आज देश की राष्ट्रीय आय का आधे से अधिक हिस्सा उस तबके के पास जा रहा था जिसे ‘सुपर रिच’ कहा जाता है और आधे भारतीय राष्ट्रीय आय के१३ प्रतिशत पर गुज़ारा करने के लिए मज़बूर हैं।
भारत आज अपना गणतन्त्र दिवस मना रहा है।ठंड से ठिठुरते भारत के कुछ राज्यों में यह मौसम चुनावों का है। देश के पांच राज्यों में चुनावों का शोर सुनाई दे रहा है, कोरोना दुष्काल के कारण इसके स्वर बदले हुए हैं । हर राजनीतिक दल अपनी खूबियों के बजाय प्रतिपक्षी की कमियों की ओर प्रत्यक्ष और सोशल मीडिया पर इशारा करने में लगा है। नये-नये सामाजिक समीकरण बनाये जा रहे हैं, धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण की कोशिशों में गरीबी का ज़रूरी मुद्दा कहीं खो-सा गया है।
लगभग आधी सदी पहले हर चुनाव में गरीबी सबसे बड़ा मुद्दा हुआ करता था। ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनाव भी जीते गये, और अभी यह नारा बुलंद होता है । मतदाता ने हर बार उम्मीद की कि यह सिर्फ नारा या जुमला नहीं रहेगा, पर उसकी उम्मीद आज तक पूरी नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि इस दौरान हमारी सरकारों ने इस दिशा में कुछ करना नहीं चाहा, पर हकीकत यह है कि कोशिश के पीछे उस ईमानदारी का अभाव था, जो होनी चाहिए थी। ७५ साल बाद परिणाम है पूरी दुनिया में गरीबी के जाल में फंसे लोगों की आधी संख्या हमारे भारत में है। नेता कभी हमें मंदिर-मस्जिद के नाम पर भरमाते हैं और कभी राजपथों की लम्बाई तथा मूर्तियों की ऊंचाई के नये प्रतिमानों से। आर्थिक असमानता और विषमता के प्रतिमान भी हमने स्थापित कर रखे हैं इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा।
वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम के हाल ही में हए सम्मेलन के दौरान ‘आक्सफेम’ की एक रिपोर्ट सामने आयी है, जिस पर हम भारतीयों को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। इस रिपोर्ट में कुछ आंकड़े हैं जिनका हमारे जीवन से सीधा रिश्ता है। ये आंकड़े हमारी गरीबी के संबंध में हैं। ‘आक्सफेम’ द्वारा जारी की गयी इस रिपोर्ट के अनुसार मार्च २०२० से लेकर नवंबर २०२१ तक की अवधि में भारत में साढ़े चार करोड़ से अधिक लोग ‘अति गरीबी’ की स्थिति में पहुंच गये हैं। पूरी दुनिया में जितने लोग गरीबी की इस स्थिति में हैं उसकी आधी संख्या भारत की है । हमारी स्थिति अधिकांश देशों की तुलना में कहीं अधिक चिंताजनक है। आक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में ,इस अवधि में देश के ८४ प्रतिशत परिवारों की कमाई में कमी आयी है। जहां तक बेरोज़गारी का सवाल है, शहरी क्षेत्रों में यह दर पंद्रह प्रतिशत से भी अधिक हो गयी है, स्वाभाविक है ग्रामीण क्षेत्रों में यह बेरोज़गारी और अधिक होगी। बेरोज़गारी के साथ यदि महंगाई के आंकड़े भी जोड़ दिये जाएं तो स्थिति की भयावहता और बढ़ जाती है|
आज जब हम देश के आर्थिक विकास की दिशा में बढ़ते कदमों की बात करें तो गरीबी और बेरोज़गारी की तरफ नज़र नजर जाती है । देश के प्रधानमंत्री उम्मीद का जो गुलदस्ता हम दुनिया को दे रहे हैं उसकी गंध देश के उन अस्सी करोड़ परिवारों तक भी पहुंचनी चाहिए जिन्हें कोरोना दुष्काल में मुफ्त खाद्यान्न देने की ज़रूरत देश को पड़ गयी थी। यह ज़रूरत इस बात का भी स्पष्ट संकेत है कि ‘अच्छे दिनों’ की आहट की जो बात हम करते हैं, वह अभी बहुत धीमी है।
आज देश की राष्ट्रीय आय का आधे से अधिक हिस्सा उस तबके के पास जा रहा था जिसे ‘सुपर रिच’ कहा जाता है और आधे भारतीय राष्ट्रीय आय के१३ प्रतिशत पर गुज़ारा करने के लिए मज़बूर हैं। हमारे मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग की स्थिति भी गरीबी की स्थिति से बहुत अच्छी नहीं है। इस वर्ग को राष्ट्रीय आय का लगभग एक तिहाई हिस्सा ही मिलता है। वैसे पिछले ७५ सालों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमने जो कुछ भी अर्जित किया है, उस पर हम गर्व कर सकते हैं। दुनिया को उम्मीद का जो “गुलदस्ता” देने की बात प्रधानमंत्री ने दावोस सम्मेलन कर आये हैं , उसके कुछ “गुल” हम भारतीयों के लिए भी हों ।
आज यह सवाल पूछना लाजिमी है कि यह आर्थिक स्थिति हमारी राजनीति का, हमारे चुनावों का मुद्दा क्यों नहीं बनती? चुनाव प्रचार में हमारे राजनेताओं को इस संदर्भ में कुछ कहने की आवश्यकता क्यों महसूस नहीं होती। चुनाव का सारा गणित जातियों के आधार पर चल रहा है। जाति के आधार पर टिकट बंटते हैं, जाति के आधार पर वोट मांगे जाते हैं- और वोट दिये भी जाते हैं! बढ़ती आर्थिक असमानता और सामाजिक अस्थिरता हमारी राजनीति का विषय कब बनेगी?