रुक्मणी स्वयंवर
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -15
रमेश तिवारी
आर्यावर्त में वधु द्वारा अपने पसंदीदा वर के चयन की प्रथा रही है। किंतु महाभारत काल के आते आते, यह प्रथा एक अभिशाप बन गई। हम इस प्रथा को फिक्सिंग भी कह सकते हैं। रुक्मिणी स्वयंवर भी इसी फिक्सिंग का एक अंग था। किंतु श्रीकृष्ण ने अपने चातुर्य से इस फिक्सिंग को नष्ट कर दिया। अब इस फिक्सिंग विहीन स्वयंवर में रुक्मणी का भी महत्वपूर्ण योगदान होने वाला था। वह स्वतंत्र होकर वर चुनना चाहती थी। बिना मां की यह राजकुमारी चारों ओर से प्रभावित की जा रही थी।
एक ओर था भाई रुक्मी, जो जरासंध का सामंत जैसा था। और उसके साथ था कृष्ण की भुआ का पुत्र शिशुपाल और कृष्ण को नीचा दिखाने का मौका न गंवाने वाला, सम्राट जरासंध। रुक्मणी का पिता और कुंडिनपुर का राजा भीष्मक न चाहते हुए भी जरासंध के भय के कारण हां, जी- हा, जी करता फिरता था। सबसे मजबूत पक्ष था श्रीकृष्ण का, जिसमें रुक्मणी भी उनके साथ थी।
श्रीकृष्ण और रुक्मणी की पहचान मथुरा में तब हुई थी जबकि रुक्मी की उद्दंडता का दंड, श्रीकृष्ण ने रुक्मणी के सामने ही दिया था। तब से रुक्मणी, श्रीकृष्ण के मोहक रूप और न्यायप्रिय पक्ष पर आकर्षित हो गई थी। रुक्मणी के दादा कैशिक और छोटे दादा क्रत रुक्मणी के साथ थे। हम थोडा़ तब के आर्यावर्त की प्रकृति भी समझ लें। तब आर्यावर्त की सीमा-गांधार, काश्मीर, आनर्त सौराष्ट्र, भृगुकच्छ, मथुरा से लगता क्षेत्र मध्यदेश (उम्र, बिहार), विंध्य सीमा, और हरिद्वार, में मुख्यत: सम्राट जरासंध का आतंक था।
पांचाल और हस्तिनापुर पर भी उसकी दृष्टि तो थी, परन्तु महाप्रतापी भीष्म और द्रोणाचार्य के शत्रु द्रुपद से वह भय खाता था। यह दोनों राज्य शक्तिशाली थे। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। जरासंध का जामाता कंस उसका एक मोहरा मात्र था। जरासंध ने चक्रवर्ती बनने की महत्वाकांक्षा पाल रखी थी। उसके इस कुचक्र में चंदेरी का राजा और शिशुपाल का पिता दामघोष, बक्सर का राजा और कृष्ण की एक अन्य भुआ का पुत्र दंतवक्र, और भीष्मक बुरी तरह फंस चुके थे।
जरासंध, चक्रवर्ती बनने के लिये 100 राजाओं की बलि देकर रूद्र को प्रसन्न करना चाहता था। जरासंध ने नरमेध यज्ञ करने का संकल्प ले रखा था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये वह 98 राजा पकड़कर मगध के कारागार में निरुद्ध भी कर चुका था। दो राजाओं की कमी को पूरा करने की दृष्टि से उसने पुत्र सहदेव और प्रपौत्र मेघसंधि की बलि करने का मन भी बना लिया था। मेघसंधि जरासंध का अंगरक्षक भी था। अतः वह इस तथ्य को जानता था। और उसने ही कृष्ण को सूचना भेजकर राजगृह बुलवाया था। तब कृष्ण ने राजगृह जाकर भीम से मल्ल युद्ध में जरासंध को मरवा दिया था।
हम रुक्मिणी स्वयंवर की बात कह रहे थे। इसी मध्य कंस का वध हो गया। आर्यावर्त का केन्द्र मथुरा से अपना वर्चस्व समाप्त देख जरासंध बौखला गया। जिस केन्द्र से वह अपनी योजना का संचालन करते हुए सफलता की ओर बढ़ रहा था, वह अचानक कृष्ण ने समाप्त कर दिया। कृष्ण, जो जरासंध की आंखों की किरकिरी थे, उसका मुख्य कारण यही था। जरासंध ने कभी भीष्मक को बुरी तरह रौंदा था। कुंडिनपुर को बर्बाद कर दिया था।
भीष्मक के पिता कैशिक और चाचा क्रत, यह सब भूले नहीं थे। परन्तु इसके साथ ही भीष्मक के अति महत्वाकांक्षी पुत्र रुक्मी ने जरासंध से हाथ मिला लिया था। चंदेरी का राजा दामघोष चतुर था। कृष्ण का फूफा और मथुरा का जामाता होने के कारण वह मथुरा को अस्त्र, शस्त्रों की पूर्ति तो करता था, परन्तु जरासंध के यहां भी उसकी उपस्थिति रहती। जरासंध ने रुक्मी और शिशुपाल पर ध्यान केन्द्रित किया। दोनों राजकुमारों को स्वयंवर का स्वप्न दिखाया। रुक्मी को कहा कि वह उसकी बहिन रुक्मणी का विवाह तो शिशुपाल से करदे और फिर मैं अपनी मेरी पौत्री अप्नवी वह विवाह तुम से कर दूंगा।
यह एक राजनैतिक चक्र था। अनैतिक, अत्याचारी और आर्यावर्त को अपने अधिकार में रखने का माध्यम। कृष्ण इसका केन्द्र कैसे बने । उनको और मथुरा को तो निमंत्रण ही नहीं दिया गया था। और सरासर अपमानित करने की दृष्टि से। कंस के वध के प्रतिशोध में 17 बार आक्रमण किये और एक बार फिर से मथुरा को रौंदने की तैयारी चल रही थी, फिर कैसे कृष्ण ने, विपरीत परिस्थितियों में भी रुक्मणि का हरण कर सब को हतप्रभ कर दिया।
कथा बहुत रोचक है। आमतौर पर हम लोगों ने सुना भी न होगा। तथ्य सिर्फ इतना ही नही कि रुक्मणी कृष्ण के प्रति क्या एक तरफा समर्पित थी? नही.! ऐसा नहीँ। कृष्ण भी रुक्मणी को उतना ही पसंद करते थे जितना कि रुक्मणी, कृष्ण को। परन्तु इस प्रेम, आकर्षण और समर्पण का आधार, दोनों का न्याय प्रियता की ओर झुकाव था। कंस के धनुर्वेद यज्ञ में सम्मिलित होने जब कृष्ण और बलदाऊ मथुरा पहली बार गये।
तब उनका रुक्मी और रुक्मणी से सामना हुआ। रुक्मी रथ का संचालन कर रहा था। रुक्मिणी और भाभी सुव्रता रथ में बैठीं थी। दोनों भाई, नगर भ्रमण कर रहे थे। अपार जनसमूह दोनों भाइयों के नीले और पीले सुन्दर परिधानों को उत्सुकता से देख रहा था। दोनों भाई अंगराग (सौन्दर्य प्रसाधन) कराने एक दुकान में थे। तभी मार्ग पर रुक्मी के रथ से कोई टकरा कर गिर पडा़। भीड़ लग गयी। शोर गुल और जोरों की आवाजें सुन कृष्ण ने बाहर देखा। राजकुमार रुक्मी आहत व्यक्ति को प्रताडि़त कर रहा था। संपूर्ण घटना समझने के पश्चात कृष्ण ने रुक्मी को समझाया। परन्तु स्वभाव से ही उद्दंड रुक्मि ने कृष्ण को धमकाया और धकियाया भी।
कृष्ण ने रुक्मी का गला पकड़कर ऐसा फेंका कि वह सीधा रथ में गिरा। रथ के बैल विचलित हो गये। रुक्मी कृष्ण पर चिल्लाया, डांट डपट करने लगा। परन्तु सहमी हुई रुक्मी की पत्नी और एकमात्र बहिन रुक्मणी ने क्या किया!
देखेंगे आगे। तो आज की कथा बस यहीं तक। तब तक विदा।
धन्यवाद ।
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