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इन चुनावों में कौन जीतेगा ? एक बड़ा सवाल 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 27 Jul

सार

देश जनतंत्र का अमृत महोत्सव मना चुका है, अब अमृत-काल चल रहा है, क्या अर्थ है इस अमृत-काल का, यह तो वे ही बताए जिन्होंने यह जुमला उछाला है, हक़ीक़त में जुमलेबाजी हमारी राजनीति का एक महत्वपूर्ण औज़ार बन गयी है..!

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विस्तार

अभी पाँच राज्य, फिर देश चुनाव से गुजरेगा। पिछले एक अर्से से हमारी राजनीति में एक नई परंपरा पनपी है जो मतदाता को अपमानित करती है। “राजनेताओं ने मान लिया है कि देश का मतदाता कुछ रुपयों से खरीदा जा सकता है। दो तरीकों से मतदाता को रुपये बांटे जा रहे हैं–एक तो यह कि चुनाव के मौके पर नोट के बदले वोट दिया जाये और दूसरे वैध तरीके से कभी बेटियों के नाम पर, कभी माताओं-बहनों को नगद राशि दी जाये। स्कूलों में बच्चों की फीस माफ हो, गैस-बिजली आदि की दरें कम की जाएं, सस्ती दरों पर जरूरतमंदों को अनाज बांटा जाये, यह तो फिर भी समझ में आता है, पर यह समझना मुश्किल है कि लाभार्थियों के खातों में पैसे जमा करना रिश्वत नहीं तो और क्या है? रिश्वत लेना या देना अपराध है पर यह अपराध हमारे राजनीतिक दल खुलेआम कर रहे हैं।“ वो भी घोषणा पत्र या वचन पत्र के स्वरूप में। 

तय कार्यक्रम के अनुसार दिसंबर तक पांच राज्यों में नयी सरकारें भी बन ही जाएंगी। सवाल यह नहीं है कि कौन जीतेगा या कौन हारेगा, सवाल यह है कि इन चुनाव के बाद हमारा जनतंत्र मज़बूत होगा या कमजोर?

देश जनतंत्र का अमृत महोत्सव मना चुका है। अब अमृत-काल चल रहा है। क्या अर्थ है इस अमृत-काल का, यह तो वे ही बताए जिन्होंने यह जुमला उछाला है, हक़ीक़त में जुमलेबाजी हमारी राजनीति का एक महत्वपूर्ण औज़ार बन गयी है। पिछले आठ-दस सालों में हमने इस हथियार की धार भी देख ली है। ‘अमृत-महोत्सव’ मनाने वाला हमारा लोकतंत्र और चुनावी बिसात पर सजे मोहरे बता रहे हैं कि सारा ज़ोर येन-केन-प्रकारेण मुकाबला जीतने का है। इसे खतरे की घंटी माना जाना चाहिए। यह घंटी बज रही है, ज़ोरों से बज रही है, पर क्या हम इसे सुन रहे हैं? सच बात तो यह है कि हम शायद इसे सुनना भी नहीं चाहते।

जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन। चुनावों का होना या फिर वोट देना मात्र ही इस बात का प्रमाण नहीं है कि हमारा जनतंत्र फल-फूल रहा है। वोट मांगने वाले और वोट देने वाले, दोनों, का दायित्व बनता है कि वह जनतंत्र की इस पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी से हिस्सा लें। आज यह पूछने की आवश्यकता है कि क्या हमारी राजनीति में ईमानदारी नाम की कोई चीज बची है? झूठे वादे करना, धर्म और जाति के नाम पर मतदाताओं को बरगलाना, आधारहीन आरोपों के शोर में विवेक की आवाज़ को दबा देना, शायद यह सब तो जनतंत्र नहीं है।

दुर्भाग्य ! जनतांत्रिक मूल्यों के नकार के इस खेल में कोई पीछे रहना नहीं चाहता। सब अपने-अपने महिमा-मंडन में लगे हैं। आत्म-प्रशंसा से लेकर पर- निंदा तक फैला हुआ है हमारा बदरंग इंद्रधनुष। होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक दल अपनी-अपनी रीति-नीति का ब्योरा लेकर जनता के पास जाएं, पर हमारी समूची राजनीति ‘पहले की सरकारों’ को कोसने से लेकर अपना ढोल बजाने तक सीमित होकर रह गयी है। जो अपने आप को जितना बड़ा नेता समझता-कहता है, वह उतने ही ज़ोर से विरोधी पर लांछन लगाने में लगा है। अपेक्षित तो यह है कि सत्ता-पक्ष चुनाव के मौके पर अपनी उपलब्धियों का लेखा-जोखा मतदाता के समक्ष प्रस्तुत करे और विपक्ष सत्ता-पक्ष की कमज़ोरियों और अपनी रीति-नीति के बारे में बताए। बताए कि वह कैसे और क्या बेहतर करेगा। लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा। चुनाव के संदर्भ में जो हो रहा है वह एक तो यह है कि विरोधी को नीचा दिखाने की कोशिश और दूसरे रेवड़ियां बांटने की प्रतिस्पर्धा। बड़ी बेशर्मी से मतदाता को लुभाने की होड़-सी लगी है।

एक समय जब मतदान की यज्ञ से तुलना की जाती थी और वोट को तुलसी-दल की पवित्रता प्राप्त थी। अब तो यह चुनाव ऐसी लड़ाई बन गया है जिसमें सब कुछ जायज मान लिया गया है। यहां तक कि विरोधी को अपशब्द कहते हुए भी किसी को कोई शर्म नहीं आती। बहुत पुरानी बात नहीं है जब संसद तक में ऐसे शब्द काम में लिये गये थे, जो किसी भी सभ्य समाज में उचित नहीं माने जा सकते। इसमें संदेह नहीं कि चुनाव जीतने के लिए ही लड़े जाते हैं, पर किसी भी कीमत पर जीत हमारे जनतंत्र को खोखला ही बनायेगी। 

अभी पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, फिर लोकसभा के लिए चुनाव होंगे। चुनाव के इस माहौल में यह बात समझना ज़रूरी है कि चुनाव जीत कर सरकार बनाने में सफलता ही जनतंत्र की सार्थकता नहीं है। सांपनाथ और नागनाथ में से चुनने की विवशता कुल मिलाकर जनतंत्र का नकार ही है।