
कोविड-19 से जंग लड़ रहे देश में पिछले 3 महीने में राजनीति ने पिछले कुछ दशकों का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखा | महामारी के इस दौर में राजनीतिज्ञ उम्मीद से ज्यादा परिपक्व नजर आए| इस दौर ने भारत देश के संघीय ढांचे की परीक्षा ली और अपवाद को छोड़ दिया जाए तो केंद्र राज्यों के संबंध महामारी ने मजबूत किये| छुटपुट वाकयों को छोड़ दें तो विरोधी दलों ने भी एक दूसरे पर कमर के नीचे वार नहीं किए| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राज्यों से संवाद बनाने में पहले से ज्यादा सक्रियता दिखाई| पीएम मोदी ने लगातार राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की| कोरोना ने प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्रियों के साथ पिछले दो-तीन महीनों में घंटो घंटो बातचीत करने पर मजबूर कर दिया| अरविंद केजरीवाल और अमित शाह के बीच इतनी बैठकें और बातचीत शायद उनके पूरे जीवन काल में नहीं हुई होंगी जितनी पिछले कुछ दिनों में हो गई| मजबूरी ही सही लेकिन देश की जनता ने राजनीतिज्ञों में पॉलिटिकल सद्भावना देखी| इस संकट के दौर में यदि ये लोग साथ खड़े दिखाई नहीं देते और एक दूसरे की छीछालेदार करने में लगे रहते तो शायद जनता का मनोबल ज्यादा टूट गया होता | महामारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विपक्षी दलों से सहयोग की अपील करने पर मजबूर किया| पीएम ने कई मुख्यमंत्रियों से डायरेक्ट कॉल करके कई बार बातचीत की| यहां तक की मोदी ने एक कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री की खुलकर तारीफ भी की| लंबे समय से केंद्र और राज्य के बीच उठापटक देखते आ रही जनता के लिए ये सुकून भरा था| केंद्र और राज्य के बीच हमेशा बेहतर संबंध होना चाहिए| यही संघीय ढांचे की खूबसूरती है| लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए विरोधी दल की सरकारे एक दूसरे से टकराती रही| ममता बनर्जी तो इस देश का हिस्सा होते हुए भी केंद्र सरकार को चुनौती देती रही| मुख्यमंत्रियों ने केंद्र से सहयोग न मिलने की शिकायत की लेकिन फिर भी यथासंभव तालमेल बनाया| पश्चिम बंगाल में चुनाव होने हैं तो केंद्र और राज्य ने तालमेल बनाने के साथ पॉलिटिकल चाल चलने में कोताही नहीं की| हालांकि लोकतंत्र में ये गैर जरूरी नहीं है| महाराष्ट्र में पर्याप्त रेलगाड़ियां न देने पर राज्य ने केंद्र की आलोचना की| लेकिन ये भी एक राज्य का हक है ,वो अपनी समस्या और शिकायत खुलकर सामने रख सके | राहुल गांधी की दल की राज्य सरकारें केंद्र के साथ तालमेल करती रही तो वो खुद राजनीतिक फुलझड़ियां छोड़ते रहे| कुल मिलाकर राजनीतिक दलों ने वक्त का तकाजा भांप नपे तुले अंदाज में ही आरोप-प्रत्यारोप किये| कोरोना के संकट से निपटने के लिए पूरी दुनिया के पास कोई एक्शन प्लान नहीं है| भारत के पास भी नहीं था| आज भी पूरा देश इस संकट पर कोई ठोस निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है| लॉकडाउन को 'अनलॉक' करने और इसके बाद फिर लॉकडाउन करने का निर्णय आसान नही है| एक भी गलत निर्णय पूरे देश पर भारी पड़ सकता है ऐसे में सरकार फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है| सरकार को आर्थिक मोर्चे पर भी देश को बरकरार रखना है और स्वास्थ्य सुविधाओं को भी दुरुस्त करना है| सरकार को जिस तेजी से मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को ठीक करना था नहीं कर पाई है| मरीजों की संभावित संख्या को देखते हुए चिकित्सा विज्ञान और ज्यादा सक्षम और समर्थ बनाने की जरूरत है| बीच-बीच में कई राज्य सरकारों ने कहा कि केंद्र का एक तरफा लॉकडाउन का फैसला ठीक नहीं था| हालांकि प्रधानमंत्री की बैठकों में इन राज्यों ने भी लॉकडाउन जारी रखने का समर्थन किया| दरअसल राज्य सरकारों को भी उस वक्त नहीं सूझ रहा था कि आखिर उनकी रणनीति क्या हो? इसलिए उन्होंने केंद्र के साथ कदमताल करने में बेहतरी समझी| लॉकडाउन लगाते वक्त केंद्र सरकार प्रवासी मजदूरों की स्थिति का आकलन करने में विफल रह गई| ये भी हो सकता है कि सरकार को उस वक्त लॉकडाउन मजदूरों की असुविधा के बावजूद भी जरूरी लग रहा हो| केंद्र सरकार आपदा प्रबंधन कानून 2005 के तहत कदम उठाती जा रही थी | जब अर्थव्यवस्था दम तोड़ने लगी तो लोग लॉक डाउन की परवाह किए बगैर अपने घरों की ओर पैदल ही कूच करने लगे तो सरकार धीरे-धीरे अनलॉक करने पर विचार करने लगी| चाहे प्रधानमंत्री हो या राज्यों के मुख्यमंत्री| वायरस से जंग में इन्हें सबसे आगे खड़े होना है| इनकी जिम्मेदारी भी बनती है| जंग में सबसे ज्यादा परेशानी आर्थिक मोर्चे पर है| राज्य सरकारें अपनी आर्थिक तंगहाली के लिए केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ रही है| राज्य केंद्र से अपने हिस्से में बढ़ोतरी चाहते हैं| कोविड-19 के चलते और यूँ भी अर्थव्यवस्था के मामले में केंद्र सरकार राज्यों से ज्यादा अधिकार संपन्न है| राज्य इस मामले में अधिकारो का विकेंद्रीकरण चाहते हैं, जबकि केंद्र आपदा के चलते आर्थिक मोर्चे पर सारे निर्णय जायज ठहराने की कोशिश कर रहा है|