कलेक्टर-कमिश्नर कॉन्फ्रेंस के अंतिम दिन सीएम का नया प्रोटोकॉल बताया गया है. इसके तहत मुख्यमंत्री की मंच से कही गई बात अब घोषणा तब तक नहीं मान्य होगी, जब तक मुख्यमंत्री ऑफिस की मंजूरी ना मिले. इसके बाद ही सीएम घोषणा पोर्टल पर कलेक्टर उसको दर्ज कर सकेंगे..!!
जो नया प्रोटोकाल कलेक्टर्स को बताया गया है, उसके अनुसार नीतिगत और भारत सरकार से जुड़े मसलों को भी घोषणा में नहीं जोड़ा जा सकेगा. इस बारे में एक पूरा चार्टर सभी कलेक्टर्स को बाद में भेजा भी जाएगा. सीएम ऑफिस ने स्पष्ट किया है कि, अनावश्यक रूप से घोषणा में तकनीकी शब्दों को ना जोड़ा जाए. इसके लिए उदाहरण भी बताए गए हैं. उदाहरण के लिए 121 करोड़ का पुल बनाया जाएगा, 3 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई जाएगी या 132 केव्ही का ट्रांसफॉर्मर लगेगा.
नए प्रोटोकॉल के अनुसार अब घोषणा में यह आंकड़े दर्ज नहीं किए जाएंगे. ब्यूरोक्रेसी का मानना है कि, जब घोषणाओं पर काम शुरू होता है या एस्टीमेट बनता है तो आंकड़े बदल जाते हैं. स्टेज के बाहर सीएम ने यदि कुछ कहा है, उसे निर्देश मानने की लिबर्टी कलेक्टर अब नहीं ले पाएंगे. ऐसे बहुत सारे दिशा निर्देश नए सीएम प्रोटोकॉल में बताए गए हैं.
सीएम का नया प्रोटोकॉल उनकी इमेज का संकट काल दिखाई पड़ रहा है. जुबान सीएम की होगी लेकिन उस पर कंट्रोल ब्यूरोक्रेसी का होगा. सीएम कुछ भी बोलें वह अधिकृत घोषणा तब ही दर्ज़ होगी, जब सीएम ऑफिस उसका अनुमोदन करेगा.
कलेक्टर कमिश्नर को नया प्रोटोकॉल देने के बदले अगर सीएम को ही इस प्रोटोकॉल से कन्वेंस कर दिया गया होता तो फिर ऐसी स्थिति ही नहीं बनती कि, वो ऐसी कोई घोषणा या निर्देश दें जो प्रोटोकॉल के मुताबिक ना हो. इससे तो यही लगता है कि, ब्यूरोक्रेसी शायद मुख्यमंत्री द्वारा की जा रही घोषणाओं और जनहित के निर्देशों के क्रियान्वयन में कठिनाई महसूस कर रही है.
मुख्यमंत्री को तो घोषणा करने से रोक नहीं सकते, लेकिन उस पर ब्यूरोक्रेटिक हथौड़ा जरूर चलाया जा सकता है. नया प्रोटोकॉल ऐसा ही संकेत दे रहा है.
कलेक्टर-कमिश्नर को जो बताया गया उसमें आंकड़े नहीं देने के पीछे तर्क दिया गया है कि, क्रियान्वयन के समय यह आंकड़े बदल जाते हैं. आकंड़ों का बदलना सरकारी प्रक्रिया का हिस्सा है. ब्यूरोक्रेसी को तो यह सबसे ज्यादा पता होता है कि, कोई भी विकास योजना या निर्माण कार्य एस्टीमेट के मुताबिक पूरा नहीं होता.
सिंचाई, बिजली और सड़क परियोजनाओं के प्रशासकीय अनुमोदन में लागत बढ़ने के कारण परिवर्तन किया जाता है. बहुत सी परियोजनाएं लागत बढ़ने के कारण पूरी नहीं होती है. अगर ब्यूरोक्रेसी एक बार निर्धारित और मंजूर आंकड़े पर ही अडिग है, तो फिर तो कोई भी विकास परियोजना शायद ही पूरी हो सकेगी.
आंकड़ों पर अडिग रहने का प्रयोग केवल मुख्यमंत्री की घोषणा में ही क्यों किया जा रहा है. यह समझ के बाहर है. मुख्यमंत्री को जन भावनाओं का सम्मान करना पड़ता है. कई बार बिना बजट की व्यवस्था के भी जनहित में घोषणा करनी पड़ती है. ब्यूरोक्रेसी की जिम्मेदारी उनका अनुपालन करना होता है. बार-बार समीक्षा में जब ब्यूरोक्रेसी घोषणाओं के क्रियान्वयन में पिछड़ती जाती है तब उसे यही रास्ता दिखता है कि, घोषणाएं करने की प्रक्रिया को ही बाधित कर दिया जाए. नए सीएम प्रोटोकॉल में शायद यही प्रयास किया गया है.
जो घोषणा या निर्देश सार्वजनिक मंच से मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए हैं, उनको एडिट कैसे किया जा सकता है. ऐसी हालत में ,मुख्यमंत्री की आम जनता के सामने इमेज का क्या होगा. सरकारों में राजनीतिक तंत्र और ब्यूरोक्रेसी के बीच शह मात का खेल हमेशा चलता रहता है. घोड़ा और घुड़सवार की काबिलियत पर रफ्तार तय होती है. ऐसा ही सिस्टम का भी रवैया देखा गया है. मुख्यमंत्री मोहन यादव मौलिक सोचते हैं और मौलिक बोलते भी हैं. पीएचडी होने के बाद भी उनकी मौलिकता ब्यूरोक्रेटिक सोफेस्टिकेशन को शायद पचती नहीं होगी. उनका पहलवानी व्यक्तित्व, बोली और लहजे में भी दिखता है.
किसी भी नेता के लिए तब सतर्क होना जरूरी होता है जब उसकी बात पर विवाद खड़े होने लगते हैं. राज्य में जहरीले कफ सिरप के कहर से बच्चों की मृत्यु पर मुख्यमंत्री ने पीड़ित परिवारों के घर-घर जाने की संवेदनशीलता दिखाई, लेकिन मीडिया के सामने सवाल के उत्तर में कल की बात आज नहीं करने की उनकी बात को मीडिया में उछाला गया. यहां तक कि नेशनल मीडिया में बड़ी-बड़ी स्टोरीज चलाई. इसके पहले इंदौर में नो एंट्री में ट्रक ट्रेजेडी पर भी मीडिया के सामने उनकी टिप्पणी को विवादास्पद बनाया गया.
अब तो सीएम का नया प्रोटोकॉल जो संदेश दे रहा है उसका तो यही मतलब निकलता है कि, ब्यूरोक्रेसी मुख्यमंत्री की जुबान कंट्रोल करना चाहती है.
सत्ता का योद्धा हमेशा डर में जीता है. यही डर सियासी और ब्यूरोक्रेटिक तंत्र में काम करता रहता है. डर जरूरी है लेकिन यह संतुलन में हो तभी तंत्र की लाइन और लेंथ सही होती है. डर चाहे सियासी नेता का हो या ब्यूरोक्रेटिक तंत्र का हो अगर वह असंतुलित हो जाता है, तो फिर चीज हाथ से निकलने लगती है.
सत्ता का खेल पावर, पैसे के बंटवारे और सौदेबाजी पर सिमटता जा रहा है. सत्ता के पूरे तंत्र में जो भी विवाद दिखते हैं उनके पीछे इनका ही रोल होता है.
राजनीतिक शख्सियत के लिए सबसे ज्यादा जरूरी उसकी इमेज होती है. नेता की इमेज कितनी महत्वपूर्ण है इसका सबसे बड़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी है. उनके पहले बीजेपी तमाम प्रयासों के बाद भी केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ नहीं हो पाई थी. यह उनकी इमेज का ही कमाल है कि भाजपा लगातार सत्ता में बनी हुई है. इमेज बनाना और उसको मेंटेन करना आसान काम नहीं होता है. छोटी-छोटी बातों से इमेज प्रभावित होती है. इसके लिए कोई बड़ी घटनाओं की जरूरत नहीं है.
मुख्यमंत्री अंग्रेजी में नहीं सोचते. वह जमीनी हकीकत के अनुसार सोचते और काम करते हैं. सार्वजिनक रूप से उन्होंने अपनी तलवारबाजी का कौशल दिखाया है. तलवारबाजी एक ऐसा हुनर हैं जिसमें बिना फोकस के कोई कुछ नहीं कर सकता.
जो तलवारबाजी पर फोकस कर सकता है, उससे ब्यूरोक्रेसी के दावपेंच छूट जाएंगे, ऐसा नहीं लगता. अपनी इमेज से खेलने का अवसर वह किसी को भी नहीं देंगे. ऐसा प्रोटोकॉल जो उनकी जुबान कंट्रोल करने की कोशिश करें, वह राज्य में लागू हो पाएगा, ऐसा लगता तो नहीं है? यदि ऐसा प्रोटोकाल लागू हो गया तो जनता कहीं मुख्यमंत्री की घोषणाओं की गंभीरता ही समाप्त न हो जाए!