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सत्ता के लिए बेसुरा राग लोकतंत्र के लिए बन रहा अभिशाप

सार

राजा महाराजाओं के जमाने में प्रजा को अपने पैरों पर खड़ा करने की बजाय मदद के सहारे कृतज्ञ और प्रतिबद्ध बनाए रखा जाता था। असहाय जनता थोड़ी सी भी मदद के लिए राजा-महाराजा की जय-जय कार में लगी रहती थी। राजशाही के प्रभाव वाले इलाकों में लोकतंत्र होने के बाद भी बहुत लंबे समय तक ऐसी ही मानसिकता चलती रही। राजशाही की यही मानसिकता अब लोकतंत्र को लीलने लगी है।

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विस्तार

राजनीतिक दल और नेता सत्ता के लिए लोकलुभावन घोषणाओं से चुनाव जीतने का इतिहास रचना चाहते हैं। मुफ्तखोरी से सत्ता को कोई नुकसान नहीं होता लेकिन इसका नतीजा जनता को ही भुगतना पड़ता है। देश में भी मुफ्तखोरी का टाइम बम लग चुका है अभी इसके दुष्परिणाम कम दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन जब यह बम फटेगा तब लोक का ही दम निकलेगा। 
 
लोकतांत्रिक देश श्रीलंका में यही हुआ है। इस देश का पतन सत्ता पर बने रहने के लिए लोकलुभावन नीतियों और योजनाओं के कारण हुआ है। राजपक्षे परिवार को भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचने के बाद भी वहां की जनता ने इसलिए सत्ता में बनाये रखा क्योंकि इस परिवार ने जनता के लिए कई लोकलुभावन योजनाएं लागू कीं। यह अलग बात है कि इन योजनाओं के कारण श्रीलंका दिवालिया हो गया। 

शासन व्यवस्था के संचालन की कीमत पर भी श्रीलंका में वैट टैक्स घटाकर 8% किया गया। आयकर की स्लेब पांच लाख से बढ़ाकर 30 लाख रुपए किया गया और आयकर की अधिकतम सीमा 15% निर्धारित कर दी गई। इस गलत नीति के कारण आयकरदाताओं की संख्या घटी और देश का राजस्व कम हुआ।

कारपोरेट टैक्स घटाकर 14% करने का वायदा किया गया। इसी प्रकार 7 अन्य करों को समाप्त कर दिया गया। उद्योग और आईटी कंपनियों के लिए जीरो टैक्स लागू किया गया। धार्मिक इंस्टीट्यूशंस के लिए टैक्स को समाप्त कर दिया गया। इसके कारण बौद्ध भिक्षुओं ने भी राजपक्षे परिवार के लिए चुनाव में वोट मांगे।
 
श्रीलंका सरकार ने प्राइवेट कंपनियों में नौकरी के मिनिमम वेजेस को ₹12500 प्रतिमाह निर्धारित कर दिया। जो कर्मचारी पेंशन के लिए पात्र नहीं थे, उन्हें भी पेंशन घोषित की गई। पेट्रोल-डीजल की कीमतें जनता को लुभाने के लिए कम रखी गईं। इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए अनाप-शनाप तरीके से अरबों रुपए खर्च किए गए।

राजपक्षे परिवार ने चुनाव जीतने के लिए ऐसे हजारों वायदे किए और शासन व्यवस्था की कीमत पर उन्हें लागू किया जिसका दुष्परिणाम श्रीलंका आज भुगत रहा है। आज वहां 15 घंटे से ज्यादा बिजली कटौती हो रही है। ईंधन मिल नहीं रहा है। अब जो राजपक्षे परिवार मुफ्तखोरी पर सवार होकर सत्ता की नाव चला रहा था वह आज दूसरे देशों में शरण लेने के लिए मजबूर है। 

भारतीय लोकतंत्र भी मुफ्तखोरी का शिकार हो गया है। सभी दलों में मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली लोकलुभावन योजनाएं घोषित करने की होड़ लगी है। सरकार की मुफ्त योजनाओं से आर्थिक संकट बढ़ रहा है। आज भारत के कई राज्य हैं, जो कर्ज के जाल में फंस चुके हैं। भारत में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त गेहूं व चावल दिया जा रहा है।

लोगों को मुफ्त आवास, एक सीमा तक मुफ्त बिजली और न मालूम क्या-क्या फ्री में देने का वायदा कर मतों को चुराया जाता है। मुफ्त योजनाएं सत्ता तक भले ही पहुंचा देती हों लेकिन इससे लोकतंत्र कमजोर होता जा रहा है। मुफ्त योजनाओं का खामियाजा लोगों को ही भुगतना पड़ता है। 

श्रीलंका में अब लोग ही सड़क पर उतरे हुए हैं। सत्ताधारी तो दूसरे देशों में चले गए हैं। अब आम जनता ही दर-दर भटक रही है। कोई भी लोकतांत्रिक सरकार जब भी इस तरह की मुफ्त योजनाओं की घोषणा करती है तब जनता को यह समझ लेना चाहिए कि यह उनके खिलाफ ही उठाया गया कदम होता है। 

लोकतंत्र के स्वरूप पर भी चिंतन की आवश्यकता है। कोई भी दल जो बहुमत के आधार पर सत्ता पर पहुंच जाता है, उसे मनमाने ढंग से हर चीज करने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? जैसे चुनाव के लिए चुनाव आयोग है, वैसे ही देश में संवैधानिक जनआयोग चाहिए।

इस आयोग को सरकार की सभी नीतियों और योजनाओं को जनदृष्टि से उनकी आवश्यकता और उपयोगिता पर विचार कर सरकार को आगाह करना चाहिए। सरकार की नीतियों पर आंदोलन होते हैं। आंदोलन दबा दिए जाते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि नीतियां जनता द्वारा स्वीकार कर ली गई हैं। नीतियों के खिलाफ ज्वालामुखी बनता रहता है जो कभी ना कभी फूटता है। यही श्रीलंका में हो रहा है। 

हमारा लोकतंत्र भी अब चरम तंत्र में बदल रहा है। चाहे सरकारी तंत्र हो या राजनीतिक तंत्र हो या फिर धार्मिक व्यवस्था। हर तरफ स्थितियां चरम पर पहुंचती नज़र आ रही हैं। मध्यप्रदेश में एक एसडीएम ऐसा बयान देते हैं कि लोकतंत्र ने भ्रष्ट नेताओं को पैदा किया है।

एक अधिकारी निर्वाचित प्रतिनिधि से दो-दो हाथ करने के लिए खड़ा हो जाता है। यही स्थिति राजनीतिक क्षेत्र में भी है। दलों में भी एकाधिकारवाद हावी है, आंतरिक लोकतंत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ता। दलबदल से और बेमेल गठबंधन से जिस भी ढंग की सरकारें अस्तित्व में आ रही हैं वह भी चरम स्थिति है। लोकतंत्र के सभी अंगों में चरमपंथ अब बढ़ता जा रहा है। 

लोकतंत्र अपने असली मालिक जनता के लिए ही परलोक तंत्र साबित हो रहा है। चारों तरफ 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' का बोलबाला है। सत्ता की कुर्सी पर रहना ज्ञानवान और बुद्धिमान होने की निशानी है। सत्ता से उतरते ही सारा ज्ञान और उसकी असलियत उजागर हो जाती है। मुफ्त की घोषणाओं से राजनीतिक दलों को रोकना संभव नहीं लगता लेकिन जनता को इसके दुष्परिणामों को जरूर समझना पड़ेगा। अगर इस मुफ्तखोरी को रोका नहीं गया तो लोकतंत्र का भविष्य भंवर में फंस सकता है।