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समझ से परे हैं ये गारंटियाँ 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 30 Apr

सार

अपने वादों या गारंटियों को पूरा करने के लिए उन्हें कर्ज चुकाने पड़ते हैं। हर कर्ज पर ब्याज अदा करना पड़ता है और मूल की वापसी भी करनी पड़ती है..!!

janmat

विस्तार

देश में अजब परिपाटी बनती जा रही है, जनता से राजनीतिक दल आमचुनावों में ही संवाद करते है और माध्यम होता है चुनाव घोषणा पत्र  इनमें वादे गारंटियों सब कुछ होता है  और वो सब भी बहुवचन में। कोई दल अपनी गारंटी के पक्का होने की बात करता है, तो कोई  दल कई गुना गारंटियों का दावा करता है। जबकि आम आदमी चाहता है कि उसे अपनी शिक्षा और योग्यता के अनुसार उचित नौकरी की गारंटी मिले।

देश में भ्रष्टाचार का सफाया हो। देश में किसी को भूखा नहीं मरने दिया जाएगा। पिछले दिनों देश में मनरेगा की दरें बढ़ाने के वादे हुए। लेकिन आर्थिक विषयों के मर्मज्ञ अभी तक यह जान नहीं पाए कि मनरेगा जैसी योजना जिसमें वर्ष में बेरोजगार परिवार के एक सदस्य को 100 दिन का रोजगार दिया जाता है। आखिर  उसके उत्पादन के किसी निर्दिष्ट लक्ष्य से क्यों नहीं जोड़ा जाता? क्यों अब तक  लार्ड केन्स की थ्योरी ही चलती है कि सार्वजनिक निवेश करो चाहे गड्ढे खोदने और उन्हें भरने का ही काम क्यों न हो? लेकिन ऐसा काम क्यों? आखिर मनरेगा के समकक्ष निर्माण योजनाएं क्यों सामने नहीं आतीं?

ताज़ा नई घोषणाओं  में हर चुनावी दल के एजेंडे में महिलाओं को प्रति माह 1 हजार से 15 सौ रुपये देने के वादे हैं। मुफ्त राशन है, मुफ्त बिजली है और मुफ्त चिकित्सा भी। लेकिन अर्थशास्त्री कहते हैं कि इस तरह की उदारवादी घोषणाओं से राज्य अपनी आय प्राप्ति की सीमा से बाहर चले जाते हैं। अपने वादों या गारंटियों को पूरा करने के लिए उन्हें कर्ज चुकाने पड़ते हैं। हर कर्ज पर ब्याज अदा करना पड़ता है और मूल की वापसी भी करनी पड़ती है। देश में कर्जदार राज्य तो लगभग सभी हैं, लेकिन केरल जैसा पढ़ा-लिखा राज्य भी कर्ज के बोझ से कुछ इस तरह दब गया कि उसे अतिरिक्त कर चुकाने हेतु 10 हजार करोड़ की वित्तीय सहायता के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। पहले यह रुपया केन्द्र से मांगा था, केन्द्र ने मना कर दिया कि इस पर तो पहले ही बहुत कर्ज है।

13वें वित्तीय आयोग ने तीन राज्यों को कर्ज के जाल में फंसने के बारे में चेताया था। उन्हें इस जाल से बाहर आने के लिए वित्तीय सुधार के निर्देश दिए थे। ये राज्य थे केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल। अब राजनीति के तकाजे ये हैं कि मुफ्तखोरी की घोषणाएं निरंतर करनी पड़ती हैं। पंजाब का यह हाल है कि उसे अपने ग्रामीण विकास फंड का 6 हजार करोड़ रुपया केन्द्र से लेने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। हालांकि, केरल राजस्व प्राप्ति में पंजाब से आगे है लेकिन वहां कल्याणकारी राज्य कहलाने के लिए कर्जे भी अधिक लिए जा रहे हैं। दूसरी ओर पंजाब पर भी 3,23,135 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया है। अगले वर्ष में यह घटने की बजाय 3,53,600 करोड़ हो जाएगा।

दरअसल, नि:शुल्क बिजली , बसों की मुफ्त यात्रा और अन्य रियायतों की योजनाएं राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं। वैसे राज्य सरकारों का मुख्य राजस्व तो वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने पर ही खर्च हो जाता है। जनता के लिए लोकलुभावन घोषणाओं को पूरा करने के वास्ते अधिक से अधिक कर्ज उठाया जाता है। यह नीति बदलनी होगी। पहले हर राज्य यह समझ लें कि जो कर्ज वह केन्द्र या रिजर्व बैंक से ले रहा है, वो अंतत: उसे चुकाना है। मूलधन ही नहीं, ब्याज सहित भी। इसमें कोई रियायत नहीं होगी।

कर्ज का जाल तो हर देश, हर राज्य के लिए जंजाल है। इससे जूझने के उपाय भी उत्पादन और निवेश की धरातल पर होने चाहिए। केंद्र व शीर्ष न्यायपालिका ने मुफ्त बिजली और अन्य मुफ्त सुविधाएं देने वाले राज्यों को कर्ज के जाल में फंसने की चेतावनी दी है। लेकिन शायद यह दलगत या राजनीतिगत मजबूरी है कि वोटर वर्ग को आकर्षित करने के लिए हर दल दूसरे से आगे बढ़कर ऐसी लोकलुभावन घोषणाएं करता है। पहले जनकल्याण की जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र को दी गई थी। इसके लिए दो साल पहले भारत की वित्तमंत्री ने घोषणा भी की थी कि अब बजट में बुनियादी उद्योगों पर निवेश में ही प्राथमिकता दी जाए ताकि देश में दीर्घकालीन और स्थायी विकास का आधार बने।

लोकलुभावन घोषणाएं अतिरिक्त उत्पादन या निवेश का परिणाम नहीं होतीं, उससे देश की जीडीपी से लेकर देश के रोजगार में अतिरिक्त वृद्धि भी नहीं होती। हां, इतना अवश्य है कि राज्यों पर कर्ज का बोझ बढ़ जाता है। जो अंतत: उनके हाथ बांध देता है क्योंकि उन्हें कर्ज तो अंतत: चुकाने ही पड़ते हैं।