नहीं होगा तो क्या ऐसे जज को महाभियोग के माध्यम से हटाया जाएगा? न्यायालय के फैसलों को भी क्या हिंदू और मुस्लिम की नजर से देखा जाएगा?
न्यायालय के फैसलों को राजनीतिक नजरिये से लेने की परंपरा पुरानी है. जब शाहबानो के केस में सुप्रीम कोर्ट ने गुजारे भत्ते का आदेश दिया था तब उसे मुस्लिम समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जा रहा था. राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने मुस्लिम दबाव में संसद में उस फैसले को बदल दिया था. कार्तिकेय दीपम का फैसला हिंदुओं के हक़ में माना जा रहा है तो वही डीएनए काम कर रहा है जो शाहबानो केस में मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए काम कर रहा था.
महाभियोग का यह मामला पूरी तरह तमिलनाडु के चुनाव से जुड़ा लग रहा है. न्यायमूर्ति महोदय ब्राह्मण समुदाय से आते हैं. डीएमके के एंटी सनातन स्टैंड में न्यायमूर्ति की जाति आग में घी का काम कर सकती है. इसीलिए इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया में अगली अदालत में जाकर चुनौती देने को प्राथमिकता देने की बजाय इसे राजनीतिक रूप से खड़ा किया जा रहा है. महाभियोग उसी का हिस्सा है. यह प्रवृत्ति भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है.
न्यायधीशों की नियुक्तियों पर राजनीति विवाद कम नहीं है. राहुल गांधी तो आरएसएस पर अदालत और संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा करने का आरोप लगाते हैं. केंद्र सरकार विरोधी यह भी आरोप लगाते हैं कि एक चौथाई जज कम्प्रोमाइज्ड हैं. अदालतें अपने भार से ही दबी जा रही हैं, उन पर राजनीतिक आरोप लगने लगेंगे तो फिर तो अदालतों की विश्वसनीयता पर संकट खड़ा हो जाएगा.
पड़ोसी देश पाकिस्तान में हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट सरकार के इशारे पर काम करते हैं. भारत में सरकारों पर लगाम लगाने की भूमिका अदालते ही निभाती हैं. राजनीतिक दल केवल राजनीति करते हैं लेकिन संविधान का संरक्षण तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कर रहे हैं.
अदालत में लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ रही है. वर्तमान में लगभग साढ़े पांच करोड़ मुकदमे पेंडिंग है. अब भी आम आदमी न्यायालय पर पूरा भरोसा करता है. अदालत के ऊपर राजनीतिक दबाव उसकी विश्वसनीयता को प्रभावित करेंगे.
देश में राम मंदिर के फैसले पर भी सवाल खड़े किए जाते हैं. वक्फ कानून के फैसले पर भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं. जमायते उलेमा हिन्द के अध्यक्ष तो यहां तक कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट तभी तक सुप्रीम है जब तक उसके फैसले न्याय और संविधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं. किसी के हक़ में फैसला नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि फैसला कानून के खिलाफ़ है.
न्यायिक सुधारों की लंबे समय से आवश्यकता महसूस की जा रही है. जजों की नियुक्ति में भी सुधार की चर्चाएं होती रहती है. लेकिन न्यायालय पर राजनीतिक महाभियोग जैसे संवैधानिक हथियार का उपयोग संविधान की आत्मा की हत्या करने जैसा है. न्यायपालिका का तो पूरी तरह से हस्तक्षेप मुक्त होना देश हित में आवश्यक है.
न्यायपालिका की ताकत को कमजोर करने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र को कमजोर करेगा. राजनीति से राजनीति टकराये यह तो संसदीय प्रणाली है लेकिन राजनीति अगर संवैधानिक संस्थाओं और अदालत से टकराये तो यह संविधान पर हमला है. अगर कोई न्यायाधीश अपने आस्था के मुताबिक तिलक या टीका लगाते हैं तो क्या उनके निर्णय को जाति और धर्म से जोड़कर देखा जाएगा?
तमिलनाडु में एंटी सनातन राजनीति डीएमके की रणनीति रही है. इस पर कांग्रेस और अखिलेश यादव भी चलने लगे हैं. यह चिंतित करने वाला है. हिंदुओं का कोई मामला हो तो इसका विरोध करने वाले भी अपने को सेकुलर कहते हैं. इससे उल्टा अगर कोई करता है तो उसे कम्यूनल स्थापित किया जाता है
वोटबैंक की राजनीति अदालतों की चौखट तक पहुंच गई है अगर इसे नहीं रोका गया तो यह राष्ट्रीय संकट का रूप ले सकता है.
कार्तिकेय दीपम फैसले के खिलाफ जो महाभियोग लाया गया है वह तुष्टिकरण का नया राजनीतिक प्रयोग ही दिखाई पड़ता है. जो राजनीति संकट के समाधान के लिए है वह खुद संकट बनती जा रही है. इस पर सामूहिक रूप से चिंतन जरूरी है. समाधान तो अदालत में मिलता है लेकिन राजनीति उस पर भी संकट पैदा कर रही है.