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नचाते-नचाते खुद, नाचने लगे नेता

सार

बिहार में चुनावी घोषणाएं ऐसे की जा रही हैं, जैसे उनको कभी पूरा ही नहीं करना पड़ेगा. सरकार बनाने के लिए हर परिवार को सरकारी नौकरी देने का वादा यही बताता है कि ना सरकार बनेगी और ना ही नौकरी देना पड़ेगा..!!

janmat

विस्तार

     तेजस्वी यादव का अधिनियम बनाकर हर परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने का वादा ना प्रैक्टिकल दिखता है और ना ही कानून सम्मत है. कांग्रेस पहले रोजगार गारंटी योजना लागू कर चुकी है. उसका हश्र अभी भी देखा जा सकता है. अगर उसी जैसा रोजगार देने की कोई गारंटी का कानून बनाना उद्देश्य है, तब तो किया जा सकता है. अन्यथा सरकारी नौकरी की भर्ती की प्रक्रिया है. उसके शैक्षिक और अन्य मापदंड हैं, बिना परीक्षा के बिना पात्रता के किसी को भी नौकरी नहीं दी जा सकती. 

     पूरे देश में दैनिक वेतन और संविदा पर काम करने वाले अमले को नियमित करने के मामले में अनेक बार सुप्रीम कोर्ट ऐसे फैसले दे चुका है कि बिना पारदर्शी परीक्षा और प्रतिस्पर्धा के किसी को भी सीधे नौकरी नहीं दी जा सकती. जो लोग सरकार बनाने मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हुए हैं उन्हें अगर देश के कानून का सामान्य ज्ञान नहीं है, तो फिर उनके भविष्य पर बिहार को नहीं छोड़ा जा सकता.

    उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों में शिक्षा कर्मी, संविदा शिक्षक, शिक्षा मित्र जैसे नाम से सरकारों में युवाओं की भर्ती करनी थी. जब भी सरकारों ने राजनीतिक लाभ के लिए उन्हें नियमित नियुक्तियां देने की कोशिश की अदालतों से उस पर रोक लग गई. 

    उत्तर प्रदेश में भी ऐसा हो चुका है. अभी हाल ही में बंगाल में शिक्षकों की भर्ती इसी आधार पर रोकी गई है. बिहार चुनाव में सरकार द्वारा की गई घोषणा से मुकाबले के लिए यह जुबानी घोषणा भले कर दी गई है, लेकिन जागरुकता इतनी ज्यादा है कि ऐसे वायदों पर कोई भरोसा नहीं करता. इसके पहले भी अनेक राजनीतिक दल ऐसे वायदे करते रहे, लेकिन इसके बावजूद उन्हें जन समर्थन नहीं मिलता है.

    बेरोजगारी हर घर की समस्या है. उसका निदान ऐसे हवा हवाई वायदे नहीं हो सकते. अगर इतना आसानी से हो सकता है तो किसी को भी ऐसा काम करने में क्या दिक्कत हो सकती है. नीतीश कुमार ने महिला रोजगार के नाम पर महिलाओं के खातों में दस हज़ार की नगद राशि दी है. बेरोजगार युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देना प्रारंभ कर दिया है. ऐसी अनेक घोषणाओं पर सरकार की ओर से अमल कर दिया गया है.

    वैसे ऐसी घोषणाएं भी चुनावी ही होती हैं, लेकिन इन पर इसलिए भरोसा कर लिया जाता है कि उनकी शुरुआत सरकारों द्वारा कर दी जाती है. अगर सरकारें केवल वायदा करें तो कोई भी उनका विश्वास नहीं करेगा. जो योजनाए प्रारंभ कर दी जाती हैं, उनको रोकना किसी सरकार के लिए संभव नहीं होता. सभी राज्यों में लाड़ली बहना और अलग-अलग नाम से महिलाओं के लिए जारी योजनाएं इसी का प्रमाण हैं.

    चुनावी घोषणाएं अपनी विश्वसनीयता खो चुकी हैं. कोई भी राजनीतिक दल सत्ता नहीं मिलने पर अपने वायदे को दोबारा पलटकर भी नहीं देखता. जिन्हें सत्ता मिल जाती है, वह भी फिर बजट की सीमाओं में घोषणाओं को देखने लगते हैं. 

    अव्यवहारिक घोषणाएं मुफ्तखोरी की योजनाएं और नगद सहायता से जुड़ी घोषणाएं देश के लिए बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं. कोई भी राजनीतिक दल सत्ता के लिए ऐसी घोषणा करता है और जिसको भी भरोसा मिल जाता है, वह फिर काट-छांट के साथ किसी तरह से काम करती हैं. बहुत सारे वादों पर पांच साल में भी काम नहीं हो पाता. खास करके रोजगार का वादा तो कभी भी पूरा नहीं होता. चुनावी घोषणाओं की कोई वैधानिकता निश्चित नहीं है. इन घोषणाओं के लिए वित्तीय समर्थन कैसे जुटाया जाएगा. इस बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता.

    चुनावी घोषणाओं की प्रतिस्पर्धा अब गला काट हो रही है. इस प्रतिस्पर्धा के कारण सरकारों का गला घुट रह है. कोई भी सरकार अपनी कमाई से वेतन, भत्ते और पेंशन देने की स्थिति में भी नहीं होती. सारी सरकारें कर्जों में लदी हुई हैं. पड़ौसी देशों में पैदा हुई अस्थिरता के पीछे भी ऐसे ही अराजक वायदों और कार्यों का योगदान है. भारत सरकार को इस दिशा में चुनाव सुधार कर चुनावी घोषणाओं को वैधानिक फ्रेमवर्क में लाने का वक़्त आ गया है.

    नकली चेहरे दिखाकर ठगने की संस्कृति नई नहीं है. रामायण काल में मारीच ने सोने का हिरण बनकर माता सीता को भ्रमित करने का इतिहास है. भृमित करने की यह शैली राजनीति में खूब परोसी जा रही है. चुनावी घोषणाएं मारीच की कलाएं कही जा सकती हैं. बिहार तो राजनीतिक रूप से सबसे जागरूक प्रदेश है. जो दल और नेता नौकरी के बदले जमीन लेने के आरोपी हैं, उनकी जुबानी हर परिवार को सरकारी नौकरी देने की घोषणा नर्क में स्वर्ग स्थापित करने जैसा लगता है. 

    सरकारी नौकरी का सोने का हिरण अगर लूट, अपहरण, अराजकता का कारण बनेगा तो लोकतंत्र की परिपक्वता पर सवाल उठेगा. जनमत का विवेक कभी गलत फैसला नहीं लेता. हार तो इस मामले में सबसे आगे है.