हरियाणा के आईपीएस अफसर की आत्महत्या इंसानियत की त्रासदी है. यह अफसर दलित वर्ग से आते थे. उनकी पत्नी भी सीनियर आईएएस ऑफिसर हैं. उनके सुसाइड नोट में जातिगत भेदभाव और असमानता के लिए कई सीनियर अफसरों को दोषी बताया गया है..!!
उन सभी अफसरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गई है. पुलिस जांच हो रही है. पूरे घटनाक्रम में जितने तरह के आरोप-प्रत्यारोप हैं, सब कानून के दायरे में लाये जाएंगे. दोषियों को सजा भी मिलेगी. आईपीएस पति और आईएएस पत्नी के परिवार को कम से कम आम दलित के रूप में संबोधित कर भेदभाव की बात सोचना सामान्य नहीं है.
घटना दुखद है. इसको कानून की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए लेकिन कोई मौत हो और गिद्ध न मंडराए ऐसा तो संभव नहीं होता. राजनीति के गिद्ध शव के अंतिम संस्कार होने के पहले ही विभाजनकारी जहर फैलाने लगे. इसमें सबसे आगे विपक्ष के नेता कांग्रेस के भविष्य राहुल गांधी हैं.
राहुल गांधी जो स्वयं को जनेऊधारी बताते हैं. उनकी सोच के मुताबिक जनेऊधारी मतलब, मनुवादी. इस पैमाने पर वह स्वयं मनुवादी होते हैं. लेकिन राजनीति के लिए वह सबसे बड़े दलितवादी और जातिवादी बन जाते हैं. राहुल गांधी की एक्स पोस्ट कहती है कि, हरियाणा के आईपीएस अधिकारी वाय. पूरन कुमार की आत्महत्या उस गहराते सामाजिक जहर का प्रतीक है जो जाति के नाम पर इंसानियत को कुचल रहा है.
राहुल गांधी को मौका मिला तो उन्होंने अपनी दलित राजनीति के लिए सीजेआई के अपमान मामले को भी जोड़ दिया.
राहुल गांधी इन घटनाओं के लिए बीजेपी आरएसएस की नफरत और मनुवादी सोच के कारण समाज में पनपे विष को मानते हैं. उनका कहना है कि दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम न्याय की उम्मीद खोते जा रहे हैं.
राहुल गांधी इन घटनाओं से पीड़ित परिवारों से ज्यादा इसलिए चिंतित दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें दलित वोट बैंक की फिक्र है. वर्ष 2014 के बाद जैसे-जैसे देश के सभी वर्गों और जातियों का समर्थन बीजेपी के साथ जुड़ता गया, कांग्रेस लोकतांत्रिक मैदान में कमजोर होती गई. वैसे-वैसे राहुल गांधी की जातिवादी आक्रामकता बढ़ती गई.
कोई भी घटना भले वह व्यक्तिगत हो, उसमें कोई राजनीतिक दृष्टिकोण ना हो लेकिन ऐसी घटनाओं को लेकर वह देश में विभिन्न समुदायो के बीच विभाजन का खेल शुरु कर देते हैं.
कोई निजी तौर पर जातिगत असमानता की सोच रख सकता है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक जीवन में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसी सोच रखकर सफल नहीं हो सकता है. राजनीतिक दल के रूप में बीजेपी ने सभी वर्गों में अपने जनाधार को बढ़ाया है, यही राहुल गांधी की सबसे बड़ी समस्या है. जो कांग्रेस कभी मानती थी कि दलित, आदिवासी उनकी पार्टी के वोट बैंक है, वह सब छिटक गए तो फिर अब कांग्रेस के सामने विभाजन की राजनीति के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा.
सबसे पहले जाति जनगणना के नाम पर जाति राजनीति चालू की. जब केंद्र सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला किया तब उनका यह अस्त्र भी फेल हो गया. अब वह अपराधिक घटनाओं को आधार बनाकर अपना जनाधार बढाने और देश को तोड़ने के अभियान में जुट गए हैं.
सामाजिक विभाजन घट रहा है. समरसता बढ़ रही है. सार्वजनिक रूप से जाति आधारित भेदभाव लगभग समाप्त हो गया है. अब तो इसको बढ़ाने का काम राजनीतिक क्षेत्र में ही हो रहा है. कभी आरक्षण के नाम पर लोगों को भरमाया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय के कानून के तहत निर्धारित आरक्षण की सीमा को हटाने की बात भी इसी विभाजनकारी सोच का उदाहरण है.
चाहे बीजेपी हो या संघ, जो भी सार्वजनिक जीवन में काम कर रहे हैं, वह बिना सभी वर्गों के समर्थन के सरवाइव नहीं कर सकते. दलितों का तो बड़ा समूह है. उनके साथ भेदभाव की राजनीतिक सोच किसी भी राजनीतिक दल के बस की बात नहीं है. जहां तक व्यक्तिगत स्तर पर शासकीय तंत्र में किसी अफसर के साथ जाति आधार पर भेदभाव का सवाल है, ऐसा संभव है.
हर बार यह कहना भी सही नहीं है, यह भेदभाव मनुवादी ही करते हैं. कई बार तो शोषित वंचित वर्गों के लोग ही एक-दूसरे के खिलाफ भेदभाव करने के दोषी पाए जाते हैं.
विभाजनकारी हेट स्पीच का जहर राजनीति से ही फैल रहा है. एक-दूसरे पर आरोप लगाने के लिए दोनों तरफ से ऐसा जहर समाज में फैलाया जाता है. सामाजिक बुराई पर नियंत्रण सियासत का काम है लेकिन यह इसके उल्ट उन्हीं बुराइयों में अपनी सफलता तलाशती दिखाई पड़ती है.
बटेंगे तो कटेंगे राहुल गांधी के विभाजनकारी अभियान का ही जवाब लगता है. राजनीति का चेहरा इतना दागदार हो गया है कि अब तो आम लोगों में इसके प्रति घृणा का भाव पैदा हो रहा है.
मध्य प्रदेश में ओबीसी रिजर्वेशन के सर्वदलीय प्रयास हुए लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का मौका आया तो सभी पक्ष तारीख पर तारीख मांगने लगे. राजनीति का नजरिया केवल चुनावी लाभ है. इसके लिए कोई मरे या कोई कितनी ही तकलीफ उठाए, उससे सियासत को कोई फर्क नहीं पड़ता.
किसी घटना पर राजनीति पहले शुरु होती है या घटना के बाद यह भी समझना मुश्किल हो जाता है. अब तो लगता है राजनीति की रोटी ही विभाजन और दूसरे का घर तोड़कर अपना घर बनाने पर टिकी हुई है.
अपने आईपीएस पति को न्याय दिलाने के लिए उनकी आईएएस पत्नी सक्षम हैं. राहुल गांधी और विपक्ष की राजनीति से इस न्याय में बाधा ही पहुंच सकती है.