आज की उपभोक्ता संस्कृति में बाजार के रणनीतिकार गिद्धिदृष्टि संपन्न होते हैं..!
आज की उपभोक्ता संस्कृति में बाजार के रणनीतिकार गिद्धिदृष्टि संपन्न होते हैं। ग्राहक के अवचेतन मन में क्या चल रहा है उसे पल भर में भाँप लेते हैं। विवाद भी किसी उत्पाद का विपणन कर सकता है इसका हुनर वे जानते है।
हाल ही एक बाडी स्प्रे के विज्ञापन ने इतना विवाद पैदा किया कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने उसपर तत्काल रोक लगा दी। यदि यह विवादित न होता तो शायद मैं ही इस प्रोडक्ट के बारे में न जान पाता।
मेरे जैसे लाखों होंगे जिनमें इस विवाद ने उत्पाद को जानने की जिग्यासा पैदा की होगी। खास बात यह कि सरकार ने उत्पाद के विज्ञापन पर रोक लगाई है न कि उत्पाद पर। सो इसलिए वह रणनीतिकार अपने उद्देश्य में सफल रहा।
विज्ञापन की दुनिया अपने हनीट्रेप में बड़े-बड़ों को फाँस लेती है। दुनियां भर की लानत मलानत के बाद भी अजय देवगन उस गुटखा को अपनी फिल्मों के मुकाबले ज्यादा तन्मयता से बेचने में लगे हैं जिस गुटखा को मुँह के कैंसर का बड़ा कारण माना जाता है।
सो काल्ड बिग-बी से लेकर तमाम फिल्मी हीरो-हीरोइनें वह सब माल बेच रहे हैं जिसका वे व उनकी आल औलादें कभी जीवन में उपयोग नहीं करते।
इधर हमारे बच्चे उस कोल्ड ड्रिंक्स के लिए मचल जाते हैं जिससे बाबा रामदेव अपना संडास धोते हुए बताते हैं कि यह ड्रिंक्स तो किसी टायलेट क्लीनर से भी खतरनाक है.. अरे पीना है तो बेल का शर्बत पियो, आँवला-एलोवेरा जूस का सेवन करों, अँग्रेजी चिकित्सा और दवाइयों से दूर रहो, शतायु बनो।
पर इधर उनपर या उनके सखा आचार्य बालकृष्ण की तबीयत पर जब बन आती है तो वे स्वयं अत्याधुनिक हास्पिटल में भर्ती होते हैं, ईसीजी करवाते है, इंजेक्शन ठुकवाते हैं।
बाजार के पैतरे बड़े विचित्र होते हैं वहाँ अदा के साथ जहर भी बिक जाता है। एक बड़े शहर में प्वाइजन नाम का रेस्टोरेन्ट है जो युवाओं में बहुत लोकप्रिय है। सो यह विज्ञापन की मायावी दुनिया है जो गजब का तिलस्म रचती है और लोग ऐसे फँसते हैं जैसे फ्लाईकैचर में मख्खी।
इन सबके बावजूद कई विज्ञापनों के स्लोगन बड़े प्रेरक होते हैं। हम प्रायः इन्हें बाजारू समझकर अपने विमर्श से दूर ही रखते हैं, जबकि एक पंक्ति के कुछ शब्द इनके निबंधों, कविताओं पर बहुत भारी पड़ते हैं।
इन स्लोगन्स की ये पंच लाइनेंं बाजार के लिए लोगों को जगाने के लिए मंत्र का काम करती हैं वहीं निबंध और कविताओं के पन्ने पुड़िया बनाने के काम आते हैं।
पत्रकारिता का छात्र और अध्यापक होने के नाते विज्ञापनों की संचारी शक्ति के बारे में हमेशा से जिग्यासु रहा हूँ।वास्तविकता यह है कि पत्रकारिता जहां खत्म होती है वहां से विज्ञापन कला शुरू।
यह भी कम दिलचस्प नहीं कि बाजार और ग्राहकों के लिए कुछ शब्दों में प्रभावशाली पंच लाइनेंं लिखने वाले वैसे ही ओझल रहते हैं जैसे कि कभी दरियागंज में लुगदी साहित्य लिखकर गृहस्थी का खर्चा चलाने वाले कमलेश्वर जैसे बड़े साहित्यकार।
यह कम लोगों को पता होगा कि सत्यजीत राय जैसे महान फिल्मकार ने विज्ञापनों के स्लोगन लिखे और उसे डिजाइन किया। आईटीसी की सिगरेट के विज्ञापन हेतु कंपनी ने उन्हें ताउम्र अनुबंधित कर रखा था।
आज वह स्थित नहीं। प्रसून जोशी और पियूष पांडे जितना अच्छा विज्ञापनों के नारे रच रहे हैं उतना ही अच्छी कविताएं और गीत। नामचीन शायर जावेद अख्तर भी विज्ञापनों की दुनिया रमे हैं।
विज्ञापनों की कई पंच लाइनें मुझे अभी भी झकझोरती और प्रेरित करती हैं। अस्सी के दशक में हाँटशाट कैमरे के प्रचार का स्लोगन था 'जस्ट ऐम एन्ड शूट'। करियर बनाने वाले युवाओं के लिए इससे प्रेरक पंक्ति और क्या हो सकती है।
एक घटिया सिगरेट का विज्ञापन कितना आत्मविश्वास जगाता है। 'आई गेट व्हाट आई वान्ट' माने कि- जो मैं चाहता हूँ वह पाकर ही रहता हूँ।
एक औद्योगिक घराने के ब्रैंड का ब्रह्मवाक्य है - 'नो ड्रीम टू बिग' कोई सपना इतना भी बड़ा नहीं होता जिसे हम पूरा न करें। सही बात, इस औद्योगिक घराने के मालिक ने सबइंजीनियरी छोड़ी ठेकेदारी शुरू की। एक दशक के भीतर ही वे सीमेंट के टाइकून हो गए, हायडल, डैम, एक्सप्रेस वे, रियलस्टेट के महाराजा।
सचमुच उन्होंने सपने को यथार्थ में बदलकर दिखा दिया। यह अलग बात है कि यथार्थ को स्थाई और निरंतर नहीं बना पाए। सपना भले ही खंडित हो गया हो पर एक नजीर तो बन ही चुका है, वे और उनका साम्राज्य।
पिछले साल यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर का भ्रमण कराने वाली मोहतरमा मादी शर्मा ने समोसे बेंचकर करियर की शुरुआत की थी। ऐसा उन्हीं ने एक इंटरव्यू में बताया। वे और उनकी कंपनी 'माडीग्रुप' अब दुनिया की प्रभावशाली लायजनिस्ट और लाबिस्टहैं। किसके दम पर..? विज्ञापन की तिलस्मी ताकत के दम पर।
जहाँ राजनय से काम नहीं निकलता वहां अनुनय की कला से काम सध जाता है मादी मैडम ने इस मंत्र को जगा लिया। कई देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति व उनकी सरकारें इनकी क्लाइंट हैं। अब यूरोप में रईसी ठाट के साथ जी रही अबला (परितकत्वा सिंगल मदर) ने बता दिया- 'नो ड्रीम टू बिग' वाकई!
विज्ञापन का एक और पंच मुझे बड़ा अर्थवान लगता है- रिस्क उठा नाम कमा! यद्यपि इस पंक्ति का उस कोल्ड ड्रिंक से गुणों से कोई लेना-देना नहीं जिसे रामदेव लैट्रिन साफ करने वाले एसिडिक केमिकल का विकल्प बताते हैं। लेकिन नारे में दम तो है।
कभी नाइजीरिया के पेट्रोल पंपों में तेल भरने वाले सीनियर अंबानी ने 15 हजार रुपए की उधारी के साथ जो रिस्क उठाया उसका प्रतिफल यह हुआ कि टाटा-बिडला को फेल करते हुए स्वर्णशिखर पर जा बैठ।
रिस्क उठाकर ही नाम कमाया जा सकता है, अच्छा या बुरा। चाहे कलाम बन जाओ, चाहे बगदादी, दोनों विकल्प हैं। ऊँचे उठकर लोग नाम कमाते हैं तो उससे दूना नीचे गिरकर भी नाम कमाने वाले हैं।
जिंदगी में रिस्क उठाना ही मनुष्य का टर्निंग प्वाइंट रहा है। जो रिश्क उठाने से डरा समझो सांसारिक दुनिया में मरा। जो जिंदा हैं.. उनके लिए मिस्टर नटवरलाल फिल्म का एक डायलॉग ही काफी है- ये जीना भी कोई जीना है लल्लू।
मुझे अब तक विज्ञापनों का जो सबसे पावरफुल पंच लगा वो है- डर के आगे जीत है' जिसने भी इसे लिखा उसने व्यवहारिक जिंदगी का निचोड़ ही लिख दिया।
अमूमन नब्बे फीसदी लोग डर के मारे उस पार जाने का रिश्क ही नहीं उठाते। डरपोक जिंदगी लिए मर जाते हैं। राजनीति का तो यह प्राणवाक्य है। चुटकी भर का वियतनाम सालों-साल अमेरिका को पदाए रखा और अफगानिस्तान के भुख्खड़ तालिबानियों ने भी बता दिया कि डर से जीत के मायने क्या हैं।
हम हाल संदर्भों में देखें तो और समझ में आएगा। आजादी के बाद से नासूर बने कश्मीर को लेकर हर कोई कहता- 370 से छेड़छाड़ मत करियो नहीं तो खून का दरिया बह जाएगी। 370 से छेड़छाड़ क्या संविधान से उसका पन्ना ही फाड़कर फेक दिया, डराने वाले बस देखते ही रह गए।
डर के साथ दो बाते हैं- वस्तुतः जीत दोनों में है। दूसरों को डराए रखना भी डर के आगे जीत की तरह है। डर से जीतने और दूसरों को डराकर रखने वाले ही सिंकदर कहलाते हैं...चाहे कुश्ती के अखाड़े में महाबली गामा हों या कि सियासत के मैंदान में नरेन्द्र मोदी।