नर्मदा का नाभि स्थल : नेमावर हंडिया इतिहास से अब तक : लोक जीवन की स्रोतस्विनी


स्टोरी हाइलाइट्स

नदी की यात्रा संस्कृति का निर्माण करती है। नर्मदा ने लोक को बहुत पोषा है। नर्मदा ने लोक के व्यवहार को गहरे प्रभावित किया ..........नर्मदा का नाभि स्थल

नर्मदा का नाभि स्थल : नेमावर हंडिया इतिहास से अब तक : लोक जीवन की स्रोतस्विनी नदी की यात्रा संस्कृति का निर्माण करती है। नर्मदा ने लोक को बहुत पोषा है। नर्मदा ने लोक के व्यवहार को गहरे प्रभावित किया लोक ने नर्मदा के किनारों को कोहाहल से भर दिया। पत्थरों की रचना से मन्दिर बनाये। घाट बनाये। इससे नर्मदा नदी न रही; वह लोक जीवन की स्रोतस्विनी बन गयी। इसके किनारों पर उतरती सुबहें जीवन की पलकें धोती है। इसके घाटों पर सुस्ताती गायें जीवन की उदासी पोंछती हैं। यह दृश्य नर्मदा के हंडिया नेमावर में और लुभावना हो जाता है। नेमावर नर्मदा के उत्तर तट पर है। यहाँ नर्मदा का नाभि स्थल है। नर्मदा की लगभग 1300 कि.मी. की यात्रा यहाँ आधी होती है।  हंडिया नर्मदा के दक्षिण तट पर बसा है । पुराना गाँव है । अनेक प्राचीन मन्दिरों के पुरावशेष बिखरे हैं। पुरानी जमींदारी भी थी। इंडिया के पास ही गंगा तैलंग की सराय है। जिसका एक दरवाजा अभी भी साबुत है। इस सराय के भीतर अनेक रहस्य छुपे हैं। गुप्त मार्ग हैं। अब सराय का परकोटा खण्डहर रूप बचा हैं, बाकी सब टूटी-फूटी स्थिति में है। आसपास के लोग इसे गंगा तैलंग की सराय कहते हैं। नेमावर हंडिया पुराने समय में उत्तर दक्षिण के मार्ग में पड़ने वाला पड़ाव था। यहीं से व्यापारी, यात्री, सेना और लोग नर्मदा पार करते थे। क्योंकि यहाँ नर्मदा का पानी बहुत फैला हुआ है। उथला है। यह सराय उस समय विश्राम की महत्वपूर्ण जगह थी । नर्मदा का नाभिस्थल, दर्शन-स्नान के लिए देश-विदेश से आते हैं लोग नेमावर की तरफ नर्मदा के घाट पर खूब रेत है। हरदा खातेगाँव क्षेत्र के हजारों श्रद्धालु यहाँ अमावस, पूर्णिमा, शिवरात्रि, मकर संक्रान्ति, भूतड़ी अमावस को नहाने आते हैं। यहाँ नहाने का अलग सुख है। जहाँ रेत है और सिद्धनाथ मन्दिर के पास नर्मदा कुछ ज्यादा गहरी है, लेकिन 100 मीटर ऊपर नहाने का अविर्चनीय सुख है। नर्मदा यहाँ धरती पर बिछकर बहती है। धीरे-धीरे और बहुत जल-फैलाव के साथ बहती है। तल में साफ बारीक रेत है। जल काँच की तरह , लेकिन हाथ में नहीं आने वाला। जाँघ जाँघ, कमर कमर पानी में बहुत दूर तक चले जाइए, कोई खतरा नहीं। कोई डर भय नहीं। दिन में नहाओ। रात-विरात नहाओ, मैया का सान्निध्य सुखकर है। यहाँ पानी में बैठकर, पालथी मारकर पानी को बह हुए अनुभव करने का आनन्द यहाँ पानी समय की रफ्तार से जीवन के समीकरण हल करता महसूस होता है। पानी आगाह भी करता है कि मैं जन्मजात यात्री की तरह चल रहा हूँ और तुम पोस्ती की तरह रुके-रुके जड़ भरत बने बैठे हो। जल से बाहर निकलकर वह आदमी भरा-भरा होता है, जो जल और जीवन के रिश्तों को सीपी में मोती की तरह देखता है। पानी को स्वाभिमान की चमक की तरह समझता है। नेमावर में भारत प्रसिद्ध सिद्धनाथ का मन्दिर है। मन्दिर का शिल्प ओंकारेश्वर के मन्दिरों सरीखा ही है। यह शिव मन्दिर है। लोक विश्वास में सिद्धेश्वर और ओंकारेश्वर भाई-भाई है । ओंकारेश्वर और नेमावर का मन्दिर लगता है एक ही काल के बने हुए हैं। मन्दिर भव्य है। अपनी कला में बेजोड़ है। इसका मुख पश्चिम की ओर है, जैसा ओंकारेश्वर के मन्दिरों का है। मन्दिर का परिसर विशाल है। छोटी दिवारों से घिरा और पत्थरों से पटा हुआ है । मन्दिर प्रांगण और नर्मदा तट से आधुनिक पुल को देखना अच्छा लगता है। भारतीय अभियांत्रिकी की यह रचना उत्तर दक्षिण को जोड़ती है। 1980 के पहले जब यह पुल नहीं था, नर्मदा पर लकड़ी पुल बनाया जाता था। यह पुल प्रतिवर्ष दीपावली बाद बनाया जाता था और जेठ तक रहता था। वर्षा में नाव द्वारा आवागमन होता था। पुल के उस पार पश्चिम में जैन मुनि ज्ञान सागर श्रीयुत विद्यासागर ने यहाँ सन् 1997 में चतुर्मास बिताया था। नेमावर में बस स्टेण्ड पर एक औघड़ तांत्रिक द्वारा बनवाया गया विचित्र मन्दिर है, जिसमें अनेक अजीब मूर्तियाँ हैं। मूर्तियाँ सब सीमेंट की बनी हैं। हाथी की सूँड में नल लगा है। उर्वरक की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ाने से ज़मीन में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ रही है। गोबर की खाद दुर्लभ हो गयी। गाय, बैल, भैंस पर ट्रेक्टर की बुरी तरह मार पड़ी है। उनका घर से, क्षेत्र से निकाला हो गया। नर्मदा अपनी जड़ों में तरल और अपरिवर्तित है। इस क्षेत्र में उसके किनारे के खेतों की ज़मीन पोची और छिछली होती जा रही है। आदमी इतना बदहवास इससे पहले कभी नहीं दौड़ा था। नेमावर में अन्य पर्वों पर तो स्नान के समय लोग आते ही हैं, पर कुंवार वदी अमावस (पितृमोक्ष अमावस) को यहाँ रात्रि में मेला लगता है। इस अमावस को भूतड़ी अमावस कहते हैं। मेला चौदस की रात में लगता है। रात भर रहता है। सुबह अमावस के दिन नर्मदा में डुबकी लगाकर हर-हर नर्मदे के साथ ही समाप्त हो जाता है। इस समय पुल पर, बस स्टेण्ड, मन्दिर घाट, रेत, किनारों पर कीड़ी-दल लोग रहते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से इस क्षेत्र में और निमाड़ में खम्भ-गम्मत शुरु होती है। यह पूरे भादौ और आधे कुंवार तक चलती है। गाँव-गाँव से मण्डलियाँ आकर यहाँ खम्भ गम्मत अपने-अपने डेरों पर करते हैं। लोक रंग का विविधवर्णी रूप देखते ही बनता है। जीवन अभिनय कला संगीत वाद्य नृत्य संवाद हास्यरुदन दुःख सुख - आधुनिकता परम्परा आस्था श्रद्धा धर्म नदी प्रकृति सब लोक रंग में डूब जाते हैं। नर्मदा में उनके बिम्ब पड़ रहे हैं। नर्मदा शांत, मुग्ध श्रोता की तरह पूरी रात यह सब देखती-सुनती रहती है। इस क्षेत्र में भीलट, भैरूँ, दूल्हादेव सहित अनेक स्थानीय नाभि-स्थल देवी-देवताओं को माना जाता है। काठी नृत्य के माध्यम से जिस भीलट भैरू देव की कथा कहकर आराधना की जाती है, उन देवों की पवन इस भूतड़ी अमावस पर आती है। जिस व्यक्ति के शरीर में यह देवता हवा रूप में प्रवेश करता है, उसका रहन-सहन बड़ा साफ-सुथरा होता है। जिसे पवन आती है, वह नर्मदा के जल में या किनारे खड़ा हो जाता है। लाल घुघड़ी या फिर धोती सिर से कमर तक ओढ़ ली जाती है। देवता का प्रवेश होते ही उसके पूरे शरीर में अजीब कम्पन होता है। कमर के नीचे किसी-किसी को चोलगा भी पहनाया जाता है। शरीर कम्पन के कारण चोलगा के घुंघरू मंद मंद आवाज करते रहते हैं। जिसके शरीर में जिस देव की पवन आती है उसे उस नाम से संबोधित किया जाता है। उसकी जय बोली जाती है। देव के सामने बीमार व्यक्ति को खड़ा किया जाता है। उसे छींटा-बाण दिये जाते हैं। नर्मदा में डुबकी लगवायी जाती है। पानी के छीटे और ज्वार या गेहूँ के दाने बाण कहे जाते हैं । बीमार व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) के अतिरिक्त स्वस्थ व्यक्ति भी दाण बाण खाते हैं। फिर वह पवन (देव) चली जाती है। व्यक्ति सामान्य हो जाता है। ऐसे दृश्य एक जगह नहीं, जगह-जगह देखने को मिलते हैं। नारियल, उदबत्ती, धूप-दीप, होम, स्तुति, आरती तो प्रति स्नान और प्रतिवर्ष के अनिवार्य अंग हैं। लोक विश्वास और आस्थाओं का जीवंत रूप नर्मदा किनारे देखने को मिलता है। इस घाट पर भी मान दी जाती है। मुण्डन होता है। दूल्हा-दुल्हन दाम्पत्य के प्रथम दिन आकर जीवन की सुकोमल कामनाएँ करते हैं। माँ नर्मदा से भरे-पूरे और सम्पन्न जीवन का वरदान माँगते हैं। [embed]https://twitter.com/BeingSanjay26/status/1301927823045619712?s=20[/embed] पुल के उस पार निचरोस मरघट की ज्वाला जलती-बुझती रहती है। पुल पर कलपुर्जी का कमाल आता जाता रहता है। लोग कभी सचेत और कभी बेख़बर होकर कभी नर्मदा की ओर और कभी अंधी गुफाओं की और दौड़ रहे हैं। साँझ ढल गयी है। रात के माथे पर चन्द्रमा का टीका चमक उठा है। उसकी रोशनी नर्मदा जल पर पड़ रही है। सब कुछ शांत होने लगा है। दुनिया सोने लगी है। नर्मदा जाग रही है। नर्मदा की कल-कल कानों में अनुगूँज बनकर साथ-साथ चल रही है। श्रीराम