विधानसभा चुनाव में नामांकन पत्रों के साथ आ रहे संपत्ति के शपथपत्रों में नेताओं की संपत्तियों में बेतहाशा वृद्धि, प्रदेश की विकास दर को भी चिढ़ा रही है. अभी तक जो भी ब्योरे आए हैं उनमें ऐसा एक भी शपथ पत्र सामने नहीं आया है जहां माननीय जनप्रतिनिधि की धन-संपत्ति में गिरावट आई हो. प्रतिस्पर्धा इस पर दिखाई पड़ रही है कि किसकी संपत्ति में वृद्धि की गति कितनी तेज रही है.
ऐसे भी जनप्रतिनिधि चुनाव मैदान में हैं जिनकी पांच साल में 30 करोड़ की संपत्ति बढ़ी है. गरीबों की सेवा करते-करते जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में हो रही वृद्धि राजनीति को सबसे लाभकारी व्यवसाय के रूप में स्थापित करती दिखाई पड़ रही है. किसानों की आमदनी भले ही घट रही हो लेकिन खेती-किसानी करने वाले जनप्रतिनिधियों की आमदनी रिकॉर्ड तोड़ ढंग से बढ़ी है. जैसे खेती की लागत बढ़ रही है वैसे ही सियासत की लागत भी बढ़ी है लेकिन सियासी लोगों की आमदनी प्रभावित नहीं हुई.
कोरोना काल में जब देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है. उस दौर में भी जनप्रतिनिधियों की आमदनी कम होने की बजाय बढ़ती ही दर्ज हुई है. जनतंत्र का अजीब हाल है मालिक फटेहाल है और सेवक मालामाल है. दल कोई भी हो जनप्रतिनिधियों की धन-संपत्ति और समृद्धि की बढ़ोतरी में पक्षभेद दिखाई नहीं पड़ता है.
विधानसभा के इन चुनाव में एक भी ऐसा प्रत्याशी खोजना मुश्किल है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा हो. अधिकांश प्रत्याशी करोड़पति हैं. अरबपतियों की संख्या भी गर्व करने लायक ही है. प्रदेश की क़रीब एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन को मजबूर है. इतनी बड़ी आबादी की भूमिका लोकतंत्र के इस पर्व में केवल वोट बैंक की ही रह गई है. लोकतंत्र तब गौरवान्वित होगा जब गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी के बीच से जनप्रतिनिधि आगे आएंगे. अपने भाग्य का निर्धारण वे स्वयं करेंगे.
यह लोकतंत्र में ही संभव है कि अमीर लोग गरीबों की सेवा के लिए संघर्ष करते हुए पाए जाते हैं. गरीब-गरीब बना हुआ है. सस्ते सिलेंडर और हर महीने कुछ रुपए गरीबों की झोली में डालकर गरीबी तो नहीं मिटेगी लेकिन सियासी अमीरी दिनों-दिन बढ़ती जाएगी. बिना पैसे के चुनाव लड़ना और जीतना अब अकल्पनीय है. पहले पैसा खर्च कर पद और पॉवर हासिल करना और फिर लोकतंत्र की चक्की से पैसा निकालना आम बात हो गई है. राजनेताओं के यहां से पकड़े जाने वाले करोड़ों रुपए यही बताते हैं.
जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा, संचालित लोकतंत्र अब पैसे का, पैसे के लिए और पैसे द्वारा, स्थापित होता जा रहा है. चुनाव के लिए टिकट प्राप्त करने, बगावत, विरोध भितरघात, दलबदल, सिद्धांत और विचारधारा की तिलांजलि आदि विकृतियां राजनीति में पैसे के उपयोग और इसी से पैसा कमाने की असीम संभावनाओं में छिपी हुई है. पैसे लेकर टिकट देने के आरोप चुनाव के समय सियासत में आम सुनाई पड़ते हैं. टिकट पाने से वंचित दूसरे दल का हाथ पकड़ कर चुनाव मैदान में उतरने में घंटे भर की देर भी नहीं लगाते. पैसे का प्रदर्शन चुनाव में जीत की गारंटी बनता जा रहा है. टिकट मिलना, टिकट बदलना कुछ भी पैसे के बिना नहीं होता.
राजनीति में पैसे-पॉवर की संभावनाएं सियासी दलों में बड़े संकट के रूप में सामने आ रही हैं. पहले दौर था जब चुनाव लड़ने के लिए किसी भी दल में धन संपत्ति से सक्षम उम्मीदवारों की संख्या गिनी-चुनी होती थी. अब हर विधानसभा में हर दल में बराबरी की हैसियत रखने वाले बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं. इसी कारण प्रत्याशी चयन में तकरार और बगावत राजनीतिक दलों की बड़ी समस्या बन गई है. मध्यप्रदेश के इस चुनाव में दलबदल और बगावत कर चुनाव लड़ने वाले और निर्दलीय प्रत्याशियों के कारण नतीजों में उलटफेर देखने को मिल सकता है.
चुनाव आयोग की सख्ती के कारण चुनाव में पैसे का दुरुपयोग भले ही नियंत्रित किया जा सका हो लेकिन इसको रोकना असंभव सा है. नामांकन की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद चुनावी प्रचार अभियान जोर पकड़ेगा. इसके पहले ही करीब डेढ़ सौ करोड़ से ज्यादा की नगदी और सामान अभी तक पकड़े गए हैं. यह तो पकड़ा गया है, जो नहीं पकड़े गए हैं उसका तो कोई हिसाब ही नहीं. चुनाव में कालेधन का उपयोग आम समस्या है. हर प्रत्याशी नगदी या सामान बाँटकर चुनाव जीतने की कोशिश में रहता है. ग्राम पंचायतों और बूथों को नगद पुरस्कार और सहायता के ऐलान भी इसी तरह के प्रयासों का हिस्सा है.
चुनाव में पैसे और सामान की बंदरबाँट एकपक्षीय नहीं होती. लेनदेन बिना दो पक्षों के पूरा हो ही नहीं सकता. चुनाव क्षेत्र में हर मतदाता इससे अवगत होता है. यह कहना भी सही नहीं होगा बल्कि यही कहना उचित होगा कि ज्यादातर की तो हिस्सेदारी होती है. चुनाव में गरीबी बिकती है और गरीबी को खरीद कर अमीरी अपनी अमीरी बढ़ाने का इन्वेस्टमेंट करती है.
जब-जब धर्म की हानि होती है, तब देवदूत जन्म लेते हैं. वह वक्त कब आएगा जब राजनीति में हानि को महसूस कर इसको दूर करने के लिए सच्चे जनदूत आएंगे. बिना उद्योग के राजनीतिक उद्योगपति बने अमीरों की आर्थिक समृद्धि बढ़ती ही जा रही है. इसके बाद भी तृप्ति की अनुभूति नहीं होना जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप होता है. पद-पॉवर और पैसे की उपलब्धियों के बाद भी अगर अतृप्त ही यह जगत छोड़ना है तो फिर तो जीवन बेकार ही माना जाएगा. जनतंत्र को धन-तंत्र बनने से रोकने का वक्त आ गया है. तृप्ति की आशा का भ्रम जितनी जल्द ही टूट जाएगा उतनी जल्द ही लोकतंत्र में ईमानदारी की पुनर्स्थापना हो सकेगी.