संविधान का बुनियादी सिद्धांत है कि जब तक किसी आरोपित को अदालत अपराधी या दोषी करार न दे, तब तक आरोपित व्यक्ति ‘मासूम’ है, ‘निर्दोष’ है, लेकिन प्रस्तावित बिल का विषय है कि कोई प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य सरकार का मंत्री 30 दिन हिरासत में रहता है, तो 31वें दिन वह संवैधानिक पद के ‘अयोग्य’ हो जाएगा। उसे इस्तीफा देना पड़ेगा अथवा बर्खास्त कर दिया जाएगा..!!
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संविधान के 130वें संशोधन वाले विधेयक लोकसभा में पेश किए। उनमें गंभीर और विवादास्पद प्रावधान किए गए हैं। दरअसल संविधान का बुनियादी सिद्धांत है कि जब तक किसी आरोपित को अदालत अपराधी या दोषी करार न दे, तब तक आरोपित व्यक्ति ‘मासूम’ है, ‘निर्दोष’ है, लेकिन प्रस्तावित बिल का विषय है कि कोई प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य सरकार का मंत्री 30 दिन हिरासत में रहता है, तो 31वें दिन वह संवैधानिक पद के ‘अयोग्य’ हो जाएगा। उसे इस्तीफा देना पड़ेगा अथवा बर्खास्त कर दिया जाएगा।
इन प्रावधानों को विपक्ष ने संविधान-विरोधी, न्याय-विरोधी और मौलिक अधिकार-विरोधी करार दिया है, लिहाजा कुछ विपक्षी सांसदों ने बिल की प्रतियां फाड़ी हैं और उन्हें सत्ता पक्ष की तरफ फेंका है। इसे ‘राक्षसी बिल’ भी करार दिया गया है। गृहमंत्री की दलील है कि यह बिल सरकार और राजनीति में नैतिकता और शुद्धिकरण के मद्देनजर लाया गया है। यह अद्र्धसत्य है, क्योंकि भाजपा में ऐसे कई नेता शामिल किए गए, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे, लेकिन बाद में एजेंसियों ने उन्हें धूमिल कर दिया। ऐसे नेता मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक हैं। बहरहाल संसद में हंगामे और विरोध को देखते हुए संविधान संशोधन बिल संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजने की घोषणा की गई। समिति में 21 सांसद लोकसभा और 10 सांसद राज्यसभा के होंगे। बेशक अधिक सांसद सत्ता पक्ष के होंगे, लिहाजा बुनियादी बिल में ज्यादा संशोधनों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
जेपीसी को संसद के शीत सत्र के पहले दिन तक रपट सौंपने को कहा गया है। विषय का विश्लेषण करने से पूर्व एडीआर की रपट गौरतलब है कि 2024 के संसदीय चुनाव में जो सांसद लोकसभा के लिए चुने गए थे, उनमें से करीब 46 फीसदी पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 2009 में यह औसत 30 फीसदी था। सर्वोच्च अदालत के ‘न्यायालय मित्र’ ने उसे बताया है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ करीब 5000 आपराधिक मामले अब भी लंबित हैं। इस डाटा के मद्देनजर भी ऐसा संविधान संशोधन बिल संसद में पेश करना अपेक्षित और स्वीकार्य नहीं है। दरअसल केंद्र और राज्य सरकारों की अलग-अलग भूमिकाएं संविधान में तय की गई हैं।
उनके अधिकार भी तय किए गए हैं। संघीय ढांचे पर आघात नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार ‘पुलिस स्टेशन’ की भूमिका में नहीं आ सकती। संभव है कि बिल बनाते हुए दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल का उदाहरण केंद्र सरकार और अधिकारियों के मानस में रहा होगा! केजरीवाल को 177 दिन तक जेल में रखा गया। उनके खिलाफ न तो आरोप अदालत में तय हुए और न ही किसी अदालत ने उन्हें ‘दोषी’ करार दिया। ऐसे कानूनों में संशोधन किया जाना चाहिए।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को 5 माह तक जेल में बंद रखा गया। अंतत: उन्हें जमानत मिली, लेकिन आज तक उनके खिलाफ कोई भी आरोप साबित नहीं किया जा सका है। दिल्ली सरकार के मंत्री रहे सत्येन्द्र जैन को 2 साल से अधिक समय तक जेल में रखा गया। अंतत: सीबीआई ने उनके मामले में क्लोजर रपट अदालत में पेश की और जैन को बिल्कुल बरी कर दिया गया। इन जेलबंद नेताओं की ‘निर्दोषता’ की भरपाई कौन करेगा?
केजरीवाल ने जेल में रहते हुए मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ा और जेल से ही सरकार चलाते रहे। संविधान में ऐसी व्याख्या ही नहीं है कि जेल में रहने वाले मुख्यमंत्री और मंत्री को इस्तीफा देना चाहिए अथवा राज्यपाल द्वारा उन्हें बर्खास्त करना चाहिए। सरकार ने प्रस्तावित बिल में प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री को भी जोड़ा है। यह ड्रामा है। सवाल है कि कितने प्रधानमंत्री 30 दिन तक हिरासत में रखे गए हैं? प्रधानमंत्री रहते हुए पीवी नरसिम्हा राव को अदालत ने ‘अभियुक्त’ करार दिया था। उन्हें जेल क्यों नहीं भेजा गया? इंदिरा को जेल जाना पड़ा। कानून लागू हो जाता है, तो किसी भी विपक्षी दल की सरकार ढहाई जा सकती है।