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लकीर से बंधी फ़क़ीर जनता 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 16 May

सार

जनता भी तो  एकदम नई चीज पसंद करती है। इन दिनो राजनीति में कुछ नया दिखता है तो जनता एकदम से दीवानी हो जाती है, चुनावों का मौसम है तो नई-नई गारंटियां दी जा रही हैं..!!

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विस्तार

यह बाजारवाद का दौर है, राजनीति और चुनाव भी उसकी छाया से कैसे मुक्त हो सकते हैं। जनता भी तो  एकदम नई चीज पसंद करती है। इन दिनो राजनीति में कुछ नया दिखता है तो जनता एकदम से दीवानी हो जाती है। चुनावों का मौसम है तो नई-नई गारंटियां दी जा रही हैं। पुरानी गारंटियां जनता भूल रही हैं, इसलिए पुरानी गारंटियां कैंसिल हो रही हैं और नई गारंटियां ध्यान आकर्षित कर रही हैं। जनता अब 10 गारंटियां भूल चुकी है। उसे बस इतना याद है कि गोबर खरीदने की बात हुई थी और गोबर के ढेर लगे हैं, लेकिन सरकार ने सत्ता में आने के बाद इस मामले में  कुछ नहीं किया। 

गोबर वालों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, इसलिए नई गारंटियां चुनावी घोषणा पत्र में परोस दी गई हैं। इसमें रोजगार की बात नहीं है। महंगाई की बात नहीं है। पारदर्शी प्रशासन की बात नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं की बात नहीं है। कानून व्यवस्था की बात नहीं है। सिर्फ एक ही वादा किया गया है कि जो बिक गए हैं, वे सलाखों के पीछे डाले जाएंगे। बिकने वाले क्यों बिक गए, इस पर घोषणा पत्र खामोश है। कुछ दल धर्म को भी घोषणा पत्र में घसीट कर ले आए हैं, ताकि जनता को लगे कि अगर धर्म खतरे में हुआ तो देश भी खतरे में होगा। सबका अपना अपना एजेंडा है, लेकिन सबका एक ही फंडा है कि कैसे जनता के वोट जुटाए जाएं और फिर कैसे जनता को दरकिनार किया जाए।

सरकार मानती है यदि जनता के बीच में रहेगी तो  खतरा रहेगा। जनता पूछती रहेगी कि वायदों का क्या हुआ और गारंटियां कहां गई? जो दूरदर्शी राजनीतिक दल होते हैं, वे जनता को फालतू के मसलों में उलझा कर रखते हैं ताकि मतलब के मसले पर जनता का ध्यान न जाए। जनता का ध्यान कहीं और होगा तभी  तो सत्तारूढ़ दल अपना ध्यान अपने निशाने पर केंद्रित कर सकेगा। लेकिन जनता का ध्यान भटक गया तो सत्तारूढ़ दल का मिशन भी भटक जाएगा। खैर बात हो रही थी गारंटी की। इसलिए सत्तासीन दल ने पहले तय किया कि अब पुरानी गारंटियों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए नई गारंटियां दी जाएंगी। इनमें चरणबद्ध ढंग से लोगों को सपनों की सैर कराने का वायदा किया जाएगा ताकि सपने में पहुंच कर लोग अपने देश को देखें तो उन्हें विकास के तुलनात्मक अध्ययन करने का मौका ही न  मिले । निश्चित रूप से देश में विकास के अर्थ अब तक कहाँ परिभाषित हुए है । कहां पानी होगा कहाँ नहीं होगा, बिजली नहीं होगी, सडक़ें नहीं होंगी। इससे सत्तारूढ़ दल के नेताओं को यह प्रचार करने का मौका मिल जाएगा कि विकास में आगे हैं। कुछ नेता पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का उदाहरण देकर कह रहे हैं कि हम उनसे आगे हैं।

जनता इन बातों से बहुत खुश होती है। उन्हें लगता है कि हमारे देश के मुकाबले में पाकिस्तान की तो लुटिया डूब रही है। इससे जनता को गौरवान्वित होने का मौका मिलता है। जनता गौरवान्वित होती रहे, इससे बढक़र चकाचक गारंटी और क्या हो सकती है? इसलिए यह गारंटी जनता के बीच में आकर्षण का केंद्र बन रही है। 

ख़ास बात -चुनाव में कौन कितने में बिका, इस बारे में जनता फालतू में सोच कर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहती। जनता को लगता है कि बाजारवाद का दौर है। इसमें हाईकमान भी खरीदा जा सकता है। हाईकमान का क़ब्ज़े में होना किसी भी दल के नेता जी के लिए अपने करियर में आगे बढ़ाने की सबसे बड़ी गारंटी है। यही गारंटी सर्वोपरि है। नेताजी यही गारंटी दे रहे हैं। इसलिए उनका डंका बज रहा है। जनता के बीच में यही मैसेज जा रहा है कि नेताजी की गारंटी पत्थर पर खींची लकीर होती है। नेताजी मानते हैं कि जनता लकीर से बंधी फकीर होती है।