दीपावली को यूनेस्को द्वारा मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में शामिल किया गया है. यह केवल एक पर्व नहीं है, बल्कि भारत की आस्था, भक्ति और हमारी सांस्कृतिक विविधता का सुंदर संगम है..!!
हर भारतीय के लिए यह गौरव का क्षण है. देश की सांस्कृतिक पहचान को वैश्विक स्तर पर इससे मजबूती मिलेगी. धर्म, संगीत, कला, गणित, विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, ज्योतिष हर क्षेत्र में भारत विश्व को एक दृष्टि देता रहा है. हमारा अतीत गौरवशाली रहा है, फिर भी गुलामी की मानसिकता हावी रही है. देश इस समय गुलामी और विरासत पर गर्व के वैचारिक द्वंद्व से गुजर रहा है.
जिस तेजी से देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा है उस पर भी सहमति असहमति का राजनीतिक बाजार है. राजनीतिक कारणों से भारत की सांस्कृतिक विरासत को नुकसान पहुंचा है. वंदे मातरम देश की विरासत है. लेकिन मातृभूमि के इस राष्ट्रगीत के भी राजनीतिक कारणों से टुकड़े किए गए हैं.
दीपावली यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत की लिस्ट में सम्मिलित हुआ है, तो यह विरासत को मिल रहे महत्व के कारण ही संभव हुआ है. इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत वर्तमान में अपनी सांस्कृतिक विरासत और पुनर्जागरण के प्रति कितना गंभीर है कि पिछले एक महीने में विरासत की पुनर्स्थापना के ऐतिहासिक घटनाक्रम हुए हैं.
दीपावली और भगवान राम की विरासत जुड़ी हुई है. अयोध्या में दिव्य राम मंदिर पूर्ण हो गया है. मंदिर पर धर्म ध्वजा फहरा रही है. लंका विजय के बाद अयोध्या पहुंचने पर दीपावली मनाने की सनातन सांस्कृतिक विरासत है. अयोध्या में राम मंदिर पर धर्म ध्वजा फहराने से विश्व का ध्यान दीपावली की सांस्कृतिक विरासत पर गया. पहले तो सरकारों में गुलामी की मानसिकता इतनी हावी थी, कि दीपावली पर केवल औपचारिक संदेश निकला करते थे. अब जब यूनेस्को की विश्व विरासत वाली सूची में यह पर्व शामिल हो गया है तो इसको सुरक्षित और संरक्षित रखने के लिए सरकारी स्तर पर भी प्रयास हो सकेंगे.
दीपावली को यूनेस्को की विरासत लिस्ट में शामिल करने के प्रयास सरकारी स्तर पर ही किए गए हैं. गुलामी की मानसिकता में तो इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. विरासत पर गर्व करने वाली सरकार ही इस खुशी के क्षण पर सरकारी स्तर पर पूरे देश को विज्ञापन के जरिए जानकारी दे रही है. दीपावली की विरासत केवल एक पर्व की नहीं है बल्कि एक देश की संस्कृति की है, सनातन समाज की है, अंधकार से प्रकाश की संस्कृति का है, समृद्धि और एकता की नई शुरुआत का है.
विरासत की इस उपलब्धि पर पीएम नरेंद्र मोदी कहते हैं कि दीपावली हमें सिखाती है कि एक दीपक से हजारों दीपक जलाने पर भी मूल दीपक की रोशनी कम नहीं होती, बल्कि उसका प्रकाश फैला है. प्रकाश को विस्तारित करनेका सोच ही सबका साथ सबका विकास में समाहित है.
एक तरफ सरकार इस गर्व के क्षण पर खुशी प्रकट कर रही है, तो दूसरी तरफ जो राजनेता हर बात के लिए एक्स पर पोस्ट करते हैं, उनका ध्यान नहीं गया है. संस्कृति के प्रति ध्यान उसी का जाता है जो इसी में जीता है. सांस्कृतिक विरासत और पुनर्जागरण का अभियान 2014 में देश में आए राजनीतिक परिवर्तन से शुरू हुआ. 500 साल की प्रतीक्षा के बाद अयोध्या में राम मंदिर बना. देश के सभी तीर्थ स्थलों का विकास किया गया. वंदे मातरम के डेढ़ सौ साल पर पूरे होने पर वर्ष भव्य आयोजन प्रारंभ किए गए.
इस सबके साथ एक और संयोग पर चर्चा जरूरी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है. भारत की राजनीति पर कांग्रेस का ही दबदबा रहा है. 2014 के पहले ज्यादातर समय कांग्रेस या उनके समर्थन से ही सरकार चलती रही है. आरएसएस भारत में पक्ष या विपक्ष में राजनीति का सबसे पसंदीदा विषय रहा है. इस संगठन पर प्रतिबंध लगे भी और हटे भी.
कांग्रेस और संघ का वैचारिक द्वंद्व पहले भी था और अभी भी है. राहुल गांधी का यह सबसे पसंदीदा एजेंडा है. संघ को बिना जाने, समझे उसका प्रो या एंटी होना समझदारी नहीं है. संघ सीधे तौर पर राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करता, लेकिन सांस्कृतिक विरासत और हिंदुओं की एकता के लिए काम करता है. सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए जो भी प्रयास देश में दिखाई पड़ रहे हैं, उनके पीछे कहीं ना कहीं संघ की भूमिका जरूर है.
कांग्रेस जहां संघ का विरोध करने को अपना राजनीतिक उद्देश्य मानती है, वहीं संघ के स्वयं सेवक आज केंद्र और राज्य की सरकारों में नेतृत्व कर रहे हैं. चुनाव सुधारो पर पार्लियामेंट में हुई डिबेट में राहुल गांधी ने यह भी आरोप लगाया, कि संवैधानिक संस्थाओं पर संघ कब्जा कर रहा है.
इसके जवाब में केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि जब तक कांग्रेस की सरकार थी तो उनके विचार के समर्थक संस्थानों पर काबिज़ थे. क्या इस पर कोई रोक है कि संघ के समर्थक किसी पद पर नहीं रह सकते. जब देश का प्रधानमंत्री और गृह मंत्री संघ के स्वयंसेवक हैं तो फिर संस्थानों में संघ के विचार वालों को मौका मिलने में क्या दिक्कत है.
देश में विचारधारा के नाम पर संघ की ही विचारधारा दिखाई पड़ती है. उसकी विरोधी विचारधारा में केवल इसका विरोध ही मुख्य लगता है. अगर यह कहा जाए, कि की वर्तमान में प्रो और एंटी संघ के विचार में देश विभाजित है. तो यह गलत नहीं होगा. संविधान और लोकतंत्र जिस प्रक्रिया की अनुमति देता है, उस पर ही संघ के विचारक और प्रचारक शासन में पहुंचे हैं. किसी के विरोध अकेले से कोई विचारधारा नहीं बनती. नकारात्मकता से कोई दृष्टिकोण नहीं बनता. अगर किसी को अपना दृष्टिकोण संघ के खिलाफ़ स्थापित करना है, तो उसे सकारात्मक रूप से सेवा और चरित्र निर्माण का ही रास्ता अपनाना पड़ेगा.
संघ विरोधी विचारक दुविधा में फंसे हुए हैं. उनके विरोध के बावजूद भी संघ के दृष्टिकोण के प्रति मिल रहे देश के समर्थन का सही आंकलन जरूरी है. अगर आंकलन गलत होगा तो परिणाम भी गलत होगा. संघ और बीजेपी चतुराई से देशहित के ऐसे मुद्दे उठाते हैं, जिस पर राजनीतिक कारणों से विपक्ष विरोध करता है. वह विरोध उसे राजनीतिक नुकसान पहुंचा देता है. राम मंदिर में यही हुआ वंदे मातरम पर यही हो रहा है. घुसपैठियों और एसआईआर के मुद्दे पर भी यही हो रहा है.
किसी देश के सांस्कृतिक उत्कर्ष को कुछ समय तक बाधित किया जा सकता है, लेकिन उसे रोका नहीं जा सकता. लंबी गुलामी के बाद भी भारत की संस्कृति अगर आज प्रज्वलित है तो वह उसकी आंतरिक शक्ति है. इसको जो भी समझेगा वह ताकतवर होगा और देश का सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी अपने वैभव पर पहुंचेगा.