क्रांतिकारी उज्ज्वला मजूमदार का संघर्ष


स्टोरी हाइलाइट्स

क्रांतिकारी उज्ज्वला मजूमदार का संघर्ष
ढाका के क्रांतिकारी विचारों तथा गतिविधयों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली महिलाओं में उज्ज्वला मजूमदार का नाम भी विशेष महिलाओं में गिनने योग्य है। कमर में एक साथ तीन-तोन पिस्तीलें बाँधकर इथर-उधर जाना पुलिस को चकमा देना आदि कोई साधारण बात नहीं थी। उज्ज्वला मजूमदार का जन्म २१ नवंबर, १९१४ को ढाका में हुआ।

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इनके पिता क्रांतिकारी थे अत: जन्म से ही क्रांतिकारी वातावरण के साथ स्वयं पिता के द्वारा ही उच्च के क्रांतिकारी काम करने की ट्रेनिंग दी गई। समय के साथ वह पहले 'बंगाल वालंटियर्स' के उग्र विचारों को एक प्रमुख सदस्य के रूप में उभरीं। इसके बाद वे 'दीपाली संघ' और 'युगांतर दल' की सदस्य बनीं।

ये सभी संस्थाएँ क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न थीं। सभी का एकमात्र उद्देश्य अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकना था। इन संस्थाओं में उनका परिचय प्रीतिलता और कल्पना दत्त से हुआ और उन्होंने भी उन्हीं जैसा जोखिम भरा काम करने का बीड़ा उठाया। प्रीतिलता ने पकड़े जाने और उसके पश्चात् अंग्रेजी क्रूर शासन द्वारा दिए जाने वाली यातनाओं के भय से पोटाशियम सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली थी। कल्पना दत्त अपनी बुद्धिमत्ता और दुस्साहस के बल पर एक बार पुलिस की गोलियों की बौछार से बचकर निकल भी गई किंतु अंत में पकड़ी गई और उन्हें कड़ी कैद की सजा भुगतनी पड़ी।

१९३० में 'चटगांव शस्त्रागार' कांड के बाद अंग्रेजों ने जिस प्रकार दमनचक्र चलाया था । उसकी प्रतिक्रिया में सारा बंगाल ही सुुगल उठा था और उन दमनकारी गतिविधियों को बदला लेने के लिए कई संगठन क्रियाशील हो गए थे। इन संगठनों का युवा कार्यकर्ता अपने प्राण हथेली पर रखे और सिर से कफन बांधे हर समय कोई-न-कोई ঘटना करने के लिए तत्पर रहते थे इनमें एक संगठन था-'बंगाल वालंटियर्स, उज्ज्वला मजूमदार इसके प्रमुख सदस्यता थी। इस संगठन के युवक-युवतियों के एवा द ने दार्जिलिंग में गवर्नर एंडर्सन को गोली मारने की योजना बनाई और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

८ मई, १९३४ को गवर्नर एंडर्सन लेवंग रेसकोर्स में आने वाला था इन युवा क्रांतिकारियों को यह अवसर उपयुक्त प्रतीत हुआ। अपने कार्य को क्रियान्वित करने के लिए भवाली भट्टाचार्य, रवि और मनोरंजन बनर्जी के साथ उज्ज्वला मजूमदार भी भरी पिस्तौलें लेकर निकल पड़ी और मनोरंजन बनर्जी ने भवानी भट्टाचार्य तथा रवि बनजी को मैदान के उस हिस्से में तैनात कर दिया जहाँ से अपने शिकार पर गोली चलाना आसान था। इसके बाद ये दोनों सिलीगुड़ी आ गए, क्योंकि ये दोनों पहले से ही पुलिस की नजर में थे। उधर गोली चली यद्यपि उस कार्य में क्रांतिकारियों को पूरी सफलता नहीं मिली लेकिन इनके वहाँ न होने पर भी इन दोनों के नाम वारंट निकल गए। उस समय तो उचला भेष बदल कर पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर निकल भागी और कुछ समय तक इधर-उधर छुपकर कार्य करती रही किंतु अंत में थीड़े समय के बाद ही बंदी बना ली गई। स्पेशल ट्रिब्यूनल में मुकदमा चलाया गया और इस रेसकोर्स कांड' में हिस्सा लेने के अपराध में २० वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया।

१८ मई, १९३४ को उज्ज्वला मजूमदार को बंदी बनाकर पहले तो कुर्शिया जेल में रखा गया और कुछ समय बाद दार्जिलिंग और मिदनापुर की जेल में अपील करने पर उनका २० वर्ष का कारावास १४ वर्ष में बदल दिया गया। अन्त में गांधी जी की कोशिशों के परिणामस्वरूप बंदी बनाने के पाँच वर्ष बाद १९३९ में उन्हें रिहा कर दिया गया। जेल से आने के बाद उन्हें खाली बैठना खलने लगा। सभी क्रांतिकारियों का यही हाल था। खाली बैठे करें तो क्या करें? और किसी काम में न तो उनकी रुचि थी, न अनुभव और उसके साथ ही समाज का एक वर्ग और शासनतंत्र उन्हें चैन से बैठने भी कहाँ देता? अत: जय सन् १९४२ में 'भारत छोड़ो' आंदोलन छिड़ा तो वे उसमें सक्रिय हो गई। भारत रक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बनाकर उन्हें प्रेसीडेंसी जेल भेज दिया गया। यहाँ से १९४६ में ही उन्हें मुक्ति मिली। इसके पश्चात् भारत के स्वतंत्र हो जाने पर उन्होंने 'फॉरवर्ड ब्लॉक' की सदस्यता ग्रहण की और शेष जीवन उसका काम करते बिता दिया।