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एक तरफ नैतिकता, दूसरी तरफ नीयत पर सवाल

सार

केंद्र की मोदी सरकार फिर एक बार ऐसा कानून लेकर आई है, जिस पर पक्ष-विपक्ष में टकराहट दिखाई पड़ रही है. गृहमंत्री अमित शाह ने संविधान में 130वें  संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया है..!!

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विस्तार

    इस विधेयक में ऐसा प्रावधान किया गया है कि, पीएम, सीएम, केद्रीय मंत्री और राज्य मंत्री अगर किसी ऐसे अपराध, जिसमें न्यूनतम पांच वर्ष की सजा है, जांच प्रक्रिया में तीस दिनों तक न्यायिक हिरासत में जेल में रहते हैं तो 31वें दिन उनका पद स्वमेव ही चला जाएगा. 

    अभी तक सांसदों और विधायकों के लिए ऐसा कानून है कि, अगर किसी आपराधिक मामले में  दो साल की सजा होती है तो उनका पद स्वतः समाप्त हो जाएगा. मानहानि के मामले में दो साल की सजा होने पर इसी कानून के तहत राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त हुई थी. जो बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाये जाने के बाद बहाल हुई थी.

    जब संसद में यह संविधान संशोधन पेश किया गया तब विपक्षी सांसदों द्वारा किया गया आचरण बेहद निराशाजनक था. विधेयक की प्रतियाँ फाड़ कर गृहमंत्री पर उछाली गई और नारेबाजी की. विधेयक पेश करने का यह कहते हुए विरोध किया गया कि, यह काला कानून है. इसके माध्यम से सरकार विपक्ष की सरकारें गिराने का काम करेगी. फिलहाल यह बिल जेपीसी को चला गया है. जेपीसी की अनुशंसाओं के बाद फिर से सदन में पेश किया जाएगा.

    सरकार की प्रतिबद्धता को देखते हुए ऐसा माना जा सकता है कि यह बिल पास हो जाएगा. जन भावनाओं की दृष्टि से इस विधेयक को लाने के लिए पीएम मोदी और केंद्र सरकार को सराहना मिल रही है. इस कानून की आवश्यकता तब महसूस की गई जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले में जेल चले गए थे. लोकतांत्रिक नैतिकता के नाते उन्हें अपना पद छोड़ना चाहिए था, लेकिन केजरीवाल ने जेल से सरकार चलाने की अनैतिकता की थी. 

    जेल में होने के कारण उन्हें सीएम पद से हटाने के लिए हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट में याचिकाएं लगाई गई थीं, लेकिन उच्च अदालतों ने यह कहकर कुछ भी राहत देने से इनकार कर दिया था कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि, जेल में रहने पर किसी मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देने की अनिवार्यता हो.

    निर्माताओं ने संविधान में इस तरह का प्रावधान की कल्पना शायद इसलिए नहीं की होगी कि, भविष्य में कोई ऐसी पीढ़ी लोकतंत्र में आएगी जो ऐसी अनैतिकता करेगी. चोरी और सीना जोरी राजनीति का ट्रेंड बन गया है. गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं, जनता तय करें कि, क्या जेल में रहकर सरकार चलाना सही है.

    मोदी सरकार शुचिता की बात कर रही है. राजनीति में नैतिकता के लिए इस संविधान संशोधन को जरूरी बता रही है. दूसरी तरफ विपक्ष सरकार की नियत पर सवाल उठा रहा है. विपक्षी नेताओं का कहना है कि, यह काला कानून विपक्षी सरकारों को अस्थिर करने के लिए लाया गया है. विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा हम इस दौर में जा रहे हैं, जहां राजा मर्जी से किसी को भी हटा सकता है. निर्वाचित प्रतिनिधि की अवधारणा ही नहीं बची. आपका चेहरा पसंद नहीं है तो ईडी, सीबीआई से केस कर दिया. तीस दिन में लोकतांत्रिक तरीके से चुना व्यक्ति खत्म.

    बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती है कि, यह बिल सुपर इमरजेंसी से भी अधिक खतरनाक है. यह हिटलर शाही लोकतंत्र को कुचल देगी. तमिलनाडु के सीएम स्टालिन, केरल के सीएम विजयन ने कहा, यह बिल विपक्ष को डराने और लोकतंत्र खत्म करने के लिया ही लाया गया है. 

    विपक्ष को इस एक्ट के गलत प्रयोग का डर है. सत्ता पक्ष इसे सुचिता बता रहा है. विपक्ष की आशंका निर्मूल भी नहीं है, लेकिन किसी भी कानून के दुरुपयोग की संभावना को देखते हुए क्या कानून ही नहीं बनाए जाना चाहिए. जिस एजेंसी ईडी और सीबीआई के दुरुपयोग की बात की जा रही है, उन एजेंसियों का गठन बीजेपी सरकार द्वारा तो नहीं किया गया है. अब अगर इनका दुरुपयोग हो रहा है तो क्या इनको समाप्त कर देना चाहिए.

    अगर कोई दुरुपयोग होगा तो भारत में न्याय व्यवस्था में उसका निदान संभव है. कौन सा कानून है, जिसका दुरूपयोग नहीं हो रहा है. चाहे एससी, एसटी एक्ट, दहेज उन्मूलन का कानून है या कोई अन्य कानून, सभी कानूनों से जुड़ी दुरुपयोग की शिकायतें हैं. गलत प्रयोग के डर से कानून ही नहीं बनना चाहिए. यह बात लोकतंत्र विरोधी है.

    विपक्षी सांसदों का यह प्रयास होना चाहिए कि, इसमें इस तरह के संशोधन किया जाए ताकि दुरुपयोग की संभावनाएं न्यूनतम रहे. राजनीति में इतनी नकारात्मकता लोकतंत्र के लिए हानिकारक है.ऐसे कानूनी उपाय का तो स्वागत किया जाना चाहिए. पीएम स्वयं इस कानून के अंतर्गत शामिल हैं. शासकीय अमला लोक सेवक के रूप में शासन के कंडक्ट रूल अंतर्गत अगर पचास घंटे जेल में रह लेता है तो उसे निलंबित कर दिया जाता है. मुख्यमंत्री और मंत्री भी लोक सेवक हैं. जब दूसरे लोक सेवकों के लिए ऐसा प्रावधान है तो फिर राजनीति के लोक सेवकों के लिए ऐसा प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए.

    इस कानून के राजनीतिक फालआउट तो बाद में दिखाई पड़ेंगे लेकिन अभी तो बिल सदन में पेश होने के साथ ही राजनीति शुरु हो गई है. चोरी हो जाने के बाद चोरी-चोरी चिल्लाने से ज्यादा चोरी रोकने की पुख्ता व्यवस्था बेहतर उपाय है. देश का नागरिक भ्रष्टाचार से त्रस्त है. उसे अभी तक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी कंक्रीट एक्शन दिखाई नहीं पड़ता. 

    केवल तुलनात्मक रूप से राजनीति में कुछ चेहरे हैं, जो ईमानदारी का भरोसा दिलाते हैं. पीएम नरेंद्र मोदी ऐसा ही चेहरा है. प्रस्तावित नया कानून राजनीतिक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कारगर साबित हो सकता है. एक तरफ नरेंद्र मोदी के लिए वोट चोर का नारा और दूसरी तरफ पीएम के पद को ही नए कानून में शामिल करना जनता के सामने है. 

    नैतिकता और नियत दोनों अदृश्य है. दृश्य तो कानून है. अदृश्य के लिए दृश्य को रोकना लोकतंत्र की मर्यादा को नुकसान पहुंचाएगा.